मुजफ्फरनगर नगर कांड उत्तराखंड राज्य की एक दुःखती रग है। राज्य आन्दोलन के दौरान ही नहीं, राज्य बन जाने के कई साल बाद तक हमारी पीढ़ी के आन्दोलनकारी यह कहते थे कि यदि मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा नहीं हुई तो इस राज्य का बनना बेमानी है। समय की धूल से सब कुछ ढँक गया है। एक नई पीढ़ी उग आई है, जिसे इस शर्मनाक प्रकरण की जानकारी ही नहीं है। जो पुराने लोग हैं, वे कभी-कभार इस घटना को याद तो कर लेते हैं, मगर कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। युवा पत्रकार राहुल कोटियाल की इस बेहद खोजपरक रपट को हमने ‘सत्याग्रहडाॅटस्क्राॅलडाॅटइन’ से साभार लिया है। इस लेख को पहले भी प्रकाशित किया जा चुका है। सम्पादक
‘रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा होगी और उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय जरूर मिलेगा.’ उत्तराखंड की जनता को आश्वासन देते हुए हाल ही में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने यह बयान दिया था। लेकिन इस बयान की व्यावहारिकता जाँचने के लिए जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 22 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।
उत्तराखंड की सभी सरकारें, राज्य आंदोलनकारी परिषद् के सभी पदाधिकारी और आंदोलनकारियों के तमाम छोटे-बड़े मोर्चे समय-समय पर शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की बातें करते रहे हैं। लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं। नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक-एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए। बेहद गिने-चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगी।
सबसे ज्यादा चैंकाने वाली बात यह भी है कि जिन लोगों पर शहीद आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की जिम्मेदारी थी, उनमें से किसी को यह खबर तक नहीं है कि आंदोलनकारियों से जुड़े मुकदमों का आखिर हो क्या रहा है! उत्तराखंड आंदोलनकारी परिषद् के तमाम पदाधिकारी, सत्ता पक्ष और विपक्ष के तमाम नेता और इन मामलों के लिए नियुक्त किये गए वकीलों तक को यह जानकारी नहीं है कि आंदोलनकारियों के कितने मामले अभी लंबित हैं, ये किन न्यायालयों में हैं, किन धाराओं के तहत दर्ज हैं और इनमें कुल कितने आरोपित या पीड़ित हैं। इन न्यायिक मामलों की वर्तमान स्थिति को एक-एक कर समझने से पहले संक्षेप में उत्तराखंड आंदोलन की उन घटनाओं को समझते हैं जिनमे दर्जनों आंदोलनकारी शहीद हुए थे और जिन घटनाओं के चलते ये मामले दर्ज किये गए।
उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में साल 1994 सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यही वह साल था जब पृथक राज्य की मांग एक व्यापक जनांदोलन में तब्दील हुई और इसी साल इस आंदोलन को कुचलने के लिए कई नरसंहारों को भी अंजाम दिया गया। ‘उत्तराखंड महिला मंच’ से जुड़ी राज्य आंदोलनकारी निर्मला बिष्ट बताती हैं, ‘1994 में उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया था। इस फैसले का पूरे उत्तराखंड में विरोध हुआ और यह जल्द ही एक आंदोलन में बदल गया। ‘आरक्षण का एक इलाज, पृथक राज्य-पृथक राज्य’ का नारा दिया गया और दशकों पुरानी यह मांग इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य बन गई।’
1994 में जैसे-जैसे उत्तराखंड आंदोलन में जनता की भागीदारी बढती गई, वैसे-वैसे तब की उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार के इसे दबाने के प्रयास भी बढ़ते चले गए। अगस्त के महीने में पौड़ी, उत्तरकाशी, नैनीताल, ऋषिकेश, कर्णप्रयाग, उखीमठ और पिथौरागढ़ में दर्जनों लाठीचार्ज हुए जिनमें सैकड़ों आंदोलनकारी घायल हुए। सितंबर आते-आते यह पुलिसिया दमन बेहद बर्बर हो गया और आंदोलनकारियों पर सिर्फ लाठीचार्ज ही नहीं बल्कि फायरिंग तक की जाने लगी। सितंबर की शुरूआत में ही खटीमा और मसूरी में दो गोलीकांड हुए जिनमें एक दर्जन से ज्यादा आंदोलनकारी पुलिस की गोलियों का शिकार हो गये।
इन घटनाओं के ठीक एक महीने बाद वह दिन आया जिसे आज तक उत्तराखंड में ‘काला दिवस’ के रूप में जाना जाता है। यह दिन था दो अक्टूबर 1994। उत्तराखंड के हजारों आंदोलनकारी इस दिन पृथक राज्य की शांतिपूर्ण मांग के लिए दिल्ली जा रहे थे। लेकिन एक अक्टूबर की रात को ही इन आंदोलनकारियों की सैकड़ों गाड़ियों को मुज़फ्फरनगर के रामपुर तिराहे के पास रोक लिया गया। यहां आंदोलनकारियों को पुलिस के सबसे बर्बर रवैये का शिकार होना पड़ा। पुलिस ने कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार किया और कई लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी। दो अक्टूबर को हुए इस ‘रामपुर तिराहा कांड’ को देश में पुलिसिया बर्बरता की सबसे क्रूर घटनाओं में से एक माना जाता है।
रामपुर तिराहा कांड के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दाखिल हुई जिनमें उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर हुए अत्याचार की सीबीआई से जांच करवाने की मांग की गई थी। न्यायालय ने इस मांग को स्वीकार किया और जल्द ही सीबीआई को यह जांच सौंप दी गई। सीबीआई की जांच के दौरान ही नौ फ़रवरी 1996 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक और फैसला दिया जिसे उत्तराखंड आंदोलनकारियों के मामलों में अब तक का सबसे ऐतिहासिक फैसला माना जाता है।
इस फैसले में न्यायालय ने सरकार को आदेश दिए कि उत्तराखंड आंदोलन में शहीद हुए लोगों के परिजनों और बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं को दस लाख रूपये, उत्पीड़न का शिकार हुई महिलाओं को पांच लाख रूपये, आंशिक विकलांग हुए आंदोलनकारियों को ढाई लाख रूपये, गैरकानूनी तौर से जेलों में बंद किये गए आंदोलनकारियों को 50 हजार रूपये और घायल हुए आंदोलनकारियों को 25-25 हजार रूपये का मुआवजा दिया जाए। उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद कई आंदोलनकारियों को मुआवजा दिया भी गया लेकिन 13 मई 1999 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी।
अब बात करते हैं रामपुर तिराहा कांड से जुड़े उन आपराधिक मामलों की जिनकी जांच सीबीआई को सौंपी गई थी। इन मामलों में एक पक्ष की पैरवी करने वाले मुज़फ्फरनगर के अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘सबसे पहले इन मामलों की सुनवाई देहरादून की सीबीआई अदालत में होना तय हुआ था। लेकिन आरोपित पुलिसकर्मियों ने प्रार्थनापत्र देते हुए कहा कि देहरादून में उन्हें जान का खतरा हो सकता है लिहाजा यह सुनवाई देहरादून से बाहर की जाए। तब उच्च न्यायालय ने इन मामलों की सुनवाई मुरादाबाद की सीबीआई अदालत में करने के आदेश दिए।’
मुरादाबाद में इन मामलों की सुनवाई अभी शुरू ही हुई थी कि छह जनवरी 1999 को अदालत से लौटते हुए पुलिस कांस्टेबल सुभाष गिरी की हत्या कर दी गई। सुभाष गिरी भी रामपुर तिराहा कांड में आरोपित थे लेकिन वे सीबीआई के गवाह बन चुके थे और माना जाता है कि उनकी गवाही कई बड़े अधिकारियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकती थी। सीबीआई के इस मुख्य गवाह की हत्या ने रामपुर तिराहा कांड के पीड़ितों के मन में अपनी सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। इसके बाद से इस मामले से जुड़े पीड़ित और गवाह सुदूर पहाड़ों से मुरादाबाद आने में और भी हिचकने लगे।
यह लापरवाही आरोपितों के पक्ष में गई और कई मामलों में आरोप ही तय नहीं हो सके। कुछ अन्य मामले इसलिए भी बंद हो गए क्योंकि सीबीआई तय समय सीमा के भीतर इन मामलों में आरोपपत्र ही दाखिल नहीं कर सकी थी।
दूसरी तरफ सीबीआई की लापरवाही के चलते भी रामपुर तिराहा कांड के कई आरोपित आरोपमुक्त हो गए। अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘रामपुर तिराहा कांड के अधिकतर मामले आरोप तय होने के स्तर पर ही ख़ारिज हो गए थे। सीबीआई ने अधिकतर मामलों में आरोपित अधिकारियों पर अभियोग चलाने के लिए आवश्यक अनुमति ही नहीं ली थी। यह लापरवाही आरोपितों के पक्ष में गई और कई मामलों में आरोप ही तय नहीं हो सके। कुछ अन्य मामले इसलिए भी बंद हो गए क्योंकि सीबीआई तय समय सीमा के भीतर इन मामलों में आरोपपत्र ही दाखिल नहीं कर सकी थी। और कुछ इसलिए कि इन सालों के दौरान मुख्य आरोपितों की मौत हो गई थी।’
आज स्थिति यह है कि रामपुर तिराहा कांड से संबंधित अब सिर्फ चार मामले ही बाकी रह गए हैं। ये चारों मामले मुज़फ्फरनगर जिला न्यायालय में लंबित हैं। इन मामलों के मुरादाबाद से मुज़फ्फरनगर आने के बारे में सुरेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘ऐसा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों पर हुआ। एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिए थे कि मामलों की सुनवाई वहीं की जाएगी जहां अपराध हुआ हो। लिहाजा बचे हुए मामलों को मुरादाबाद से मुज़फ्फरनगर ट्रांसफर कर दिया गया।’ मुज़फ्फरनगर में लंबित इन चार मामलों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है:
महिलाओं के साथ हुए अपराधों से संबंधित मामले- रामपुर तिराहा कांड में महिलाओं पर हुए अत्याचारों के लिए कुल दो मामले दाखिल हुए थे। ये दोनों ही मामले आज भी लंबित हैं। इनमें पहला है- ‘सीबीआई बनाम मिलाप सिंह व अन्य।’ इस मामले में पीएसी के दो कांस्टेबल आरोपित हैं जिनपर आईपीसी की धारा 120बी, 354, 323, 376, 392 और 509 के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। सीबीआई द्वारा इस मामले में दाखिल किए गए आरोपपत्र के अनुसार मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप नाम के पीएसी के जवानों ने कमला खंडूरी (बदला हुआ नाम) के साथ बलात्कार किया, उनसे मारपीट की और उनकी नकदी व गहने लूट लिए। आरोपपत्र में यह भी जिक्र है कि जांच के दौरान फोटो दिखाए जाने पर कमला खंडूरी ने दोनों आरोपितों को पहचान लिया है।
इस मामले की वर्तमान स्थिति यह है कि पिछले 22 सालों में इसमें सिर्फ दो ही गवाहों के बयान दर्ज हो सके हैं। सत्याग्रह से बात करते हुए कमला खंडूरी कहती हैं, ‘मुज़फ्फरनगर जाने का ख़याल तक मुझे डरा देता है। लेकिन फिर भी किसी तरह हिम्मत जुटाकर मैं तीन बार गवाही के लिए वहां जा चुकी हूं। लेकिन कभी वहां हड़ताल हो जाती है तो कभी किसी और कारण से गवाही नहीं हो पाती।’ वे आगे बताती हैं, ‘कुछ साल पहले मेरे ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था। उस हमले में मेरा कंधा भी टूट गया था। लेकिन इसके बाद भी सरकार ने कभी हमारी सुरक्षा की चिंता नहीं की। इस राज्य की लड़ाई में हमने जो कुछ खोया है उसके लिए कोई सम्मान देना तो दूर, किसी भी मुख्यमंत्री ने कभी भी हमारा हाल तक जानने की कोशिश नहीं की।’
इस मामले की अगली सुनवाई 12 दिसंबर को होनी है। लेकिन बीते 22 सालों में कमला खंडूरी ने जो अनुभव किया है, उसके चलते उनकी यह उम्मीद समाप्त हो चुकी है कि उन्हें अब कभी न्याय मिल सकेगा। वे कहती हैं, ‘अब मैं गवाही के लिए भी नहीं जाना चाहती। वहां जाकर सिर्फ बुरी यादें ही ताजा होती हैं। 22 साल में जब कुछ नहीं हुआ तो अब शायद किसी को सजा होगी भी नहीं।’
रामपुर तिराहा कांड में महिलाओं के साथ हुए अपराधों से जुड़ा दूसरा और आखिरी मामला है- ‘सीबीआई बनाम राधा मोहन द्विवेदी व अन्य।’ यह मामला सबसे ज्यादा गंभीर है लेकिन फिर भी इसकी वर्तमान स्थिति सबसे बुरी है। यह मामला 16 आंदोलनकारी महिलाओं के साथ हुए अपराधों का है। सीबीआई द्वारा दाखिल किये गए आरोपपत्र के अनुसार इनमें से तीन महिलाओं के साथ बलात्कार या सामूहिक बलात्कार जैसे अपराध किए गए और 13 महिलाओं का शारीरिक शोषण किया गया, उनके कपड़े फाड़े गए और उनके साथ लूटपाट भी की गई। इस मामले में कुल 27 पुलिसकर्मियों को आरोपित बनाया गया है जिनपर आईपीसी की धारा 120बी, 376, 354, 392, 323 और 509 के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। यह मामला इसलिए भी ज्यादा गंभीर है क्योंकि इन 16 महिलाओं के साथ बलात्कार और शारीरिक शोषण जैसे जघन्य अपराध पुलिस हिरासत में रहने के दौरान किये गए।
आरोपपत्र के अनुसार तत्कालीन एसओ राधा मोहन द्विवेदी ने एक अक्टूबर 1994 की रात कुल 345 लोगों को हिरासत में लिया था। इनमें 298 पुरुष और 47 महिलाएं शामिल थीं। सीबीआई के आरोपपत्र में जिक्र है कि ‘गिरफ्तार की गई महिलाओं में से तीन महिलाओं के साथ पुलिस हिरासत में रहते हुए ही बलात्कार किये जाने और 13 महिलाओं के शारीरिक शोषण किये जाने की बात सामने आई है।’ इस मामले की वर्तमान स्थिति यह है कि बीते दस सालों से तो यह पूरी तरह से बंद पड़ा है। साल 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई पर अस्थायी रोक लगा दी थी। दस साल बीत चुकने के बाद यह ‘अस्थायी’ रोक अभी भी बरकरार है।
इस मामले की 16 पीड़िताओं में से एक, मधु भंडारी (बदला हुआ नाम) सत्याग्रह से बात करते हुए कहती हैं, ‘मुझे यह भी नहीं मालूम कि उन पुलिसवालों को सजा देने के लिए कोई मुकदमा चल भी रहा है या नहीं। मुझे आज तक कभी किसी कोर्ट में बयानों के लिए नहीं बुलाया गया। राज्य बनने पर हमें उम्मीद जगी थी कि अब हमें न्याय जरूर मिलेगा, लेकिन तब से आज तक हमें अपमान के अलावा कुछ नहीं मिला।’ मधु आगे कहती हैं, ‘राज्य बनने के कुछ समय बाद हम लोग मुख्यमंत्री से मिलने देहरादून गए थे। वहां हमारे बारे में कहा गया – ये आ गयी मुज़फ्फरनगर कांड वाली, दस लाख वाली। उस दिन के बाद से मैं कभी किसी मुख्यमंत्री के पास नहीं गई। आज भी वो शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं।’
इन मामलों की निगरानी के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा नियुक्त किये गए विशेष अधिवक्ता केपी शर्मा कहते हैं, ‘ये दोनों ही सीबीआई के केस हैं इसलिए हम इन मामलों में चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। वैसे हमने सीबीआई को लिखा है कि राधा मोहन द्विवेदी वाला केस, जो पिछले दस साल से लटका पड़ा है, उसकी सुनवाई उच्च न्यायालय से आर्डर लेकर जल्दी ही शुरू करवाई जाए। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय तो समुद्र की तरह है। वहां जो केस एक बार खो जाता है उसका मिलना फिर बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन हम कोशिश कर रहे हैं।
रामपुर तिराहा कांड से जुड़े अन्य मामले- महिलाओं के साथ हुए अपराध के दो मामलों के अलावा दो और मामले हैं जो आज भी मुज़फ्फरनगर की अदालतों में लंबित हैं। ये दोनों मामले मजिस्ट्रेट कोर्ट में चल रहे हैं। इनमें पहला है- ‘सीबीआई बनाम एसपी मिश्रा व अन्य।’ आईपीसी की धारा 120बी और 201 के तहत चल रहे इस मामले में कुछ पुलिसकर्मियों पर आरोप है कि उन्होंने आपराधिक षड्यंत्र रचा और आंदोलनकारी शहीदों की लाशों को रामपुर तिराहे से कुछ दूरी पर गंगनहर में फेंक दिया था। इस मामले में बचाव पक्ष की पैरवी कर रहे अधिवक्ता सुरेंद्र शर्मा अपनी डायरी खंगालते हुए बताते हैं, ‘इस मामले में अभी आरोप भी तय नहीं हुए हैं। फिलहाल तो उस कोर्ट में कोई जज ही नहीं है जहां ये मामला लंबित है। जज आएंगे तो फिर आरोप तय होने के लिए बहस होगी।’
मजिस्ट्रेट कोर्ट में लंबित दूसरा मामला है- ‘सीबीआई बनाम बृज किशोर व अन्य।’ आईपीसी की धारा 218, 211, 182 और 120बी के अंतर्गत चल रहे इस मुकदमे में पुलिसकर्मियों पर झूठी बरामदगी दिखाने (जैसे कि हथियार, पेट्रोल आदि) के आरोप हैं। रामपुर तिराहा कांड से जुड़े कुल चार लंबित मामलों में यही सबसे ‘तेजी’ से चलता दिखता है। इस मामले में बीते 22 सालों में कुल 13 लोगों की गवाही हो चुकी है।
क्या रामपुर तिराहा कांड के आरोपित जानबूझकर इन सभी मामलों में देरी करवा रहे हैं ताकि वे सजा पाने से बच सकें ? इस सवाल के जवाब में बचाव पक्ष के वकील सुरेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘आप पिछले 22 साल का कोर्ट रिकॉर्ड जांच लीजिये। इन 22 सालों में मुश्किल से दो या तीन बार ही बचाव पक्ष ने तारीख आगे टालने की प्रार्थना की होगी। जबकि अभियोजन पक्ष (सीबीआई) लगभग हर दूसरी तारीख पर केस आगे टालने का ही आवेदन करता आया है।’ वे आगे कहते हैं, ‘इसका मुख्य कारण यह है कि मुज़फ्फरनगर में सीबीआई के वकील नहीं हैं। इसलिए इन मामलों की पैरवी के लिए उसके वकील दिल्ली से आते हैं। लिहाजा उनकी यही कोशिश रहती है कि उनका पैरोकार ही यहां आकर अगली तारीख ले जाए।’
इन मामलों में देरी का एक कारण यह भी है मुज़फ्फरनगर में अलग से कोई सीबीआई अदालत नहीं है। ऐसी अदालतें प्रदेश के कुछ सीमित जिलों में ही होती हैं। लिहाजा इन मामलों की सुनवाई के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय किसी एक जज को नियुक्त करता है। लेकिन जैसे ही उस जज का ट्रांसफर होता है ये मामले फिर से तब तक के लिए लटक जाते हैं जब तक सीबीआई दोबारा इलाहबाद उच्च न्यायालय जाकर किसी अन्य जज की नियुक्ति का आदेश न ले आए। बीते कई महीनों से तो इसी वजह से ‘सीबीआई बनाम मिलाप सिंह’ वाला मामला लंबित पड़ा था। कुछ दिन पहले ही उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के लिए मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (द्वितीय) को इसकी सुनवाई के लिए नियुक्त किया है।
रामपुर तिराहा कांड से संबंधित मामलों का सबसे दुखद पहलू यह है कि जो चार मामले आज न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें एक भी ऐसा नहीं है जिसमें शहीदों के हत्यारों को सजा हो सके। वे सभी मामले काफी समय पहले ही ख़ारिज हो चुके जिनमें आरोपित पुलिसकर्मियों और अधिकारियों पर आंदोलनकारियों की हत्या करने, गैर इरादतन हत्या करने या उनकी हत्या का प्रयास करने के आरोप लगाए गए थे। रामपुर तिराहा कांड में शहीद हुए सत्येन्द्र चैहान के भाई आशुतोष बताते हैं, ‘मुझे नहीं पता कोर्ट में क्या हुआ। मुझे सीबीआई ने 1994-95 के दौरान ही सिर्फ एक बार अपने भाई के कपड़ों की पहचान करने के लिए बुलाया था। उसके बाद से कभी किसी ने यह नहीं बताया कि उसकी हत्या के लिए कोई मुकदमा चला भी या नहीं और अगर चला तो उसका क्या हुआ।’
उत्तराखंड आंदोलन में सक्रियता से जुडी रही डॉक्टर उमा भट्ट बताती हैं, ‘इसमें कुछ दोष हमारा भी रहा कि हम न्यायालयों में लड़ाई को मजबूती से नहीं लड़ पाए। राज्य बनने के बाद भी हमने यह मुहीम चलाई थी कि शहीदों को न्याय मिलना और दोषियों को सजा होना, हमारे लिए राज्य निर्माण से भी बड़ा उद्देश्य था। हमने न्यायालयों से ख़ारिज होने वाले शुरूआती मामलों पर पुनर्विचार करवाने के भी प्रयास किये, लेकिन यह काम लगातार नहीं कर सके।’
डॉक्टर उमा भट्ट जैसे बेहद कम ही लोग हैं जो यह स्वीकार करते हैं कि रामपुर तिराहा कांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की लड़ाई में उनकी भी कुछ भूमिका होनी थी। बाकी राज्य बनने के बाद तरह-तरह की रेवड़ियां लूटने के फेर में इस लड़ाई को भूल गये। जनता ने भी इसमें उनका साथ दिया जिससे इस लड़ाई के लिए जरूरी दबाव कभी बन ही नहीं सका। नतीजा यह कि उत्तराखंड को बनाने के लिए जिन्होंने बड़ी कुर्बानियां दीं उनकी लड़ाई लड़ने वाला तो दूर अब कोई उनके बारे में सोचने वाला भी नहीं।