बी. डी. सुयाल
देश व्यापी स्वच्छ भारत अभियान को लागू हुए लगभग 8 वर्ष पूरे हो चुके हैं| वर्तमान में अभियान का दूसरा चरण लागू हो चुका है| अभियान में उल्लेखित उद्देश्यों ने काफी उम्मीदें जगाई और कई जगहों पर नये कार्य भी आरम्भ हुए और उम्मीदों के अनुरूप अभियान तेजी से आगे बढ़ रहा है ऐसा स्वच्छ सर्वेक्षण के आंकड़े बता रहे हैं| स्वच्छ सर्वेक्षण 2022 की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड 100 शहरों से कम वाले प्रदेशों की क्षेणी में त्रिपुरा और झारखंड के बाद तीसरे स्थान पर है| उत्तरी जोन में रामनगर व डोईवाला को स्वच्छता के लिए तेजी से आगे बढने वाले शहरों की क्षेणी में रखा गया है | इसी तरह 1 लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले गंगा के किनारे बसे शहरों में हरिद्वार को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है| ग्रामीण स्वच्छ सर्वेक्षण 2022 के अनुसार उत्तराखण्ड के 97.7 फीसदी परिवारों के लिए शौचालय की सुविधा मौजूद है | इन परिवारों में से 94.5 फीसदी के पास अपने शौचालय हैं| आंकड़ों के हिसाब से स्थिति काफी संतोषजनक नजर आती है लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा महसूस नहीं होता| इसकी कई वजूहात हैं|
प्रदेश भर के शहरों व क़स्बों में अप्रयुक्त व अरक्षित भूखंडों का एक जाल फैला हुआ है जो वर्षों से कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल हो रहा है। मकान मालिक निर्धारित सफ़ाई कर का भुगतान करते हैं और नगरनिगम या पालिका से उम्मीद करते हैं कि उन्हें स्वच्छ माहौल मिलेगा। शहर के कई मोहल्ले इन कूड़े के ढेरों से घिरे हुए है और गंभीर परेशानियों का सामना कर रहे हैं । अप्रयुक्त व अरक्षित भूखंडों में जमा कूड़े का निस्तारण न होना पूरे स्वच्छता अभियान को चुनौती दे रहा है| ज़ाहिर है कहीं न कहीं भारी चूक हो रही है। ख़ाली प्लोटो में कूड़ा फ़ैकने और उसका निस्तारण न होने की समस्या किसी एक शहर तक सीमित नहीं बल्कि प्रदेश या देशव्यापी है। मुख्य सड़कों , बाज़ारों व सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ रखने का प्रयास तो किया जाता है लेकिन ख़ाली प्लाटों में जमा गन्दगी को निपटाने की ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नही जबकि यह अनदेखी आम जन के स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर रही है और हर शहर के सौंदर्य को तार तार कर रही है । ज़्यादातर ख़ाली प्लोट निजी मालिकों के हैं जिन्हें प्लोट को साफ़ सुथरा रखने में कोई दिलचस्पी नहीं है। क्योंकि ये प्लोट उन्होंने शायद बेचने के लिये ख़रीदें हैं। स्थानीय निकायों के कर्मचारियों कहना है कि शहर के बीच स्थित प्राइवेट प्लोटों में जमा गंदगी को साफ करने की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है । इसलिए कई प्लाट काफ़ी लंबे समय लगभग 15-20 सालों से कूड़े के ढेर बन हुए हैं और इनके आस पास रहने वाले लोग गंदगी , बीमारी व बदबू से अच्छा ख़ासा परेशान रहते हैं। प्रत्येक गंदे प्लाट की क्षमता इतनी है जो अकेले पूरे शहर को बीमार कर ने के लिये काफ़ी है। ऐसे गंदे प्लोट पूरे शहर में विखरे हैं और नगरनिगम या स्थानीय निकायों द्वारा स्वच्छता के लिये उठाये गये क़दमों को निष्प्रभावी कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मो
यहाँ पर यह भी ध्यान में लाना ज़रूरी है कि शहर के काफ़ी लोग हर घर से कूड़ा इकट्ठा करने की स्कीम में या तो अभी भी शामिल नहीं हैं या सहयोग नहीं कर रहे हैं, वो अपने घर या किचन का कूड़ा कहाँ फेंकते या फैंकवाते होंगे आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं। इसलिए घर से कूड़ा इकट्ठा करने की योजना को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही निजी प्लोट धारकों को अपने प्लोटों को स्वच्छ रखने की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए । शहर के कई जागरूक भू स्वामियों ने अपने ख़ाली प्लोटों क़ो साफ रखा है और कई ने उनका सुंदरीकरण भी किया है , बाँकी निजी प्लोट धारक भी ये कर सकते हैं। नगर पालिका निजी प्लाट धारकों से भवन मालिकों की तर्ज पर स्वच्छता कर वसूल सकती हैं |बहरहाल नगरनिगम जो भी निर्णय इस बारे में ले , मकानकर व सफ़ाई कर भुगतान करने वाले हर शहरी को सफ़ाई की माँग करने का हक बनता है। वर्षा शुरू होते ही जल निकासी की अव्यवस्था के कारण सारे मैदानी शहर तालाबों में तब्दील हो जाते हैं, कूड़े के ढेर इनमें तैरने लगते हैं और बरसाती पानी के साथ घरों तक में घुस जाते हैं और डेंगू, मलेरिया या अन्य बिमारियों को फैलाने का काम करते हैं। इसलिए शहर के बीच ख़ाली प्लोटों में पहले से जमा कूड़े का तुरंत निपटारा क्या किया जाना अति आवश्यक है। और भविष्य में ख़ाली प्लोटों का कूड़ेदान की रूप में दुरुपयोग रोकने के लिए कठोर कदम उठाने चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है कि डैेंगू, मलेरिया को ये कूड़े के ढेर कभी खत्म नहीं होने देंगे। कई स्थानों के हालात देखकर लगता है नगरनिगम को पता ही नहीं कि उसके नाक के नीचे क्या हो रहा है।
शहर में कई जगह कूड़ा फ़ैकने की शुरुआत निगम के ही कुछ लापरवाह कर्मचारी ही कर देते हैं उन्हें देखते देखते बाँकी लोग भी वहीं पर कूड़ा फेंकना चालू कर देते हैं और धीरे धीरे वह जगह कूड़ेदान में तब्दील हो जाती है। सभी ने ध्यान दिया होगा कि निगम शहर में नालों को साफ़ कराता है लेकिन नालों से निकलने वाला कचरा तुरंत उठाया नहीं जाता बल्कि हफ़्तों तक सड़क पर पड़ा रहता है, कुछ समय बाद वही कचरा आधा फिर नालों में गिर जाता है और बाँकी सड़क में फैल जाता है। कई जगहों पर कूड़े की छोटी छोटी ढेरियां बना कर आग लगा दी जाती है| इन घटनाओं को कर्मचारियों की नादानी मान कर नजर अंदाज कर दिया जाता है लेकिन ये नादानियां उस प्रदूषित मानसिकता को जीवित रखतीं हैं जिसके दूरगामी परिणाम होते हैं| ऐसी कई ख़ामियाँ और लापरवाहियाँ निगम की संवेदनहीनता का प्रतीक हैं। निगम के पास कर्मठ और मेहनती कर्मचारियों की कमी नहीं है जरुरत उनकी पहचान कर उन्हें प्रोत्साहित करने की है। साल में कम से कम दो बार सभी वार्डों का सफ़ाई के आधार पर उनकी रैंकिंग की जानी चाहिए। साफ़ रखे गए वार्डों तथा वहाँ तैनात कर्मचारियों को सम्मानित किया जाना चाहिए। ताकी साफ़ सफ़ाई के प्रति सभी को प्रेरणा मिले और स्वच्छता के प्रति जनमानस की मानसिकता में बदलाव आ सके|
इसके अलावा यह भी जानना जरूरी है कि पोलीथीन और प्लास्टिक अकेले ऐसे उत्पाद हैं जिसका दुरुपयोग हिमालयन इकोसिस्टम पर गहरा दुष्प्रभाव डालता है। हमारी जीवनशैली , पोलिथीन उत्पादों पर हमारी निर्भरता, पोलिथीन का सस्ता सुविधाजनक विकल्प न होना इसके विस्तृत उपयोग के लिए ज़िम्मेदार हैं। सरकार द्वारा लगाए प्रतिबन्ध के बावजूद भी पोलिथीन का प्रयोग अभी भी रुका नहीं है। हालांकि कुछ अच्छे प्रयास भी हुऐ हैं, उदाहरण के तौर पर सिन्गिल यूज प्लास्टिक उन्मूलन के उद्देश्य से डिजिटल डिपोजिट रिफंड सिस्टम लागू करने के लिए रुद्र प्रयाग जिले को डिजिटल इंडिया अवार्ड के तहत रजत पदक के लिए चयनित किया है| लेकिन ऐसे उदाहरण कम हैं| शहरों में गन्दे पानी के निकास में प्लास्टिक आज भी सबसे बड़ी बाधा पेश करता है। हालांकि प्रशासन ने यदाकदा छापा मारकर पोलीथीन बरामद किया है लेकिन ये प्रयास नाकाफी हैं| शहरों से बाहर निकल अगर जंगलों का रूख करें तो पता चलता है जंगल भी पोलिथीन व विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक तथा शीशे के कचरे से भरे पड़े हैं । बाहर से देखने पर जंगल काफी सुन्दर व आकर्षक लगते हैं अन्दर घुसते ही गन्दगी नजर आती है | प्रशासन का ध्यान अभी शहरों या रिहायशी इलाक़ों तक ही सीमित है , जंगलो की सफ़ाई तो कल्पना से परे है। यहाँ तक कि राज्य सरकार द्वारा 10 अक्टूबर 2014 को अधिसूचित राज्य तथा जिला स्तरीय ,स्वच्छ भारत अभियान के क्रियान्वयन समितियों में वन विभाग के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता तक नहीं समझी गई , जबकि राज्य का 67 ℅ भूभाग वन क्षेत्र के अन्तर्गत आता है और 45.44 ℅ भूभाग वृक्ष आच्छादित है जिसमें सघन वन भी मौजूद हैं| इन वनों की गुणवत्ता बढते जैविक दबाव और लापरवाही की वजह से साल दर साल कम होती जा रही है | पर्यटन क्षेत्रों का मुख्य आकर्षण वनों की मौजूदगी है| वन विभाग पौधारोपण से सम्बन्धित नयी योजनाऐं लागू तो कर रहा है लेकिन मौजूदा जंगलों के प्राकृतिक स्वरूप की घटती गुणवत्ता से बिल्कुल चिन्तित नहीं है| कोरोना के बाद पर्यटन की गति विधियों के अचानक बढ़ जाने से शहरों के आसपास के जंगलों में अत्यधिक जैविक दबाव के लक्षण नजर आ रहे हैं| जंगलों में कोई जगह नहीं बची है जहाँ पोलीथीन,प्लास्टिक या शराब की बोतलें न हौं | वनों में बिखरा कचरा उसकी सुन्दरता एवं प्राकृतिकता के अतिरिक्त जैवविविधता , वन्यजीव व प्राकृतिक जल श्रोतों की गुणवत्ता को भी प्रभावित कर रहा है| पोलीथीन व प्लास्टिक अति ज्वलनशील होने की वजह से वनों की आग को दूर दूर तक फैलाने में अहम भूमिका अदा करते हैं| इसलिए वनों के दैनिक रखरखाव में उनका प्रदूषण से बचाव एक महत्वपूर्ण गतिविधि होनी चाहिए तथा वन प्रबंधन व वन कार्य योजनाओं में स्वच्छता को एक प्रमुख घटक के रुप में शामिल किया जाना चाहिए| कभी कभी कुछ बेरोजगार अशिक्षित युवक या युवतियाँ वनों में बिखरे शराब व प्लास्टिक की खाली बोतलें जमा कर थैले में भरते नजर आते हैं| ये लोग अपना पेट पालने के लिए इस काम को कर रहे हैं लेकिन अनजाने में ही सही ये पर्यावरण संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं| इन लोगों को संगठित और प्रशिक्षित कर स्वच्छता अभियान के साथ आसानी से जोडा़ जा सकता है| इस तरह के कई कदम वन प्रशासन उठा सकता है|