विजया सती
शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ अनेक हैं. सृजनात्मक लेखन, शिक्षण और सामयिक प्रश्नों से निरंतर जुड़े, दिनेश कर्नाटक के मन की कामनाएं, आकांक्षाएं और आदर्श भी अनेक हैं. चुनौतियों, बदलावों और सामंजस्य पर प्रकाश डालती यह पुस्तक २८ शीर्षकों और १५९ पृष्ठों में अपनी बात कहती है, २९सवां परिशिष्ट शिक्षा प्रश्नोत्तरी है.
इस सुरुचिपूर्ण प्रकाशन में, दिनेश कर्नाटक जी ने शिक्षा से जुड़ी चुनौतियों को, शिक्षक होने के नाते आँखिन देखी की तरह लिखा है. भाषा शिक्षक होने की वजह से वे भाषा और साहित्यिक अभिरुचि को केंद्र में रखते हैं. सबको समान शिक्षा – उनका स्वप्न है, मातृ भाषा और परिवेश की भाषा को मान्यता देने का उनका आग्रह.
शिक्षा जगत के जिन बेहतरीन सवालों से पुस्तक में हमारा सामना होता है, उनकी तस्दीक ऐसे शीर्षक करते हैं – क्या हम अपने विद्यार्थियों को जानते हैं, बच्चे प्रश्न करने से क्यों डरते हैं, स्कूल में भाषा-शिक्षक की भूमिका, क्या हम बच्चों से उनकी भाषा छीन लेना चाहते हैं, नई शिक्षा नीति से हमारी अपेक्षाएं, तर्क संगत और वैज्ञानिक सोच.
जीवन में सृजनात्मकता को महत्व देते हुए लेखक, जो स्वयं कथाकार भी हैं, बच्चों की सोच और समझ के बनने और विकसित होने में कथा-कहानियों की महती भूमिका को रेखांकित करते हैं. अपने जीवनानुभवों को उन्होंने छात्रों के अनुभवों से जोड़ा है. बहुत बेबाकी से सहयोगी शिक्षकों के दृष्टिकोण को भी समाहित किया है और मुखिया विहीन विद्यालयों के कष्ट भी बताए हैं.
उत्तराखंड जैसे राज्य में संसाधनों की भारी कमी के बीच शिक्षक से आदर्श व्यवहार की अपेक्षा की जाती है – चाहा जाता है कि वह अपनी आत्मा की आवाज सुने. शिक्षक से बहुत अपेक्षाएं और उस पर मीडिया की निंदनीय भूमिका – दोनों मिलकर आखिर क्या दे पाएंगे – समाज को, विद्यार्थी को, विद्यालय को?
विद्यालय से शिक्षिकाएं छुट्टी पर गई, इस खबर को मीडिया ने यूं उछाला कि उन्हें अपने बच्चों की चिंता है पर स्कूल के बच्चों की नहीं.
लेखक का सीधा प्रश्न है – जिन्हें छुट्टी दी गई क्या उनके स्थान पर अन्य व्यवस्था की गई? यह व्यवस्था की खामी है. इसमें मीडिया की भूमिका स्त्री विरोधी मानसिकता को दिखाती है, मातृत्व के अधिकार का मजाक उड़ाती है. सरकारी निर्णयों की खामी का खामियाजा शिक्षक को क्यों भुगतना पड़े? शिक्षक को भी संसाधन और नेतृत्व चाहिए. फिर शिक्षा पूर्णकालिक कार्य है, शिक्षक को दूसरे कार्य में लगाया जाना भी कहाँ तक उचित है?
शिक्षा को स्थानीय से वैश्विक बनाना उचित है किन्तु स्थानीयता की उपेक्षा से लक्ष्य अप्राप्य ही रहेगा – ऐसा पुस्तक लेखक का विश्वास है.
ऊपरी और सतही के स्थान पर आंतरिक बदलाव श्रेयस्कर है, शिक्षा में सेवा और समर्पण की महती भूमिका है, शिक्षा का वृहत्तर उद्देश्य खोजपरक और क्रियात्मक होना है, सुविधाजनक ढर्रे को तोड़ना है – लेखक के पास यह एक व्यग्र दृष्टि है जो आदर्श शिक्षक में होनी चाहिए. वह शहर और गाँव दोनों का परिदृश्य देखते है. दो तरह की शिक्षा के षड्यंत्र को पहचानते हैं – सरकारी और निजी शिक्षा. लेखक के कई दुखों में से एक यह भी है कि सरकारी स्कूलों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता.
पुस्तक से एक बेहतरीन आलेख ‘पुस्तकालय के मेरे अनुभव’ का उल्लेख करना आवश्यक होगा. किताब क्या दे सकती है? इस बिंदु पर लेखक अपने आत्मकथ्य को समाहित करते हुए अपने व्यक्तित्व विकास में पुस्तकालय की भूमिका को लिखते हैं. ‘दीवार पत्रिका’ अभियान के महत्व को बताते हुए वे व्यक्तिगत प्रयासों की महत्ता को मान्यता देते हुए साफ़ लिखते हैं कि सरकार या किसी संस्था का मुंह जोहना बेमानी है.
लेखक के कुछ मूलभूत सैद्धांतिक विचार हैं, कुछ आवेशपूर्ण प्रश्न और आहत मन के संवेदन हैं. शिक्षक होने के नाते शिक्षार्थी के मन को समझने, किताब-पुस्तकालयों की व्यवस्था, बच्चे के भीतर छिपी क्षमताओं का उल्लेख वे बारम्बार करते हैं. भय की निकृष्टता को प्रमाणित करती, स्नेह और सरलता से शिक्षा और ज्ञानार्जन की भावना पोषित करती यह पुस्तक विद्यालय को आनंदालय में परिणत कर देने की स्वप्नशील दृष्टि लिए हुए है.
लेखक देश की शिक्षा नीतियों की (सार्थक?) निर्रथकताओं का उल्लेख करते हुए शिक्षक के मान-सम्मान की ओर न केवल भरपूर दृष्टि डालते हैं बल्कि उसके बचाव के लिए प्रतिबद्ध होते हैं.
इन आलेखों में जे. कृष्णमूर्ति, एनी बेसेंट और राममोहन राय का विशेष उल्लेख हुआ है. लेखक ने जे. कृष्णमूर्ति के कथनों को आदर्श रूप में ग्रहण किया है. पुस्तक में कृष्णमूर्ति की सैद्धांतिकी पर आधरित वैचारिक उन्मेष दिखाई देता है. समाज के अंतिम छोर के बच्चे लेखक की चिंता में रहते हैं. वंचित बच्चों के लिए शिक्षा का सही स्वरूप बनाने की आदर्श शिक्षक की भूमिका निबाहते हुए वे अपने अनुभव से कहते हैं कि शिक्षक और विद्यार्थी के बीच आत्मीय अन्तरंगता शिक्षण में बोझिलता समाप्त कर, जीवन्तता और आनंद की सृष्टि कर पाएगी. जीवन में मूल्य, सौन्दर्य, शान्ति, भरोसा और अभाव-मुक्ति की उपस्थिति संभव होगी.
लेखक स्वप्नदृष्टा, ऊर्जावान, सृजनात्मक शिक्षक की जरूरत को पूरा करने के क्रम में शिक्षक-छात्र के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश करते हुए बहुत सी नई जानकारियाँ देते हैं. भाषा को सहजता से सीखने की क्षमता को बढ़ाने और शिक्षा में उदात्त मानवीय मूल्य दे जाने की कामना करने वाला यह निर्भीक शिक्षक चाहता है कि शिक्षक को पाठ्यक्रम में फेरबदल का अधिकार मिले, प्रधानाध्यापक अधिकार संपन्न और जिम्मेदार हों.
बेहतर समाज के निर्माण के लिए सद्भावना को जरूरी मानने वाला लेखक यद्यपि यह भी जानता है कि व्यवस्था के चाक पर चढ़ी बहुत सी आकांक्षाएं अपूर्ण-अधूरी रहने को अभिशप्त हैं, फिर भी वह अंग्रेज़ी के प्रति स्वस्थ-संतुलित दृष्टि का परिचय देते हुए, समय की समझ और शिक्षक की सार्थक भूमिका को दृष्टि के केंद्र में रखता है. सृजनशीलता को अनवरत रेखांकित करते हुए लेखक इस बड़ी सोच की जरूरत मानता है कि शिक्षा सोचने का विवेक पैदा करे, देश निर्माण का बुनियादी कार्य करे और जीवन के सवाल समझाए.
शिक्षा में जिस समानता की आकांक्षा पुस्तक की गहरी कामना है, उस सिद्धांत को जीवन में उतारने को वह स्वयं कटिबद्ध है, इस रूप में कि शिक्षा मनुष्य को रूपांतरित करे, बच्चे निर्दोष हैं, उन्हें किस बात की सज़ा दी जानी चाहिए? शिक्षक की भूमिका यह होनी चाहिए कि वह बच्चे के भीतर ललक पैदा करे, उसे स्वत: सीखने को प्रेरित करे, एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार करे. बच्चे के प्रकट व्यवहार में पैठने की कोशिश करते हुए, एक संवेदनशील शिक्षक की भूमिका में लेखक इस महत्वपूर्ण मुद्दे को केंद्र में लाते हैं कि शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं, खुद जीवन है. शिक्षा आर्थिक दृष्टि से सफल जीवन प्राप्त करने का मौक़ा भर नहीं है. वे सृजनात्मक तरीके से बच्चे के व्यवहार से उसे जानने का उद्यम करते हैं. वे शिक्षा में खोई हुई श्रम की महत्ता को पुनर्स्थापित करने का आग्रह भी करते हैं.
किताब में कहीं कुछ पुनरावृत्तियाँ भी हैं जैसे शिक्षालय आनंदालय बनें…इस आग्रह को कई बार दोहराया गया है.
पुस्तक भाषा की सहजता और क्षिप्र गति के कारण प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए – अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा कुछ लोगों को ‘सरकारी शिक्षा के मर्ज के लिए संजीवनी बूटी’ सी’ लगती है तो ‘ट्यूशन कोचिंग’ को लेखक बाज़ार कह कर संबोधित करता है.
एक सृजनात्मक लेखक और संवेदनशील शिक्षक की दोहरी विशेषता से संपन्न व्यक्ति द्वारा रची गई यह किताब शिक्षा जगत में बदलाव की तमाम चुनौतियों को ऐसे तार्किक, पैने और संवेदनशील रूप से दर्ज करती है, जिसे पढ़ना सुखद लगता है.
भारत जैसे देश में ऐसे स्वप्नशील-सृजनात्मक शिक्षक की जरूरत है.
पुस्तक – शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ
लेखक दिनेश कर्नाटक
काव्यांश प्रकाशन २०२२
पृष्ठ १५९
मूल्य २००/-
3 Comments
काजल
प्रणाम मैम, ‘शिक्षा जीवन है।’ आसपास सब कुछ नकारात्मक देखते हुए भी लगता है कि एक दिन परिवर्तन जरूर होगा, यदि दिनेश कर्नाटक और आप जैसे शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर चिंतनशील है, क्योंकि शिक्षा मनुष्य के जीवन की दिशा और दशा दोनों तक करती है। शुक्रिया मैम, हमें बेहतर किताबों और लेखक से अवगत कराने के लिए। 🙏
विजया सती
पहाड़ में वापसी के साथ ही नैनीताल समाचार से परिचय पुनर्जीवित हुआ.
मेरे लेखन को प्रतिष्ठित प्रकाशन में स्थान मिला, प्रसन्न हूं.
उम्मीद है कि यह सृजनात्मक संग साथ बना रहेगा.
समस्त शुभकामनाओं के साथ गहन सघन आभार प्रिय संपादक !
विजया सती
धन्यवाद काजल !
ध्यान से पढ़कर विचार व्यक्त करने के लिए ..निश्चित ही शिक्षा जीवन की दशा और दिशा तय करती है.