राजीव लोचन साह
किसानों के आन्दोलन के कारण इस बार का गणतंत्र दिवस कुछ विशेष हो गया है। गण और तंत्र के बीच की खाई बढ़ते रहने के कारण गणतंत्र दिवस को लेकर जन सामान्य के मन में पिछले कुछ दशकों से जो परायापन आ गया था, वह इस बार दूर होता दिखलाई दे रहा है।
आजादी के संघर्ष में देश की जनता ने मिलजुल कर भाग लिया था। तब छोटे-बड़े का कोई सवाल नहीं होता था। जो लोग देश की आजादी चाहते थे, वे अपनी जगह थे और राजभक्त तो खैर अपनी जगह थे ही। आजादी से जनता के मन में एक उम्मीद, आजादी के लिये एक उत्साह था। वह संविधान में भी प्रतिध्वनित हुआ, जब ‘हम भारत के लोगों’ ने अपने संविधान को अंगीकृत किया था। आजादी के बाद के शुरू के सालों में गणतंत्र दिवस को लेकर भी एक उत्साह और उल्लास हुआ करता था। भारतीय गणतंत्र की सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक विविधता में एकता दिखाने वाली गणतंत्र दिवस की परेड में लोग पूरे जोशोखरोश से भाग लेते थे। जनवरी की कड़ाके की सर्दी में केवल विशिष्ट लोग ही सरकारी ‘पास’ लेकर गणतंत्र दिवस के समारोह में शामिल नहीं होते थे, बल्कि जन सामान्य भी मुँह अंधेरे ही राजपथ की कुर्सियों पर कब्जा कर, घंटों प्रतीक्षा कर अपने गणतंत्र की शक्ति को देख कर गौरवान्वित हुआ करता था। गणतंत्र दिवस को लेकर यह उत्साह देश की राजधानी से लेकर देश के गाँव-कस्बों तक देखा जाता था। स्कूली बच्चों की प्रभातफेरियाँ सर्दियों में भी बड़े-बूढ़ों में गर्मी पैदा कर देती थीं।
धीरे-धीरे गणतंत्र से ‘गण’ लुप्त होता गया और गण के जनादेश से बनी हुई सरकारें तथा गण के दिये हुए टैक्स से उसकी सेवा के लिये बना हुआ प्रशासन एक ‘तंत्र’ के रूप में संगठित होकर गण को हाशिये पर डालने लगेे। गण को महसूस होने लगा कि इस गणतंत्र में वह सिर्फ एक दिखावे के रूप में है। उसकी जरूरत सिर्फ चुनाव में वोट देने के लिये रह गई है। उसके दुःख-सुख से तंत्र को कोई सरोकार नहीं है। गणतंत्र को चिन्ता कुछ खास लोगों की होती है। वह वोट चाहे सबसे ले ले, मगर हित चिन्ता वह उन खास लोगों की ही करता है। एक बार यह भाव उसके मन में आया तो उसके मन में गणतंत्र दिवस को लेकर बनने वाला उत्साह और उल्लास भी टूटने लगा। गणतंत्र दिवस केवल एक कर्मकाण्ड बन कर रह गया, जिसमें राजकोष से वेतन लेने वाले अधिकारी-कर्मचारियों की उपस्थिति होती है या उन स्कूली बच्चों की, जिनके लिये अपन अध्यापकों का आदेश मानना अनिवार्य होता है। अपने अभावों के बावजूद जन सामान्य जिस तरह से दीवाली, ईद या क्रिसमस में उत्साह दिखाता है, उसका सौवाँ हिस्सा भी अब गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस में नहीं दिखाता। बाजार की कोशिशों से प्लास्टिक के तिरंगे झंडों की बिक्री जरूर बड़ी है, मगर इससे आगे इस गणतंत्र में उसकी क्या भूमिका है, इस बात को लेकर गण पूरी तरह बेपरवाह हो गया है। कुछ पढ़े-लिखे लोग यह जानने को उत्सुक होते हैं कि इस बार शौर्य प्रदर्शित करने वाले पुरस्कार किसे दिये गये हैं और विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट काम करने पर दिये जाने वाले पù सम्मान किसे। इनसे कुछ अधिक लोग टी.वी. पर गणतंत्र दिवस का लाईव प्रसारण देख लेते हैं, मगर उनसे भी ज्यादा लोग मनोरंजन के अन्य चैनल, जिन्हें देशभक्ति के रंग में रंगने की कोशिश की जाती है, देखा करते हैं।
बस इतना ही रह गया है, पिछले पचास सालों में हमारा गणतंत्र दिवस।
इस बार किसान आन्दोलन ने बहुत कुछ बदल दिया है। तीन कृषि कानूनों, जिन्हें किसान कतई स्वीकार नहीं करना चाहते, को जबरन उन पर थोप दिये जाने के कारण वे पिछले चार महीनों से आन्दोलन कर रहे हैं। दो महीनों से तो वे लाखों की संख्या में कड़ाके की सर्दी में दिल्ली की सीमाओं पर डटे हुए हैं। सरकार के साथ किसान नेताओं की अनेक दौर की वार्तायें असफल हो गई हैं। न किसान झुक रहे हैं और न सरकार। दर्जनों किसान इस अब तक इस आन्दोलन में अपने प्राण गँवा चुके हैं। मगर उनका उत्साह कम नहीं हो रहा है। उसी उत्साह के साथ अब वे अपने आन्दोलन के एक कार्यक्रम के रूप में गणतंत्र दिवस को अपनी एक ट्रैक्टर रैली के रूप में मनाने जा रहे हैं। दिल्ली पुलिस के साथ जद्दोजहद कर वे दिल्ली में यह परेड करने की अनुमति भी प्राप्त कर चुके हैं। इस ट्रैक्टर रैली में उनके साथ गणतंत्र दिवस की मुख्य परेड की तरह पूर्व सैनिकों की टुकड़ियाँ भी होगी और ट्रैक्टर ट्राॅलियों पर अनेक झाँकियाँ भी। दिल्ली से लगते हुए प्रदेशों से हजारों ट्रैक्टर लगातार दिल्ली की ओर आ रहे हैं और जो प्रान्त दूर हैं, वहाँ के किसान अपने प्रदेशों की ही राजधानियों में ही ऐसा कार्यक्रम करने की कोशिश कर रही हैं। किसानों में तो यह आयोजन करने का उत्साह है ही, देश की जनता में भी यह देखने का उत्सुकता है कि देखें किसान अपना यह कार्यक्रम कितनी सफलतापूर्वक कर सकते हैं।
इसी बात को लेकर इस बार भारत के गणतंत्र दिवस का अर्थ बदल गया है और महत्व भी।
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।