राजीव लोचन साह
15 जून के कैंची मेले को लेकर प्रशासन के जो प्रेस नोट आ रहे हैं, उनसे लगता है कि तीसरा विश्व युद्ध जीत लिया गया है। बात बहुत गलत भी नहीं है, क्योंकि साल दर साल इस मेले में श्रद्धालुओं की संख्या कई-कई गुना बढ़ रही है। अखबारों की मानें तो छोटे से कैंची मन्दिर में इस साल ढाई लाख श्रद्धालु पहुँचे। हालाँकि मेले की व्यवस्थाओं को लेकर परस्पर विरोधी सूचनायें मिल रही हैं। कुछ लोग बेहद नाराज भी दिखे। मगर ऐसा होना स्वााभाविक ही है। आप एक साथ सारे लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकते। बड़ी बात यह है कि इतना बड़ा मेला ठीक से सम्पन्न हो गया। मगर साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि प्रशासन ने कैंची मेले को सम्पन्न करने के लिये अगल-बगल की सारी व्यवस्थायें बिगाड़ दीं। वीकेंड होने के कारण श्रद्धालुओं से इतर भी पर्यटकों की काफी भीड़ थी, मगर उस ओर प्रशासन का ध्यान नहीं था। पूरे इलाके में जाम लगते रहे। सामान्यतः ऐसी परिस्थितियों में बसों का रूट बदल कर भेजना सामान्य बात है। मगर इस बार तो कैंची हो कर आगे जाने वाली अनेक बसों को ही रद्द कर दिया गया।
प्रशासन की इस साल की सजगता के पीछे मुख्यमंत्री धामी का इस मेले में अतिरिक्त रुचि लेना भी हो सकता है। ‘धाकड़ धामी’ की प्राथमिकतायें इतनी विचित्र हैं कि हँसी आती है। उन्होंने कोश्याँ कुटौली तहसील का नाम बदल कर ‘कैंची धाम’ करने की घोषणा की है। अब इस नाम बदलने से क्या होगा ? अच्छा-खासा नाम है। इसमें किसी औपनिवेशिक शासक का संदर्भ नहीं है, न ही किसी मुगल बादशाह का। इससे नीमकरौली महाराज की लोकप्रियता बढ़ने की भी कोई सम्भावना नहीं है। वह तो पहले एप्पल के सी.ई.ओ. स्टीव जॉब्स की किताब में जिक्र आने से और फिर क्रिकेटर विराट कोहली के आने के बाद से इतनी तेजी से बढ़ गई है कि हमारे देखते-देखते छोटा सा कैंची मन्दिर ‘कैंची धाम’ कहलाने लगा है। दरअसल, पहाड़ में मोटर रोड पर जहाँ अंग्रेजी के ‘एन’ के आकार का मोड़ होता है, उसे कैंची का मोड़ कह दिया जाता है। ऐसे मोड़ के निकट होने के कारण ही जब यह मन्दिर बना, इसे कैंची का मन्दिर कहा जाने लगा। अब वह कैंची धाम हो गया है।
अब ऐसा नहीं है नैनीताल आने वाले पर्यटक ही कैंची जाते हों। अब श्रद्धालु काठगोदाम से ही सीधे कैंची चले जाते हैं। उनके लिये नैनीताल आने की भी कोई बाध्यता नहीं। काठगोदाम और हल्द्वानी बस अड्डों पर ही कैंची धाम-कैंची धाम चिल्लाते टैक्सी वाले मिल जाते हैं। मुख्यमंत्री के पास कोई दूरदृष्टि होती तो वह कैंची के भविष्य के लिये सोचते। सरकार-प्रशासन तीर्थों और पर्यटक स्थलों के बारे में सिर्फ कार पार्किंग के रूप में सोचते हैं। कैंची के सामने भविष्य खड़ी होने समस्याओं के बारे में उसका कोई चिन्तन नहीं है। पिछले दो सालों में कैंची का विस्फोटक रूप से अनियोजित विकास हुआ है। जिला विकास प्राधिकरण के अन्तर्गत वह आता नहीं, अतः वहाँ बन रहे दुकानों, होटलों आदि पर कोई रोक-टोक नहीं है। अगर सरकार अभी ही कैंची धाम में होनेे वाले व्यावसायिक निर्माणों को नियोजित कर दे, तो बहुत महत्वपूर्ण काम होगा। अन्यथा भविष्य में बहुत बड़ा संकट खड़ा होने वाला है।
ठीक इसी तरह यातायात और ट्रैफिक का मामला है। अल्मोड़ा और रानीखेत तथा वहाँ से आगे के इलाकों में जाने के लिये कैंची से हो कर ही जाना पड़ता है। पिछले एक-डेढ़ वर्षों से यहाँ जाम की समस्या विकट हो गई है। अल्मोड़ा से कैंची तक का चालीस किमी. से अधिक का फासला आप एक घंटे में तय कर सकते हैं। मगर कैंची से भवाली के मस्जिद तिराहे का लगभग दस किमी. का फासला तय करने में डेढ़-दो घंटे लग जाना अब सामान्य बात है। अभी तक कैंची बाईपास की बात कहीं सुनाई नहीं दे रही है। अभी तो भवाली के दो बाईपास भी अधूरे पड़े हैं।
ऐसे ही मामलों में सरकार की दूरदर्शिता देखी जाती है। मगर, जो सरकार दो महीनों में जंगलों की आग पर नियंत्रण न कर सकी हो, नियंत्रण तो दूर की बात है, उससे चिन्तित होती भी न दिखाई देती हो, उससे और क्या अपेक्षायें रखी जा सकती हैं ? नाम बदलना ही इस सरकार के पास सारी समस्याओं का समाधान है। दो साल से यह सरकार जोशीमठ नगर के संकट का कोई समाधान नहीं ढूँढ सकी है। वहाँ भी, समाधान की बात तो दूर, वहाँ के निवासियों को तात्कालिक राहत दे पाने में भी यह असफल रही है। तो, बदरीनाथ उप चुनाव को देखते हुए इसने जोशीमठ का नाम बदल कर ‘ज्योतिर्मठ’ कर देने में ही अपना रास्ता देखा है।
फोटो इंटरनेट से साभार