पृथ्वी ‘लक्ष्मी’ राज सिंह
शेर एक अंतर्राष्ट्रीय, विश्वगुरु, टाइप का परानी होता है। ऐम छो! केम छो! हाउड़ी छो! इसका सबूत हैं।
इसके गले में बालों का गुच्छा लिपटा होता है। इसे अयाल कहते हैं। गमछा भी कह सकते हैं। यह उसके गले की रक्छा करते हैं।
अगर वह मुंह में लपेट सकता तो कोरोना में भी अपना फैशन बचाकर रख सकता है।
उसके बारे में हव्वा है कि वह जंगल का राजा होता है। असल में उसे वास्तविक जंगल का कोई अनुभव होता ही नहीं है। शेर अफ्रीका का हो या गुजरात का रहता घास के मैदान में ही है। जंगल से उसके वास्ते से ज्यादा गोदी मिडिया में उसका पव्वा है। वह आसानी से अपनी नाकामी का ठिकरा राज्यों, पार्टी अध्यक्षों या विपक्ष के सिर में फोड़ सकता है क्योंकि वह तो कभी जंगल में रहता ही नहीं है।
शेर का मुख्य काम सुरक्षा देना होता है। इसके खातिर उसे बरसात के समय शिकार की सूटिंग का काम व नेशनल पार्क छोड़कर नेशनल हाइवे में दौड़ता देखा गया है।
यह काम केवल और केवल सीमा की सुरक्षा होता है। सुरक्षा के नाम पर वह शेरनियों के अन्य शावकों की हत्या करता है। यकीन नहीं होता तो इसे उसके मेनीफेस्टो में देखा जा सकता है। जहाँ केवल और केवल वही शेर होता है बाकी सन्नाटे का ढेर होता है।
वह हिरन हो! खरगोश हो! रोहित वेमुला हो या हेमंत करकरे! शेर कभी शिकार नहीं करता। बादल – रडार – जहाज और लाल आंख – भगवा कच्छा जैसे व्यक्तव्यों से शिकार के बारे में उसकी समझ को आसानी से समझा जा सकता है।
शिकार केवल और केवल शेरनियां करती हैं। शेर खाने में अवसर तलाशता है। नोटबन्दी, जीएसटी, फण्ड जैसे जंगली माध्यमों से वह शेरनियों के किये शिकार का सत्तर से नब्बे फिसदी हिस्सा खा जाता है।
पहले ही कहा जा चुका है कि शेर का मुख्य और केवल काम सुरक्षा प्रदान करना है, शिकार करना नहीं। इन सुरक्षित हाथों के लिए शिकार में उसका हिस्सा जरूर बहुत बड़ा होता है। जोकि जायज भी है कि बजट का बड़ा हिस्सा हस्पताल, स्कूल से ज्यादा सेना, मंदिर व मुर्ति में खर्च होना चाहिए।
प्राणी का क्या है वह तो नश्वर है! पैदल चलने से मर जाता है या बेरोजगारी से आत्महत्या कर लेता है। ऐसे में केवल मुर्तियां ही हैं जिनकी अजर अमर गाथाएं हैं, भव्य मंदिर हैं करोड़ो के चढ़ावे हैं, लीटरों तेल और घी की बातियां हैं, जो कोरोना जैसी बिमारी के साथ सदियों तक समृद्धि व महामानव की महानता को जिन्दा रखती हैं। वरना उस आदमी का क्या है वह कमबख्त तो भूख से ही मर जाता है! कोरोना से खाक लड़ेगा! लड़ेगा भी तो क्या बचेगा!
सीमा की सुरक्षा इतना भी आसान काम नहीं है। केवल आम नौकरी वाले के बस की बात नहीं है। इसके लिए दबे पांव चलने वाला, ऐड़िया तक जमीन में नहीं रखने वाला, जिसकी खुद की सुरक्षा का खर्च करोड़ों में हो, ऐसा एक शेर जरूरी है।
बेचारा हर पेड़ में राष्ट्रवाद की रगड़ लगाता है! अपने मूत से सिंचता है! धारा हटाता है, एन एस ए लगाता है! जब जड़ भगत गोली मारो चिल्लाता है! एक भेदिया बिरयानी खाता है तब जाकर सीमाएं सुरक्षित रहती हैं तभी एक शेर प्रतिदिन बीस घण्टे की नींद निकाल पाता है।
मादा में शेरनी पहचानना आसान है। उसका काम भी आसान है! शिकार किया और टिकट लिया!
शेर बनना एक जटिल प्रक्रिया है! इसके लिए बकायदा एक गिरोह है जो शेर बनाता है। उसकी शर्तें हैं! जिसको पूरा करने के लिए शावक पिल्ला घर छोड़ देता है। अलग थलग व अविवाहित रहता है। तब जाकर उसे दबे पांव चलना! रगड़ लगाना, मूतना सिखाया जाता है और फिर शेर कहकर लांच किया जाता है ।
यह इतनी भी आसान प्रक्रिया नहीं है। ऐसे शेरों की मिट्टी बड़ी पलीत रहती है। मुस्किल से हो रहे जीवनयापन को संगठन में भीख मांगने तक गिराया जाता है। परिजनों को बस उसकी चोरी का किस्सा याद रह जाता है।
शेर बनने के बाद बेचारा शावक भी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए फर्जी डिग्री जुटाता, इमेल व डिजिटल कैमरे के काल्पनिक किस्सों की शेखी बघारता रह जाता है।
इक्का दुक्का केसों में विवाहित होते हुए भी शावक को गिरोह का चुरन काटते व अविवाहित होने का ढ़ोग करते भी शेर बनते देखा गया है।
सांपों की तरह शेरों के भी बड़े वाले मिथक भी बाजार बनाते हैं। मैंने भी एक उड़ान भरने वाले व विदेशों में बड़ी मांग वाले शेर का किस्सा सुना था।
आज मैं दावे से कहता हूँ कि वह एक झूठा किस्सा था। मैं जनवरी से उस शेर के छापों का गहन अध्ययन कर रहा हूं। उड़ान छोड़ो पाँच महीनों में वह बेचारा दुबका है।
( नोट: शेर का दुबकना भी विशेष होता है! इसका संबन्ध झाड़ी की आड़ से छिपना नहीं, दुम से दुबकना होता है। इस संघटन को केवल और केवल संगठन सिखा सकता है या युँ कहें कि यह उस गिरोह का कापी राइट है)
एक शेर की औसत आयु दस, बारह साल होती है। ज्यादा से ज्यादा एक या दो बार उसे शेर बनने का मौका मिलता है। यह भी एक सत्य है कि पालूत और पिंजरे में बंद शेर की उम्र ज्यादा होती है। वह माफीवीर, परामर्श मंडल में सालों रह सकता है।
हालांकि लोटना भी शेर का नैसर्गिक गुण नहीं है। इसे केवल संगठन सिखाता है। ज्यादातर शेरों को हजारों लोटे में बाहर आते देखा गया है। जो उनकी लम्बी उम्र का परिचायक है। यह मिथक भी हो सकता है क्योंकि गधे शेरों के अलावा गुजरात के तो वेंटीलेटर भी आजकल जग प्रसिद्ध हैं।
उपसंहार: मरा हाथी सवा लाख का होता है। मरे शेर की खाल बेशकीमती होती है। जब भेड़िया आया! भेड़िया आया! कह कर समाज को डराया जाता है! तब मीडिया आपको को एक शेर दिखाता है! इस खाल से ढाँपकर एक भेड़िये को भी सदी का महानायक बनाया जा सकता है। हमें यह केवल संगठन सिखाता है।
सुरक्षित रहने के लिए दूरी बनाये रखिये; दूरी चीजों को ज्यादा स्पष्ट व बढ़ा दिखाती है।
मन तो हो रहा है कि इस निबन्ध को जिसके नाम पर पार्क हैं, ऐसे किसी जिम कार्बेट के नाम कर दूँ। पर डरता हूँ बिकाऊ समय में एक न एक दिन उसे भी बिकना ही है।
ऐसे में बचा अपना Mohan भाई! मैं इसे उसके नाम करता हूँ। क्योंकि वो आजकल शेर के अलावा भी बहुत टाइप टाइप के आदमखोर चिन्हित कर उनके जीपीएस लगा रहा है।
चेपक: माफीनामा संलग्न: इन्सान का जानवरीकरण चलन में है तो शेर के मानवीकरण में माफी का कोई तुक नहीं बनता। फिर भी मैं माफी माँगता हूँ क्योंकि मैं लम्बे लेख व व्याख्यान खुद नहीं पढ़ता तो आपसे भी उम्मीद नहीं रखता।
इक्का दुक्का जो लोग इसे पढ़ रहे हों उनसे मैं वाक्य, शब्द व भाषा की व्याकरण वाली त्रुटियों के लिए इसे दुबारा पढ़कर समय नष्ट करके दुरुस्त करने से बेहतर क्षमा मांगकर समय बचाना चाहता हूँ।