अरुण कुकसाल
बात 1973 की है। पिताजी का काशीपुर से टिहरी ट्रांसफर हुआ। मैंने 10वीं में प्रताप इण्टर कालेज, टिहरी में एडमीशन ले लिया था। पुराना बस अड्डा से बाजार की ओर ढलान से जाते हुए पुल के पार चकाचक सफेद मकान और उसके ऊपर लगे लाल झण्डे पर निगाह अक्सर रुक जाती थी। कालेज की ओर जाते हुए एक दिन जिज्ञासावश साथ चल रहे दोस्त अतर सिंह पुण्डीर से पूछा ‘ये घर किसका है?’ तो उसने सनसनी भरी जानकारी दी।
टुकड़े-टुकड़े में कई दिनों तक मित्रों से मिलने वाली सूचना के मुताबिक ‘वो मकान वकील विद्यासागर नौटियाल का है। वे पक्के कम्युनिस्ट हैं। रूस एवं चीन सहित कई अन्य कम्युनिस्ट देशों में उनका आना-जाना लगा रहता है। लेखक भी हैं और अच्छी कहानियां लिखते हैं। एक दोस्त ने राज की बात बड़े धीरे से मित्रमण्डली को बताई कि ’वे जासूस भी हैं।‘ बस फिर क्या था। उन पर अधिक से अधिक जानकारी जुटाना हमारे, प्रमुख कार्यो में शामिल हो गया। नौटियाल जी कहीं दिखे नहीं हम उनके आगे-पीछे बहाना बना कर चलते। मानों कि ’बच्चू, हम भी कम जासूस नहीं हैं। जासूसों पर भी जासूसी नज़र रखते हैं’।गौरवर्ण, दुबला-पतला शरीर, गंभीर मुद्रा, घनघोर अध्ययन की प्रवृति वाले, नौटियाल जी।
मित्रों ने बताया कि ये सभी खूबियां काबिल जासूस होने के लिए बिल्कुल माफिक हैं। परन्तु, किशोरावस्था का यह भ्रम हम दोस्तों का बहुत जल्दी दूर हो गया। उस दौर में, गोपालराम बहुगुणा जी प्रताप कालेज, टिहरी के प्रधानाचार्य हुआ करते थे। उनका सख्त अनुशासन इससे पूर्व इण्टर कालेज, जोशीमठ में मैं देख चुका था। सर्वोदयी सुन्दरलाल बहुगुणा जी अक्सर कालेज की प्रार्थना सभा में व्याख्यान देने आते थे। उन दिनों उनका नंगे पांव पैदल यात्रा करना टिहरी बाजार में चर्चा का विषय था। पर्यावरण संतुलन के लिए वनों के संरक्षण एवं संर्वद्वन पर वे जोर देते । राष्ट्रीय समाचार पत्रों में उनके अंग्रेजी-हिन्दी में लिखे लेख हमको बहुत प्रभावित करते। चिपको की नजदीकी पैदल यात्राओं में हम कालेज के छात्र भी शामिल होते रहते।
सुन्दरलाल बहुगुणा जी के साथ किसी कार्यक्रम में नौटियाल जी से नजदीकी मुलाकात हुयी। परन्तु, उनका धीर-गंभीर स्वभाव हमसे दूरी बनाये रखता, जबकि सुन्दरलाल बहुगुणा जी से हम खूब घुल-मिल गए थे। उन्हीं दिनों पढाई के इतर देश-समाज एवं साहित्य के बारे में कुछ दोस्तों ने पढ़ना शुरू किया था। सुमन लाइब्रेरी में स्कूल के हॉफ टाईम में जाना हमारा रोज का काम था। गर्ल्स कालेज भी सुमन लाइब्रेरी की तरफ ही था। लिहाजा, एक पंथ कई काज हो जाते थे। मित्रों का परीक्षा के बाद की छुट्टियों में उपन्यास-कहानियों की किताबों के आदान-प्रदान एवं मिलने-मिलाने का सुमन लाइब्रेरी ही मुख्य ठिंया था।
मेरी मित्र मण्डली का शरतचन्द, ईलाचन्द जोशी, टैगोर, शिवानी, प्रेमचन्द्र, फिराक और गालिब से पाला पढ़ चुका था। मैक्सिम गोर्की के ‘मां‘ उपन्यास का कई बार सामूहिक पाठ हमने किया था। सुमन लाइब्रेरी में नौटियाल जी नियमित पढ़ने आते। हमारे अध्ययन की प्रवृति से वे प्रभावित हुए। उनसे दोस्ती सी होने लगी। पर अब भी दूरी बरकरार थी। नौटियाल जी की ‘भैंस का कट्टया‘ कहानी हम दोस्तों ने पढ़ ली थीं। तब जाकर यह धारणा बनी कि जो व्यक्ति ‘भैंस का कट्टया’ जैसी कहानी लिख सकता है, वह जासूस तो हो ही नहीं सकता।
याद है कि श्री देव सुमन लाइब्रेरी में एक बार पेज पलटने के लिए जैसे ही मुंह पर हाथ लगाया सामने बैठे नौटियाल जी ने इशारे से ऐसा करने से मना कर दिया। बाद में बाहर आकर ’कैसे किताब के पन्ने पलटने चाहिए’ इस पर उन्होंने लंबी हिदायत दी। ’उनकी यह नसीहत आज 50 साल बाद भी काम आ रही है।’
वर्ष 1973 से 1977 तक टिहरी नगर कई एतिहासिक घटनाओं एवं परिवर्तनों से गुजरा। इस दौर में टिहरी बांध बनने के लिए ठक-ठक शुरू हो चुकी थी। विरोध के स्वर के रूप में ‘टिहरी बांध विनाश का प्रतीक है‘ नारे को पुल के पास लिखा गया था। वहां पर कुछ प्रबृद्धजनों की लंबी वार्ता चलती। थोड़ी दूरी के साथ हम भी उनकी बातों को सुनते और समझने की कोशिश करते। उन दिनों घनश्याम सैलानी जी हारमोनियम साथ लेकर चिपको आन्दोलन के गीत जगह-जगह गाते -गाते लोगों में गजब उत्साह भरते थे। टिहरी मेन बाजार के ठीक मध्य भाग में स्थित विशाल पेड़ के नीचे अक्सर उनकी खुली महफ़िल सजती।
बांध बनेगा तो टिहरी वालों को नौकरी तुरन्त मिल जायेगी का शोर गर्माया तो मेरे साथ के कई साथी टाइप सीखने में लग गए। देखते ही मेन टिहरी बाजार में ’पैन्यूली पुस्तक भण्डार’ के पास ऊपर वाली मंजिल में टाइप सिखाने की दुकान बढ़िया चलने लगी। उस दौर में, टिहरी बांध बनने अथवा न बनने के नफे-नुकसान का आंकलन आम लोग अपने-अपने हितों को देख-समझकर ही कर रहे थे। विद्यासागर नौटियाल जी ने तर्कसंगत ढंग से बांध विरोध की बात हमसे कहते हुए यह भी सलाह दी कि हम युवाओं को टाइप सीखने के बजाय आगे की शिक्षा जारी रखनी चाहिए। वे जोर देते कि विज्ञान पढ़कर तकनीकी दक्षता प्राप्त करके तकनीकी नौकरी प्राप्त करो। बाबू-चपरासी बनकर कुछ भला नहीं होने वाला। अगर बांध बनता भी है तो हमारे लोग इस बांध निर्माण में तकनीशियन/इंजीनियर के बतौर कार्य करेंगे तो तभी स्थानीय हित सुरक्षित रहेंगे।
आज, नौटियाल जी बात बखूबी समझ में आ रही है। उस दौर में वामपंथी कार्यक्रमों के साथ आजाद मैदान के पास लगने वाली आर.एस.एस की शाखा ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि’ में भी हमारी उपस्थिति रहती। सर्वोदयी सुन्दरलाल बहुगुणा जी का वृक्ष राग भी हमारे आकर्षण का हिस्सा था। कामरेड गोविन्द सिंह नेगी और इंद्रमणि बडौनी से हम प्रभावित थे। परंतु, इन सब में अलग साहित्यकार एवं राजनीतिज्ञ विद्यासागर नौटियाल जी के बौद्धिक चिंतन के हम सबसे ज्यादा मुरीद थे। उनके भाषणों को सुनते हुए हम मन ही मन देश-दुनिया के इतिहास की सैर कर आते। टिहरी राजशाही की क्रूरता के इतिहास पर उनसे ज्यादा तीखा एवं सटीक और कोई नहीं बोल पाता था।
नेताओं की भीड़ में वे ’एकला चलो’ से दिखते। अपने कर्म में दद्चित-विचारों में मगन। कहीं कोई घटना घटी नौटियाल जी लोगों के कष्टों के निवारण के लिए तुरन्त वहां हाजिर हो जाते। विधायक बनने के बाद भी मैंने उनको कई बार अकेले ही आम सवारियों के साथ बस में सफर करते देखा। सुबह की पहली बस में अपनी सीट रिर्जव कराने के लिए वे बीते शाम ही ड्राइवर-कण्डक्टर या टिकट बाबू के पास अपना बैग रख आते थे। अपने संस्मरणों में इसका उन्होंने जिक्र भी किया है। विधायकी के दिनों के केन्द्र में लिखा उनका ’भीम अकेला’ संस्मरणात्मक उपन्यास आज के नए राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक किताब है। यह किताब बताती है कि पहले के राजनेताओं में समाज सेवा का कितना जज्बा था?
नौटियाल जी की साहित्यकार के रूप में कितनी प्रतिष्ठा है, इसका आभास मुझे दो बार की अप्रत्याशित घटनाओं से हुआ। सन् 1987 को गोण्डा तो सन् 1989 में मैनपुरी जिले के गांवों में कुछ दिन मित्रों के साथ रहना हुआ। मित्रों ने जब मेरा परिचय ’ कुकसाल जी, गढ़वाल के रहने वाले हैं’ दिया तो दोनों ही गांवों में मुझे सुनने को मिला, ’अच्छा कथाकार विद्यासागर नौटियाल के यहां के रहने वाले हो’। अमूमन गढ़वाल से बाहर अपनी पहचान के लिए तब मैं कहता था ’बद्रीनाथ धाम का रहने वाला हूं।’ यह बता कर बद्रीनाथ जी की कृपा से सभी जगह हमारी इज्जत और खातिरदारी भी बढ़ जाती।
पर यहां तो दोनों ही जगह बद्रीनाथ जी के बजाय विद्यासागर नौटियाल जी से अपनी पहचान हुयी। गोंडा और मैनपुरी जिलों के दूरस्थ गावों में विद्यासागर नौटियाल को जानने वाले ही नहीं उनके प्रशंसक भी हैं, यह जानकर मुझे सुखद आर्श्चय हुआ। इन वाकयों में एक बात और महत्वपूर्ण थी, दोनों ही जगह उनकी ख्याति बतौर साहित्यकार ही सुनने को मिली। वे विधायक और कम्युनिस्ट भी हैं को बताने में मुझे ज्यादा जोर से कहना पड़ा।
वाकई, नौटियाल जी का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा। साहित्य एवं राजनीति को उन्होंने अपने जीवन में अलग-अलग पलड़ों में इस प्रकार रखा कि एक दूसरे पर हावी होना तो दूर वे आपसी जान-पहचान भी नहीं बना सके। साहित्य और राजनीति के बीच उनका निजी स्वभाव एक तीसरा कोण बनाता था, जिसमें राजनीति और साहित्य की जरा भी झलक नहीं दिखाई देती।
उनके निजी व्यवहार में न तो साहित्यकार का अहम दिखता और न राजनीतिज्ञ का दम्भ। बस दिखता एक सामान्य सी कद काठी का सीधा-सपाट और निश्चल व्यवहार, जो इतना नादान कि बोलने से पहले यह भी नहीं समझ पाता की ’दूसरा क्या सोचगा’? बस ’जो कह दिया, सो कह दिया।’ अब तुम जानों और तुम्हारा काम। वो अकसर चुप रहते, कम बोलते परन्तु जब बोलते तो धारा प्रवाह एवं तथ्य परख ही बोलते, जिसमें गहन अध्ययन, अनुभव एवं अनुशासन का पुट रहता। मैंने नौजवानी के दिनों में उनका साहित्य एवं राजनैतिक विचारों का अध्ययन करते हुए उसे जीवन में उतारने की कोशिश भी की थी। पर ’डगर कठिन है, पनघट की’ का करामती भाव मुझे मुहं बायें चिढाये रहता।
साहित्य, राजनीति एवं अपने निजी व्यक्तित्व को एक दूसरे से बिना गडमड किए हुए वे हमेशा अध्ययनशील एवं प्रगतिशील रहते। बदलते समय के साथ वे तकनीकी दक्षता को हासिल करते जाते। जीवन के यथार्थ को कहने में उन्होंने कोई चूक नहीं की। छिपाना और बातों को अपने मन में रखे रखना उनके स्वभाव में नहीं था। उनका साहित्य शब्दों की बाजीगरी से कोसों दूर मानव के संघर्षों एवं बिडम्बनाओं की असली तस्वीर है।
विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार हावर्ड फास्ट के नायक ‘स्पार्टकस’ की तरह है जो कि सामाजिक-राजनैतिक सत्ता के अन्याय के विरुद्ध जीवन भर आन्दोलित रहा। ‘स्पार्टकस’ का निजी जीवन भी संघर्ष की सेज पर रहा, परन्तु अपने स्वाभाविक स्वभाव से उसके अधरों पर हर समय मनमोहक मुस्कान, प्रेम और खुशियों के गीत समाये रहते रहे। क्योंकि, वह आश्वस्त था कि दुनिया का आने वाला कल आज से बेहतर होगा। यही सकारात्मकता उसे अन्याय से लड़ने की ताकत और जीने का जज्बा प्रदान करती थी।
धीर-गम्भीर, सपाट एवं जीवंत व्यक्तित्व वाले नौटियाल जी से हमने आज भी बहुत कुछ सीखना-समझना था। परन्तु नियति पर किसका वश चला। यह प्रसन्नता बात है कि विद्यासागर नौटियाल जी की साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों की अलख के जीवंत संवाहक परम आदरणीय गुरुदेव शोभाराम शर्मा जी और हम-सबके परम मित्र बडे भाई अनिल स्वामी जी को ’विद्यासागर सम्मान’ प्रदान किया जा रहा है।