राजीव लोचन साह
संस्थाओं में भी यदि ‘जे्ठ-का्ँस’ जैसा कुछ होता हो तो बड़े भाई और छोटे भाई जैसा रिश्ता होगा कुमाऊँ विश्वविद्यालय और नैनीताल समाचार में। वर्ष 1973 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई और चार साल के भीतर 1977 की पन्द्रह अगस्त को नैनीताल समाचार अस्तित्व में आ गया। भले ही हम डी.एस.बी. महाविद्यालय जैसे नायाब शिक्षण संस्थान की देन थे, मगर डिग्री तो हमें आगरा विश्वविद्यालय की ही मिली।
अपने शैशव से ही हमने कुमाऊँ विश्वविद्यालय पर कठोर निगरानी रखी। जिस वक्त समाचार का प्रकाशन शुरू हुआ, डी.एस.बी. के अध्यापकों में से कुमाऊँ विश्वविद्यालय के लिये चयन की प्रक्रिया शुरू हो रही थी और प्रो. डी. डी. पन्त जैसा विराट व्यक्तित्व कुमाऊँ विश्वविद्यालय का कुलपति था। मगर गड़बड़ियाँ उसी वक्त शुरू हो गयी थीं, जैसे शुभ लग्न के चक्कर में राज्य का स्थापना दिवस नौ दिन आगे खिसकाने से उत्तराखंड में शुरू हो गई थीं। उसके बाद इन चवालीस सालों में हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय में कुलपतियों की नियुक्तियों में मनमानी और लापरवाही; जिम्मेदार प्राध्यापकों द्वारा अपनी संतानों को यहाँ फिट करने की जोड़-जुगत; आर्थिक घोटालों; गैर जिम्मेदार छात्रों द्वारा कुलपति के साथ गाली-गलौज, आर्ट्स ब्लॉक की ऐतिहासिक इमारत के अग्नि के हवाले हो जाने आदि के बारे में तो लिखते ही रहे, मानव संसाधन मंत्री के रूप में पी.वी. नरसिंहाराव और प्रख्यात वैज्ञानिक प्रो. यशपाल द्वारा यहाँ दीक्षान्त भाषण दिये जाने के बारे में विस्तार से रिपोर्टिंग करते रहे।
इस यात्रा में सबसे उल्लेखनीय घटना प्रो. बलवन्त सिंह के कुलपति रहते हुए घटी। राजपूत देबसिंह बिष्ट परिसर के भौतिकी विभाग में रीडर के रूप में वर्ष 1980 से आ गये थे। मगर विभागाध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने एक गजब का शोशा छोड़ा। वर्ष 1992 में उन्होंने अफवाह उड़ाई कि उनका नाम उस वर्ष के भौतिक विज्ञान के नोबेल पुरस्कार के सम्भावितों में शामिल है। उनके मुँह से यह बात निकलनी थी कि उनके प्रशंसकों ने तूफान बरपा कर दिया। हालाँकि समझदार लोग इस झूठ को भली भाँति समझ रहे थे, किन्तु कौन बुराई मोल ले ? आजकल कुमाऊँ वि.वि. के भौतिक विभाग में उनकी परम्परा के एक दूसरे प्राध्यापक भी कुछ इसी तरह की बेपर की उड़ाने में लगे हैं और सुधी पत्रकार मीडिया में ‘अहो-अहो’ कह रहे हैं। वर्ष 1998 में राजपूत कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति बन गये। नोबेल पुरस्कार तो दूर की बात रही, धीरे-धीरे भौतिकी के शोधकार्य में प्रो. राजपूत की चोरियाँ पकड़ी जाने लगीं और विश्व स्तर पर भौतिकी जगत में खलबली मच गई। बात यहाँ तक बढ़ी कि विश्वविख्यात भौतिकीविदों, जिनमें अनेक नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक भी थे, ने प्रो. राजपूत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उन्होंने अपना विरोध जताते हुए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को पत्र लिखा। कलाम साहब खुद बहुत बड़े वैज्ञानिक थे। अन्ततः मई 2003 में उत्तराखंड के राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल द्वारा राजपूत को पद से हटा दिया गया। ध्यान देने की बात यह है कि राजपूत द्वारा शोधकार्य की इस चोरी का मामला काफी उछल जाने के बाद भी कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अधिकांश शिक्षकों ने सक्रिय रूप से राजपूत का समर्थन किया था। केवल भौतिकी की विभागाध्यक्ष प्रो. कविता पाण्डे अपवाद रहीं, जिन्होंने ‘कूटा’ की नाराजगी झेलते हुए भी शोध पत्रों की चोरी के मामले को पूरी तरह बेनकाब करने में मदद दी। कुमाऊँ विश्वविद्यालय की कार्य परिषद् में भी एकमात्र डॉ. सुरेश डालाकोटी की भूमिका इस मामले में सकारात्मक रही, जबकि उनकी पार्टी के विधायक राजपूत के साथ खड़े थे।
प्रो. राजपूत ने अपने कार्यकाल में अपने से पहले के सभी कुलपतियों से कहीं ज्यादा अनियमिततायें बरतीं और इसके लिये उनका बहुत अधिक विरोध भी हुआ। उत्तराखंड के कोने-कोने से छात्र आन्दोलन करने के लिये जुटे। उनके द्वारा अध्यापकों की नियुक्ति के एक मामले में मनमानी करने का प्रकरण ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित होने के बाद भाजपा नेता अनिल कपूर डब्बू द्वारा अक्टूबर 1999 में हमारे साथ दुर्व्यवहार किया गया, जिसकी पूरे उत्तराखंड भर के पत्रकारों में तीखी प्रतिक्रिया हुई। जगह-जगह धरने हुए और नैनीताल तथा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पत्रकारों के जलूस निकले। अन्ततः भगत सिंह कोश्यारी, जो इन दिनों महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं, के बीच-बचाव के बाद मामला शान्त हुआ।
बलवन्त सिंह राजपूत के कुलपति काल में कुमाऊँ विश्वविद्यालय खूब बदनाम हुआ। मगर ऐसा भी नहीं कि उससे पहले यहाँ अनियमिततायें न हुई हों और राजपूत के बेआबरू होकर चले जाने के बाद सब कुछ ठीक ठाक हो गया हो। दरअसल, जैसा अब तक पूरे देश के स्तर पर हुआ या कि प्रदेश के स्तर पर, हर बार नया प्रधानमंत्री या नया मुख्यमंत्री आता है तो उम्मीद जगती है कि शायद अब आगे हालात सुधरेंगे, मगर वह नया आने वाला व्यक्ति हमेशा पिछले से घटिया ही साबित होता है। ऐसा ही कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपतियों के साथ भी होता रहा। दरअसल विश्वविद्यालय की बीमारी कितनी लाइलाज है, यह हमें वर्ष 2006 से 2009 के बीच महसूस हुआ, जब एक सत्र के लिये हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद् के सदस्य रहे। उस वक्त भी डॉ. चन्द्र प्रकाश बड़थ्वाल के रूप में एक नाकारा व्यक्ति यहाँ कुलपति था। उनके कार्यकलापों पर नियंत्रण करने में तो हम असमर्थ रहे ही, हमें बार-बार यह अनुभव होता रहा कि विश्वविद्यालय के अन्दर एक अदृश्य लॉबी है, जो कुलपति को अंधेरे में रखती है, उसके सामने सारी बातें साफ-साफ नहीं रखती। कार्य परिषद् में काटे वे तीन साल लगभग निरर्थक ही रहे, क्योंकि विश्वविद्यालय में शिक्षा व शोध का स्तर सुधारने के बारे में चर्चा करने में किसी की रुचि ही नहीं होती थी। सारा वक्त नियुक्तियों या प्रमाशनों के बारे में बहस करने में बीतता था। दूसरे सत्र के लिये सीनेट के चुनाव में जब यह रहस्य उजागर हुआ कि इस चुनाव में तो उन रजिस्टर्ड ग्रेजुएटों के भी फर्जी वोट पड़ते हैं जो मर चुके हैं, तो हम स्तब्ध रह गये। इस मुद्दे पर एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। जब तत्कालीन कुलाधिपति मार्गरेट अल्वा से भी न्याय नहीं मिल सका तो हमने सीनेट से इस्तीफा देकर कुमाऊँ विश्वविद्यालय को अलविदा कह दिया। हालाँकि हमारे उस संघर्ष से सीनेट की चुनाव प्रक्रिया थोड़ी तो साफ सुथरी हुई है।
लोग इस बात से अब बिल्कुल बेपरवाह हो गये हैं कि कुमाऊँ विश्वविद्यालय में क्या होता है और क्या नहीं। बावजूद इस तथ्य के कि उत्तराखंड राज्य की तरह यह विश्वविद्यालय भी हमें लम्बे संघर्ष के बाद मिला है। 1972 में चले विश्वविद्यालय आन्दोलन के दौरान पिथौरागढ़ में जबर्दस्त जन उभार आया था और पुलिस द्वारा एक जुलूस पर गोली चलाने से दो व्यक्ति मारे गये थे। यह शर्मनाक है कि उन शहीदों के नाम पर विश्वविद्यालय में कहीं पर एक पट्टिका तक नहीं लगी हुई है। जनता यह सब बातें भूल चुकी है। हमारे कार्य परिषद् के सदस्य रहने के दौरान एक बार अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के छात्रों ने विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन पर जबर्दस्त पथराव कर सारे कम्प्यूटर तोड़ डाले थे। प्रो. बड़थ्वाल के गुहार लगाने पर हम विश्वविद्यालय गये तो वहाँ का हाल देख कर गुस्से के मारे उपवास पर बैठ गये। अगले रोज हमने कुलपति से कह कर नैनीताल नगर के तमाम सम्भ्रान्त नागरिकों की एक बुलवाई और उन सबसे निवेदन किया कि जनता के बलिदान से बने इस विश्वविद्यालय से इस तरह आँखें न फेरें, इस पर निगरानी बनाये रखें।
मगर क्या होता है ?
बीच में एक बार फिर उम्मीद की एक किरण जैसी कौंधी, जब प्रो. डी. के. नौड़ियाल इस विश्वविद्यालय के कुलपति बने। वे असंदिग्ध रूप से योग्य थे और विश्वविद्यालय की गरिमा को वापस भी लाना चाहते थे। मगर बहुत सीधे थे। दिसम्बर 2017 में एक सुबह साढ़े दस बजे वे डी. एस. बी. कैम्पस पहुँच गये तो देखा कि वहाँ विभागों के ताले तक नहीं खुले थे। जबकि विद्यार्थी पर्याप्त संख्या में इधर-उधर टहल रहे थे। प्रो. नौड़ियाल ने अपने हाथों से कुछ विभागों में अनुपस्थिति दर्ज की। तीन दिन बाद सोबन सिंह जीना परिसर अल्मोड़ा में भी उन्हें ऐसा ही नजारा देखने को मिला। इस घटना की रिपोर्ट जब हमने नैनीताल समाचार में प्रकाशित की तो सारा अध्यापक समाज हमसे खफा हो गया। प्रो. नौड़ियाल यों तो ऊपर से पड़ने वाले सारे दबावों के आगे झुकते ही थे, मगर जब यह दबाव इतने बड़े हो गये कि बर्दाश्त करने की सीमा पार कर गये तो इज्जत बचाने के लिये उन्होंने अपना बिस्तर लपेटा और अपने मूल संस्थान रुड़की को लौट गये। इससे पहले प्रो. बी. के. जोशी और प्रो. भटनागर भी अपना कार्यकाल पूरा किये बगैर कुमाऊँ विश्वविद्यालय छोड़ गये थे।
इसके बाद डॉ. कृष्ण शेखर राणा कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति बन कर आये। उनकी सबसे बड़ी योग्यता यह थी कि वे किसी चुनाव में महामहिम राज्यपाल के चुनाव प्रभारी रहे थे। राजनैतिक दृष्टि से वे सचमुच इतने आगे थे कि अपने पद में रहते हुए एक बार उन्होंने उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों को उत्तराखंड में जोड़ने की विचित्र माँग कर डाली। मगर वे भी यहाँ ज्यादा न रह कर किसी बेहतर चारागाह की उम्मीद में अन्यत्र चले गये।
अब आये हैं प्रो. नरेन्द्र कुमार जोशी। बातचीत में वे इतने सरल और शिष्ट हैं कि ताज्जुब होता है कि ऐसा भद्रपुरुष इस पद पर आया ही क्यों होगा। मगर जब उनकी योग्यता के आगे प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हुए, आँखें फटी की फटी रह गईं। पता चला कि वे एम.एससी. तो भौतिकी से हैं; डॉक्टरेट उन्होंने वानिकी में प्राप्त की है; एसोसिएट प्रोफेसर वे कम्प्यूटर साइंस के हैं। उनका कोई भी शोध पत्र किसी मान्यताप्राप्त जर्नल में प्रकाशित नहीं हुआ है। इस प्रकरण की जाँच के लिये कुलाधिपति को पत्र लिखते हुए गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष और भाकपा (माले) नेता इन्द्रेश मैखुरी ने आरोप लगाया है कि जोशी ने किसी सरकारी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर कार्य नहीं किया है। जिन निजी संस्थानों में उन्होंने अपना प्रोफेसर होना बताया है, उनकी नियुक्ति प्रक्रिया की कोई विश्वसनीयता ही नहीं है। प्रो. जोशी दावा करते हैं कि वे वर्ष 2017 से उत्तरांचल विश्वविद्यालय देहरादून के कुलपति हैं, लेकिन उनका एक शोधपत्र, जिसमें वे तृतीय लेखक (?) के रूप में हैं, डाइरेटर उत्तरांचल इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नॉलॉजी के नाम से छपा है। अब कुलपति के पद पर रहने वाला व्यक्ति अपने नाम के आगे डाइरेक्टर क्यों लगायेगा भला ? मजेदार बात यह भी है स्वयं को 15 वर्ष से प्रोफेसर, जो कुलपति पद के लिये पहली अर्हता है, बताने वाले जोशी का पहला शोधपत्र ही वर्ष 2017 में छपा है। बाकी जो शोधपत्र छपे हैं, उन पर चर्चा करना ही फिजूल है। वे प्रिडेटरी जर्नल्स, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे पैसे लेकर छापे जाते हैं और अकादमिक जगत में नीची दृष्टि से देखे जाते हैं, प्रकाशित हुए हैं।
प्रो. जोशी ने अपने बायोडाटा में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नॉलॉजी, मिसौरी यूनिवर्सिटी जैसे भारी-भरकम नाम गिनाये हैं, मगर इससे उनकी योग्यजा और अधिक संदिग्ध हो गई है। सोशल मीडिया पर वायरल हुआ उनका एक शपथ पत्र, अगर वह वास्तविक है तो खतरनाक साबित हो सकता है। आम आदमी पार्टी के नेता और राज्य आन्दोलनकारी रवीन्द्र जुगरान ने भी इस मामले में कुलाधिपति को पत्र लिखा है और अब वे अदालत की शरण में जाने की तैयारी कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि इसी तरह के आरोप साबित होने पर दिसम्बर 2019 में उच्च न्यायालय नैनीताल ने दून विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. चन्द्रशेखर नौटियाल की नियुक्ति रद्द कर दी थी।
इतिहास किस तरह अपने को दुहराता है, उसका एक दिलचस्प उदाहरण यह भी है कि कुमाऊँ विश्वविद्यालय के शिक्षक आज एन.के.जोशी के साथ उसी मजबूती के खड़े हैं, जैसे लगभग 20 साल पहले राजपूत के साथ खड़े थे और विश्वविद्यालय की कार्य परिषद में भी पिछली बार की तरह सिर्फ एक सदस्य, कैलाश जोशी, इस मामले को उठा रहे हैं। मीडिया में भी जोशी की तथाकथित उपलब्धियों को लेकर वाहवाही जारी है।
2 Comments
Bhupen Singh
Uttarakhand ki sabhi universities Ka yahi hal hai. Civil society ko Apne institutions se kuchh Lena dena Nahi Rah Gaya hai. Kya Kiya ja Sakta hai?
DK Bhatt
प्रो0 बी के जोशी, प्रो0 भटनागर, प्रो0 नौडियाल इत्यादि असंदिग्ध योग्यता के धनी थे किंतु जिन कारणों से उन्हें अपने कार्यकाल पूर्ण किये बिना विश्वविद्यालय से जाने को विवश होना पड़ा और उनके इस प्रकार बहिर्गमन से समाज के शैक्षणिक हितों को जो हानि पहुंची, क्या कभी उनकी गहन पड़ताल हो पाई है? जनता के बलिदान से जनता के लिए बने इस उच्च शिक्षण संस्थान के बिन मांगे ही दो हिस्से कर दिए गए हैं, क्या इस पर और इसके तात्कालिक एवं दूरगामी परिणामों कोई मंथन, कोई विश्लेषण, कोई पड़ताल देखने सुनने को मिली है? वर्तमान कुलपति पर योग्यता विषयक विभिन्न आरोपों के प्रकाशन में यदि कहीं आपके इस लेख में उक्त कुलपति का पक्ष जानने का प्रयास भी दृष्टिगोचर होता तो यह इस प्रख्यात समाचार पत्र की साख के अनुकूल संतुलित एवम न्यायसंगत प्रतीत होता।