राजीव लोचन साह
साथियों के बारी-बारी बिछुड़ने और कोरोना महामारी का प्रभाव! कई महीनों, बल्कि सालों, से कुछ लिखा ही नही जा रहा था। कलम में जंक लग गई हो जैसे। एक ‘एसॉल्ट’ से सारी बेड़ियाँ टूट गयीं।
‘एसॉल्ट’! इस शब्द का प्रयोग रवि ने किया था। डॉ. रवि चोपड़ा को जो लोग नहीं जानते उन्हें बतला दूँ कि वे देश के एक बहुत प्रतिष्ठित वैज्ञानिक हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में तो अतुलनीय। 2013 के जल प्लावन के बाद जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इस आपदा में बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के योगदान का अध्ययन करने के लिये एक हाई पॉवर कमेटी बनायी गयी तो रवि को उसकी अध्यक्षता सौंपी गई। कुछ वर्ष बाद ऑल वैदर रोड की व्यावहारिकता तय करने के लिये एक और हाइ पॉवर कमेटी बनायी गई तो उसका अध्यक्ष भी रवि चोपड़ा को ही बनाया गया। दोनों मौकों पर रवि की रिपोर्ट सरकार ने खारिज कर दी। क्योंकि सरकार ठेकेदारों की होती है और ठेकेदारों को तगड़े मुनाफे की दरकार होती है, विज्ञान एवं पर्यावरण के बन्धन की नहीं। दूसरी बार तो रवि ने उकता कर कमेटी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा ही दे दिया। ऑल वैदर रोड से हो रही तबाही, जो अब जोशीमठ की त्रासदी में साफ झलक रही है, उन्हें बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी। उस दोपहर उनका फोन आ गया, हमेशा की तरह उत्साह और उल्लास से लबरेज, ‘‘जै रामजी की राजीव, कैसे हो ?’’ मगर अगला वाक्य चिन्तातुर था, ‘‘यार ये बताओ, तुम्हें किसी फिजीकल एसॉल्ट की आशंका तो नहीं ?’’
रवि की चिन्ता से मन भीग गया। क्या सिर्फ इतने के लिये फोन किया होगा उन्होंने ? मैंने रवि को जैसे-तैसे आश्वस्त कर टाला कि नहीं, ऐसा कोई खतरा नहीं है। कहने को तो कह दिया, लेकिन उसके बाद से यह ‘फिजीकल एसॉल्ट’ दिमाग में चिपका ही रह गया। इतनी आसानी से मैंने कैसे यह कह दिया कि कोई खतरा नहीं है ? बाबरी मस्जिद को नेस्तनाबूत किये जाने के बाद मैंने ‘नैनीताल समाचार में एक अग्रलेख लिखा था। शीर्षक गिरदा ने दिया था, ‘‘अपने अज़दाद की मीरास है, माजूर हैं हम।’’ कई पत्रिकाओं ने नैनीताल समाचार से साभार लेकर उस अग्रलेख को छापा था। तब भी एक नामचीन पत्रकार ने पूछा था, ‘‘यह सब लिखते हुए आप डरते नहीं हैं ?’’ तब मैंने पूरी सच्चाई और विश्वास से कहा था, ‘‘नैनीताल में हूँ, इसलिये नहीं डरता। अन्यत्र होता तो शायद डरता।’’ यह बात सही भी थी। उस दौर में नैनीताल परस्पर मेलजोल वाला निरापद शहर था। लोगों की दुनिया मोबाइल तक नहीं सिमटी थी। मगर तब से तो हालात बहुत बदल गये हैं। बलिया गधेरे से बहुत सा पानी बह गया है। तब केन्द्र में एक दूसरी पार्टी की सरकार थी। वह आज के मुकाबले कहीं ज्यादा सहिष्णु थी। इन तीस सालों में न जाने कहाँ-कहाँ से, कैसे-कैसे तो लोग आकर नैनीताल में बस गये हैं। चार घण्टे माल रोड पर चहलकदमी कर लीजिये, चार पहचाने हुए चेहरे नहीं मिलेंगे। चप्पे-चप्पे पर स्लम बन गये हैं। एक जवान नयी पीढ़ी है, जिसमें अपने बुजुर्गों का कोई लिहाज नहीं है। नैनीताल की क्या परम्परायें रही हैं, उसका उन्हें ज्ञान नहीं है। ‘नैनीतालियत’ के बारे में वे जानते नहीं। धार्मिक कट्टरता और नफरत की अफीम समाज को बड़े पैमाने पर पिला ही दी गई है। तो आज यह बात मैं रवि से इतने विश्वास से कैसे कह गया कि नहीं, कोई ‘फिजीकल एसॉल्ट’ नहीं होगा ? हो भी तो सकता है। प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाईं को तो ये लोग पचास साल पहले उनके घर पर पीट आये थे। खैर चलो, अब जो होगा देखा जायेगा।
उसी रोज सुबह अस्मिता का फोन अपनी मम्मी के पास आया था, ‘‘ये पापा भी ऊटपटाँग हरकतें करने से बाज नहीं आते। अब क्या जरूरत थी इस मामले में टाँग अड़ाने की ? यहाँ सब को टेंशन हो रही है।’’ इधर मम्मी जी का मणमणाट चालू हो गया, ‘‘क्यों ऐसे काम करके घर वालों को परेशान करते हो ? सारी दुनिया को अपना दुश्मन बना लिया है। इतने सालों में क्या मिला तुम्हें जरा बताओ तो ?’’ नहीं, मिला तो कुछ भी नहीं था। न पदमश्री, न शौर्य चक्र। न कोई पुरस्कार, न सम्मान। उत्तराखंड सरकार ने ही अब तक आन्दोलनकारी की मान्यता नहीं दी है। पत्रकार की मान्यता भी तब दी, जब साठ साल की उम्र पार हो चुकी थी। सब कुछ होते हुए भी बच्चों को जबरन अभाव में रखा। यह शिकायत रखते हुए भी कि पापा अपने सम्पर्कों और प्रभाव का इस्तेमाल कर उनकी कोई मदद नहीं करते, उन्होंने अपनी प्रतिभा और अपनी मेहनत से अपना कैरियर स्वयं बनाया। अपने जीवनसंगी चुने। पत्नी को वक्त नहीं दिया। अब वानप्रस्थ की उम्र में गाड़ी-हवाई जहाज की थोड़ी सैर करा दी, दो चार मुल्क घुमा दिये तो क्या उससे जिन्दगी भर का कर्तव्य पूरा हो जायेगा ?
असल में एक फितूर है। एक कीड़ा सा कुलबुलाता रहता है दिमाग के अन्दर लगातार। यह स्वयंभू किस्म का मुगालता है कि तुम नैनीताल के शुभचिन्तक हो। अब तक की जिन्दगी में बहुत कुछ करते रहे हो, नैनीताल को लेकर। नैनीताल समाचार और अन्य अखबारों में तो लिखते ही रहे हो, जन जागरण के लिये 1984 से अब तक अनेकों बार सड़क पर पर्चे भी बाँट चुके हो, कई बार अकेले भी। ताल की सफाई के लिये डी.एस.ए. के साथ मिल कर ‘उपकार सेवा’ कर चुके हो। डॉ. डी. डी. पन्त के नेतृत्व में एडवोकेट प्रदीप लोहनी आदि के साथ मिल कर ‘नैनीताल बचाओ समिति’ बना कर बिल्डरों के शुरूआती हमले को नाकाम कर चुके हो और ब्रजेन्द्र सहाय समिति की रिपोर्ट के रूप में नैनीताल की दीर्घजीविता के लिये एक बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज दिलवा चुके हो। 2007 में रैम्को वॉन सान्टेन के सुझाव पर अनेक साल तक ‘क्लीन अप नैनीताल डे’ का अभियान चला चुके हो। वर्ष 2012 में विजय अधिकारी और श्रुति खेर आदि के साथ मिल कर ‘नैनीताल बचाओ अभियान’ के रूप में नैनीताल में अवैध निर्माणों पर रोक लगाने की एक फ्लॉप किस्म की कोशिश भी कर चुके हो। आजकल भी ग्रीन आर्मी के युवाओं के साथ मिल कर कुछ न कुछ करने की कोशिश कर ही रहे हो। फितरत ही यही है तुम्हारी।
अब सत्तर का शिखर पार कर चुके हो तो रफ्तार थोड़ी थाम लो। लोग तुम्हारी बात ध्यान से सुनते हैं, वे सुनेंगे, उस पर ध्यान देंगे। यही एक खूबसूरत मुगालता है या कहें कि आत्म मुग्धता, जो चुप नहीं बैठने देते। हमेशा हरकत में लाते रहते हैं। कहीं पर एक सीवर लाईन भी ओवरफ्लो करती दिखाई देती है तो जल संस्थान के अधिशासी अभियन्ता को फोन कर देता हूँ। हालाँकि वह सीवर आगे भी यों ही ओवरफ्लो करता रहता है कई-कई दिनों तक। कई मामलों में अधिकारियों को पत्र लिख देता हूँ, यह जान कर भी कि इस मामले में कोई कार्रवाही नहीं होगी। उत्तराखंड में कोई कार्य संस्कृति अब बची ही कहाँ ?
ऐसा ही उस रोज हुआ…..नये साल की पूर्व संध्या पर। फव्वारे की बगल की सीढ़ियों से नीचे फ्लैट्स स्थित बास्केटबॉल कोर्ट की ओर उतर रहा था तो नजर कैपीटॉल सिनेमा के सामने एक लम्बे से खम्भे पर टँगे बड़े से भगवा झंडे पर पड़ी। अरे, यह कब लगा होगा होगा यहाँ पर ? दो दिन पहले तक तो नहीं था। कितना अटपटा लग रहा है? पहले ही बहुत कुरूप हो चुके नैनीताल पर एक और धब्बा। भगवा रंग तो हिन्दुओं में श्रद्धा का प्रतीक है। भगवा चोला पहने किसी संन्यासी, भले ही वह कैसा हो, के सामने ही हाथ सम्मान के लिये उठ जाते हैं। तो क्या अब यहाँ से आने-जाने वाले कैपीटॉल सिनेमा में चल रही श्लील-अश्लील फिल्मों को भी हाथ जोड़ेंगे ? दीपिका पादुकोण को भगवा रंग की बिकिनी में नाचते देख कर तो अनेक धर्म धुरंधर गुस्से से लाल हो रहे हैं। इसके स्थान पर यहाँ पर राष्ट्रध्वज लग जाता तो कितना अच्छा होता ? झण्डे के पास गया। आर.सी.सी. के एक पतले से कॉलम के बीचोंबीच लोहे का एक लम्बा पाईप फँसाया गया था। उसी के ऊपर झण्डा टँगा था। कॉलम का सीमेंट कच्चा था। सूखा नहीं था। जैसे तीन-चार दिन पहले ही यह कॉलम भरा गया हो।
वहाँ पर खड़े-खड़े बचपन के दिन याद आने लगे। फ्लैट्स तब क्या होता था! साफ छनी हुई बजरी का एक भव्य प्रशस्त विस्तार! कैपीटॉल के इसी बरामदे में तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष मनोहर लाल साह जी अपने विशिष्ट अतिथियों का स्वागत करते थे। उन्हें मानपत्र देते थे। बरामदे में सोफे लगे होते, जिनमें विशिष्ट अतिथि बैठे रहते। नीचे फ्लैट्स पर, जहाँ अब पटरी बन गयी है और बाजार सजी रहती है, कुर्सियों की कतारें लगी रहतीं। सबसे पहली कतार में नगरपालिका के माननीय सदस्यगण और जिले के एक-दो आला हाकिम बैठे रहते और उससे पीछे वाली कतार पर अन्य अधिकारी। उसके पीछे वाली कतारों में नैनीताल के गणमान्य नागरिक विराजते होते। सम्मोहन के उस एक क्षण में पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन, नेपाल के महाराजाधिराज और न जाने किस-किस के चेहरे आँखों के आगे घूम गये। भगवा रंग उस ऐतिहासिक परिदृश्य की पृष्ठभूमि में सौन्दर्यबोध को घायल कर रहा था कि हाय, यहाँ पर तिरंगा लग जाता तो कितना अच्छा होता ?
फिर भूल गया। नये वर्ष की पूर्व संध्या पर मालरोड में मस्ती कर रहे पर्यटकों के साथ एकाकार हो गया। मोबाइल से फोटो खींचता रहा, वीडियो बनाता रहा। दो दिन बाद सुबह की सैर में नयना देवी के मन्दिर और न्यू क्लब के टेनिस कोर्ट होता हुआ उस स्थान से गुजरा तो फिर एक परिचित ने उस भगवा झण्डे की ओर ध्यान दिला दिया। दिमाग का कीड़ा फिर से कुलबुलाने लगा कि एक तुम ही तो नैनीताल के रहनुमा हो। घर लौट कर नगरपालिका के ई.ओ., चैयरमैन, जिलाधिकारी और कमिश्नर को पत्र लिख डाले। मीडियाकर्मियों को व्हाट्सएप्प कर दिये। उम्मीद नहीं थी कि कहीं कुछ होगा या किसी अखबार में कुछ छपेगा। मीडिया की प्राथमिकतायें कुछ और होती हैं।
वह एक तनावपूर्ण शाम थी। हल्द्वानी के बनभूलपुरा में हजारों अभागे इन्सानों के ऊपर से बेहद अमानवीय ढंग से उनकी छत छीनी जा रही थी। जोशीमठ के मकानों की दरारें बढ़ती जा रहा थीं और सारा शहर सड़कों पर था। हम अपने को असहाय महसूस कर रहे थे कि इन परिस्थितियों में अपना धर्म कैसे निभायें। बहरहाल फिर ‘हेलंग एकजुटता मंच’ की ओर से भुवन पाठक और तरुण जोशी ने एक ऑनलाईन बैठक बुलायी और हम सारी शाम बनभूलपुरा के लिये अपना आगे का कार्यक्रम तय करते रहे। जोशीमठ में तो अतुल सती लगातार नेतृत्व में हैं ही। इस लम्बी बातचीत से मन को थोड़ा शान्ति मिली।
अगली सुबह एक वैवाहिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिये जल्दी ही दिल्ली की ओर निकल पड़ा। रास्ते में मोबाइल स्क्रॉल किया तो पाया कि कुछ स्थानीय समाचार ब्लॉगों ने न सिर्फ खबर लगाई है, बल्कि प्रतिक्रियाओं के साथ लगाई है। मजेदार बात कि जिस नगरपालिका को पत्र लिखा गया था, वह चुप थी और हौर-हौर लोग उसकी ओर से बयानबाजी कर रहे थे। एक सज्जन पूछ रहे थे कि मैं जंगलों में बन रही मजारों को क्यों नहीं देखता ? उनकी दृष्टि में मैं कोई वनाधिकारी था, जिसे जंगलों से मजार उखाड़ फेंकने चाहिये थे। मगर मैं वनाधिकारी होता तो बेशकीमती वनों को दावाग्नि से बचाता, ग्रामीणों की बाघों से रक्षा करता या जंगली जानवरों को खेती-बाड़ी नष्ट करने से रोकता। एक और साहब मुझे फ्लैट्स के आसपास धार्मिक स्थानों पर बड़े-बड़े गुम्बद दिखलाने लगे। उनकी नजर में जैसे मैं झील विकास प्राधिकरण का एक गैर जिम्मेदार अधिकारी बन कर रह गया था। एक साहब धमकी दे रहे थे कि ‘कोमनिस्टों’ को नैनीताल में बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। श्री माँ नयना देवी मंदिर अमर उदय ट्रस्ट के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की नेक सलाह तो मुझे बहुत सारे लोगों ने दी थी। कुछ लोग तो नयना देवी मन्दिर में उत्तेजक भाषण देकर वहाँ की पवित्रता और परम्परा को भी खंडित कर आये। मन्दिर के कर्मचारी बहुत गुस्से में थे, क्योंकि अब तक हमने पूरी मेहनत से मन्दिर प्रांगण को राजनीतिक भाषणबाजी से बचा कर रखा है।
एक सज्जन ने ऐतिहासिक जानकारी दी थी कि इस स्थान पर भगवा झण्डा 1948 से लगा हुआ है और आर.एस.एस. की शाखायें तब से यहाँ पर लगती हैं। उनका इतिहास बोध जरूर व्हाट्सएप्प यूनीवर्सिटी या गोदी मीडिया से आया होगा। क्योंकि 1948 में तो गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। तब शाखा लगना सम्भव ही कहाँं था ? फिर सवाल यह भी है कि किसी तिलिस्म की तरह यह झण्डा 1948 में गायब हो कर 2022 में कैसे प्रकट हुआ ?
बहरहाल, अब तक सौन्दर्यबोध नदारद हो गया था और यह तय हो गया था कि हिन्दुत्व पथ गामियों ने इसे एक राजनैतिक सवाल बना दिया है। मैंने भी अगली कार्रवाही के रूप में चुन-चुन कर नैनीताल नगर के कांग्रेसियों से सम्पर्क साधा और उनसे पूछा कि वे इस मामले में क्या करने जा रहे हैं। उनके नेता राहुल गांधी नफरत की राजनीति छोड़ने और देश को जोड़ने के लिये चार महीनों से पैदल चल रहे हैं। उनकी इस पदयात्रा से आम कांग्रेसी तो झंकृत हैं ही, उदार सोच वाले अन्य अनेक लोग भी उत्साहित हो रहे हैं। तो अपने शहर में नफरत की इस राजनीति का प्रतिकार करने के लिये वे क्या करेंगे ? एक लम्बी चुप्पी के अलावा कुछ नहीं मिला। नैनीताल के कांग्रेसी कितने हतवीर्य हैं, यह इस घटना से साबित हो गया। नैनीताल नगरपालिका के अध्यक्ष भी इस वक्त कांग्रेस पार्टी के हैं और उनके सामने ही यह कांड घटित हो रहा है। कोई ताज्जुब नहीं कि सन् 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने सामने परसी हुई भोजन की थाली को स्वयं ही ठोकर मार कर गिरा दिया था। सिर्फ एक तिवारी आंटी थीं, जिन्होंने अपनी आवाज बुलन्द की। 75 वर्षीय मुन्नी तिवारी मूलतः कांग्रेसी हैं, लेकिन 1984 के ‘नशा नहीं रोजगार दो’ से उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और महिला मंच से भी पूरी तरह जुड़ी हैं। हर आन्दोलन में उनके नारे और जनगीत जनता में जोश भरते हैं। तो एक दिन तिवारी आंटी नगरपालिका कार्यालय गर्यी और बड़ी निडरता के साथ अकेले ही ई.ओ. और चेयरमैन को लताड़ लगा आयीं।
तो अब यह सौन्दर्यबोध का मामला नहीं रहा। संघर्ष का मुद्दा बन गया है। संघर्ष भी लम्बा चलेगा, क्योंकि यह विचारधाराओं की लड़ाई है और ऐसी लड़ाई का फैसला कोई दो-चार दिन में नहीं होता। नागपुर के उन जाँबाज युवकों की तरह मुझे कोई दुस्साहस दिखाते हुए भगवा झण्डा नहीं उतारना है। याद रहे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तिरंगे झण्डे को कभी राष्ट्रध्वज का सम्मान नहीं दिया और वर्ष 2001 तक आर.एस.एस. मुख्यालय में तिरंगा नही फहराता था। 26 जनवरी 2001 को चार नौजवानों ने जबरन आर.एस.एस. मुख्यालय में घुस कर भगवा झण्डा उतार दिया और उसकी जगह तिरंगा फहरा दिया। उन युवाओं को 10 साल से अधिक जेल में रहना पड़ा। 26 जनवरी 2002 से आर.एस.एस. मुख्यालय में नियमित रूप से हर राष्ट्रीय पर्व पर राष्ट्रध्वज फहराने लगा। मगर मेरी लड़ाई तो उन लड़कों की तरह से नहीं चलेगी।
तो क्या आप आ रहे हैं ‘फिजीकल एसॉल्ट’ करने ? आ रहे हैं तो आपका स्वागत है।
वैसे मेरी आपको नेक राय यह है कि इस मामले में ज्यादा अलतलाट न करें। अभी ही सरकार आपकी है और सारा प्रशासन आपके सामने सज़दे में झुका है। वह एक अदद भगवा झण्डा हटाने का साहस नहीं कर पा रहा है। डेढ़ साल बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं। लोकतंत्र में फासीवाद के लिये पर्याप्त गुंजाइश होती है। हिटलर चुनाव जीत कर ही सत्ता में आया था। यह दीगर बात है कि फासीवाद आने के बाद लोकतंत्र खत्म हो जाता है। तो चुनाव में इतनी मेहनत कीजिये या ई.वी.एम. मशीनों को इस तरह से मैनेज कीजिये कि सन् 2024 में आपकी पार्टी लोकसभा में दो तिहाई बहुमत पा जाये। तब मोदी जी के हाथ इतने मजबूत हो जायेंगे कि वे भारत को ‘सेकुलर’ की जगह ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित कर सकेंगे और अम्बेडकर के संविधान को रद्दी की टोकरी में फेंक सकेंगे। तब राष्ट्रध्वज के रूप में सर्वत्र भगवा झण्डे लग जायेंगे और तिरंगे के दर्शन करने के लिये आगामी नस्लों को म्यूजियमों में जाना पड़ेगा।
मेरे ख्याल से इतना इन्तज़ार करना बुरा नहीं है।
One Comment
Sdangwal123@gmail.com
Thought provoking !