चंद्रशेखर तिवारी
बसन्त ऋतु आ गयी है पहाड़ के शिखर और घाटियों में बुंराश, सरसों, प्योंली, किलमड़, पंय्या तथा आड़ू, खुबानी व भिटौर के फूलों की रंगत बिखरने लगी है। बसन्त के सूरज ने अल-सुबह ही रंग की गागर शिव के माथे पर उड़ेल दी है पार्वती जी की झिलमिल साड़ी को हिम परियों ने सतरंगी रंगों से रंग डाला है। प्रकृति के बसन्ती रंग से समूचा पहाड़ शोभित उठा है।
‘बुरुंशि को फूल को कुमकुम मारो,
डाना-काना छाजि गै बसन्त नरंगी
पारबती ज्यू की झिलमिल चादर,
ह्युं की परिनलै रंगै सतरंगी
लाल भयी हिमांचल रेखा,
शिबज्यू की शोभा पिंगली दनकारी
सुरज कि बेटियों लै सरगै बै रंग घोलि,
सारिही गागर ख्वारन खिति डारी।’
उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में ऋतु गीत गायन परम्परा में बसन्त ऋतु का सर्वाधिक महत्व दिखायी देता है। यहां बसन्त ऋतु में जो गीत गाये जाते हैं उनमें फाग, ऋतुरैण, चैती, बसन्ती खुदेड़, झुमैलो आदि प्रमुख हैं जो सामान्य अर्थ में प्रकृति के गीत हैं।इन गीतों में वर्णित बिम्ब एक विशिष्ट व अलौकिक सुख का आभास कराते हैं। बसन्त ऋतु के इन गीतों में मानव मन के तमाम उद्गार और भावों सहित पहाड़ के असल जन-जीवन व लोक परम्परा की अद्भुत बानगी दिखायी देती है।
पहाड़ में अत्यंत उत्साह से बसन्त पंचमी पर्व का स्वागत होता है। अरे देखो…सिरी पंचमी का पर्व आ गया है…डाण्डी कांठी में बसन्त बौराने लगा है, रास्ते और खेतों में प्योंलड़ी फूल गयी है। बांज की डालियों में मौल्यार आ गया है। जहां तहां कुंज के फूल खिल गये हैं। गेहूँ -जौं के खेतों में रंगत दिखने लगी है। औजी (ढोल वादक) ढोल बजाकर गांव के हर घर में जाकर हरे जौं के तिनके देते हुए परिवार की सुफल कामना कर रहे हैं-
‘जौं ल्यो पंचनाम देवता, जौं ल्यो पंचमी का साल
जौं ल्यो हरि,राम,शिव, जौं ल्यो मोरि का नारैण!’
पेड़-पौंधों की डालियां नयी कोपलों और फूल-पत्तियों से लद गयीं हैं।दूर किसी घर से हारमोनियम की धुन व तबले की गमक में बैठ होली के गीत शनैः शनै बसन्ती बयार में घुल रहे हैं। परदेश गये पति के विरह में विरहणी नारी का अर्न्तमन प्रेम, श्रृंगार के रंग-लहरों में हिलोरें मार रहा है। नायिका आतुर होकर अपने प्रेमी से अनुनय रही है कि मेरे प्रिय ! ग्वीराल, प्योंली, मालू, सकीना, कुंज और बुंराश के फूल खिल चुके हैं…डाल-डाल पर बसन्त बौरा गया है… अब बस भी करो..तुम आ जाओ और मुझे भी बसन्ती रंग से रंग डालो।
‘ग्वीराल फूल फुलिगै म्यारा भिना
मालू बेड़ा प्योेंलड़ी फुलिगै भिना
झपन्याली सकिनी फुलिगै भिना
द्युल थान कुंजू फुलिगै भिना
डांड्यू फुलिगै बुरांश म्यारा भिना
डाल फूलो बसन्त बौड़िगे भिना
बसन्ती रंग मा रंगैदे भिना
ग्वीराल फूल फुलिगै म्यारा भिना’
अहा बसन्त ऋतु कितनी भली है जोे विवाहित बेटी-बहुओं को उनके मायके की याद जो दिला रही है। अपनी विवशताओं के कारण वह मायके तो नहीं जा सकती पर वह मायके की राजी-खुसी की कामना तो कर ही सकती है…मेरी मां! खेतों में पीली सरसों फूली होगी, जंगल में कफू कुहकने लगा होगा…मेरे माता-पिता, भाई-बहन, दूध देने वाली सुरमाली भैंस और वह नटखट बिल्ली न जाने कैसी होगी..मन करता है कि मैं उड़कर आ जाऊं…मैं तो असहाय हूँ
‘फुलि गै छ दैणा,मेरि बैणा ऐगो चैता म्हैणा
कफुवा बासण फैगो,मेरि बैणा ऐगो चैता म्हैणा
कसि छु इजु मेरि,
लागि छू नराई कसि सुरमाई भैंसी पुसुली बिराई
हिया मेरो कूछ अब कथ न्है जा उड़ि
तुम फुलि जैया, फलि जाया, जस फुलो दैणा।’
दूर शिखरों में खिले लाल बुंराश को देखकर प्रेयसी का प्रेमी विरह वेदना में व्याकुल हो उठा है। बुंराश का सुर्ख लाल रंग उसके मन को और अधिक अधीर बना रहा है प्रेयसी की याद में उसकी आंखे डबडबा आयी हैं। उसकी भूख, नींद, सुख, चैन गायब हो गयी है, अपना दुख सुख वह किससे कहे। प्रेयसी की राह दंखते हुए वह कहता है कि बसन्त ऋतु लौटकर पुनः आ गयी है पर वह निरमोही अब तक नहीं आयी न जाने वह कहां रम गयी होगी.-
‘फूल फूलों बुरुशी को डाना म्यारा आंखा सुवा डबडबाना
भूख न्हैती नीन लै हराणीतेरी माया लै खायी पराणी
दुख सुख कैथेणी मैं कुंनू त्यारा बाटा घाटा चैई रुंनू
निरमोही तु कति रमी रयै रितु ऐगे फेरि तू नि ऐयेै
मैं निसासी गयूं चानै चाना, फूल फूलों बुरुशी को डाना’
पर्वतीय लोक जीवन में पेड़ पौधों, फूल पत्तियों के प्रति अनन्य आदर का भाव समाया हुआ है। खासकर फूलों के लिए तो यह भाव बहुत पवित्र दिखायी देता है। पदम के वृक्ष को यहां देवताओं का वृक्ष कहा जाता है। पदम की सुकोमल पौंध जब अंकुरित होती है तो लोग उल्लसित होकर यह गीत गाते हैं-
‘नई डाळी पैय्यां जामी, देवतों की डाळी
हेरी लेवा देखी ले नई डाळी पैय्यां जामी
नई डाळी पैय्यां जामी,क्वी चौंरी चिण्याला
नई डाळी पैय्यां जामी,क्वी दूद चरियाळा
नई डाळी पैय्यां जामी,द्यू करा धुपाणो
नई डाळी पैय्यां जामी,देवतों का सत्तन
नई डाळी पैय्यां जामी,कै देब शोभलो
नई डाळी पैय्यां जामी,छेतरपाल शोभलो’
पदम का नया पेड़ उग आया है। इसका दर्शन करलो यह देवताओं का पेड़ है। आओ इसकी चहारदीवारी बनाओ,…इसे दूध से सींचो और धूप दीप से इसकी पूजा करो। देवताओं के पुण्य से पदम का नया पेड़ उगा है।
बसंत के मौसम में ज़ब प्रकृति में नाना किस्म के फूलों की बहार रहती है उसी बीच फूलों का त्यौहार भी आता है. फूलदेई अथवा फुलसंग्राद के नाम से यह पर्व उत्तराखण्ड में बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है। बसन्त ऋतु में फूलदेई नव वर्ष के आगमन पर खुसी प्रकट करने का त्यौहार है। गांव के छोटे बच्चे नन्हीं टोकरियों में किस्म-किस्म के फूलों को चुनकर लाते हैं। इन फूलों को बच्चे प्रातः काल में गांव की हर देहरी पर रखते हैं। परिवार व समाज की सुफल कामना करते हुए बच्चे गीत गाते हैं- फूल देई तुम हम सबकी देहरी पर हमेशा विराजमान रहो और हमें खुसहाली प्रदान करो। आपके आर्शीवाद से हमारे अन्न के कोठार सदैव भरे रहें।
‘फूलदेई,छम्मा देई
दैण द्वार भरी भकार
य देई कै बारम्बार नमस्कार
फूलदेई,छम्मा देई
हमर टुपर भरी जै
हमर देई में उनै रै
फूलदेई,छम्मा देई’