नवीन जोशी
सितम्बर 2008 में शेखरदा (प्रोफेसर शेखर पाठक) ने प्रसिद्ध छायाकार एवं पर्वतारोही अनूप साह तथा संवेदनशील छायाकार प्रदीप पाण्डे के साथ उच्च हिमालय के एक दुर्गम मार्ग गंगोत्री-कालिंदीखाल-बद्रीनाथ की यात्रा पर थे तभी यह चिंताजनक समाचार मिला था कि वे तीनों कालिंदीखाल पार करते समय अचानक बहुत खराब हो गए मौसम में हिमपात, बारिश और भूस्खलन के बीच कहीं फंस गए हैं और सैटेलाइट फोन से वाया देहरादून आईटीबीपी के कैम्प तक पहुंचाई गई मदद की उनकी गुहार भी बेनतीजा रही है, तो हम सब किसी अनहोनी की आशंका से परेशान हो उठे थे। कोई 48 घंटे के बाद उनकी कुशल मिली थी। तब यह जानकर सबने दांतों तले अंगुली दबा ली थी कि बारिश से भीगे, लस्त-पस्त एवं हिमदंश से त्रस्त, भूखे-प्यासे और सन्निपात की हालत तक पहुंचे तीनों जीवट यात्रियों ने भूस्खलन के बीच एक बड़ी चट्टान के नीचे बैठकर किसी तरह अपने प्राण बचाए। इस दौरान उनके दो सहयोगी और एक अन्य यात्री दल के चार साथी मौत के मुंह में चले गए थे। तब से ही शेखरदा से इस अविस्मरणीय, और त्रासद भी, यात्रा-वृतांत के लिखे जाने की आशा थी, जो अब 2024 में पूरी हुई है। उनकी किताब ‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ हाथ में है। ‘नवारुण’ से प्रकाशित इस पुस्तक का विमोचन 23 मई को एक और यात्रा, ‘अस्कोट से आराकोट-2024’ के प्रारम्भ होने की पूर्व संध्या पर पिथौरागढ़ में किया गया।
‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ कोई सामान्य यात्रा-वृतांत नहीं है। यह असामान्य होकर भी मात्र यात्रा-वृतांत नहीं है। किताब के उप-शीर्षक में इसे ‘गंगोत्री-कालिंदीखाल-बद्रीनाथ यात्रा में निर्जन सौंदर्य और मौत से मुलाकात’ बताया गया है। यह तो वह है ही। इससे आगे यह एक वृतांत के भीतर अन्य अनेक स्मृतियों, मिथकों, सपनों, पथारोही-पर्वतारोही पुरखों, उनकी भटकनों एवं खोजों का वृतांत है। यह मनुष्य व प्रकृति के अंतरसंबंधों, उदार-क्षमाशील प्रकृति और उस पर मनुष्य के अनाचारों के साथ-साथ प्रकृति को देखने-बरतने के अपेक्षित व्यवहार का वृतांत है। यह ग्लेशियरों (गलों)के भीतर लाखों-करोड़ों बरसों से जमी बर्फ की तहों, वहीं कहीं बहते पानी (जो आगे जाकर किसी नदी का उद्गम बनता है) और उसमें गिरते पत्थरों-हिमखंडों की ध्वनियों, हिमोड़ों, चट्टानों, विरल वनस्पतियों, निर्भय भरलों, अदृश्य हिमचीतों, नितांत निर्जन में सामाजिकता बनाते सखा-पक्षियों और हिमालय की दुर्गम कंदराओं में लौकिक जीवन से परे जाने क्या-क्या खोजते विरागी बाबाओं का वृतांत है। यह सम्पूर्ण प्रकृति से मानव मन के अंतरंग संवादों का अनोखा वृतांत है। यह मन के बच्चा हो जाने, सवाल पूछने और जवाबों के लिए अनंत प्रतीक्षा का वृतांत है। इस तरह यह वृतांत यात्राएं करने और उनके लिखे जाने के लिए एक नई दृष्टि देता है, नए मानक बनाता है।
गंगोत्री-कालिंदीखाल-बद्रीनाथ मार्ग “कहीं से भी तीर्थ यात्रा मार्ग नहीं है। न व्यापार मार्ग है। न यहां मनुष्य हैं न देवता। … दरअसल यह मार्ग ही नहीं था। बेचैन हिमालय प्रेमियों की उत्कण्ठा ने इस मार्ग को नक्शे में बना डाला। यह हिमालयी अन्वेषण के परिणामों में एक है।” लेकिन फिर यहां जाते क्यों हैं? क्योंकि “आस्था से अलग अन्वेषण हमें हिमालय को समझने में मदद देता है।” और, जिसे हिमालय को समझने की उत्कंठा है,उसके लिए “हिमालय यहां आदिम राग गाता है, अत्यंत विलम्बित आवाज में। बीच-बीच में गल और पहाड़ टूटकर अलग तरह के वाद्ययंत्रों को आड़ी-तिरछी झनकार पैदा करते हैं। यह एक तरह का ‘राग हिमालय’ है।” किताब में, यानी पूरी यात्रा में लेखक इस राग हिमालय के साथ है, उसे देखता है, सुनता है,कुछ समझता है, कुछ नहीं समझता है और इसीलिए बहुत से सवाल करता है जिनके उत्तर हिमालय के उर में नहीं, मनुष्य के मन-मस्तिष्क में होने चाहिए थे लेकिन दुर्भाग्य से नहीं हैं या हैं तो वह उनको सुनने से इनकार करता आया है। इसीलिए इस यात्रा सत्र में उत्तराखंड के ‘चार धामों’ में निरंकुश व अराजक यात्रियों का उपद्रव दिखाई दे रहा है।उन्हें हिमालय या प्रकृति की कोई चिंता नहीं है। यह प्रवृत्ति अवश्य शेखरदा को परेशान करती रही होगी तभी तो वे निर्जन एकांत में भी अपने भीतर से उठता यह सवाल पूछ लेते हैं- “क्या प्रकृति को नष्ट करने/करवाने वाले राजनीतिज्ञों और निगम पतियों को हिमालय कभी माफ करता होगा? काश हिमालय या उसके सौंदर्य स्थल, जिनमें तीर्थ भी शामिल हैं, अपने विवेक सम्मत आगंतुकों या भक्तों का चुनाव कर पाते!” कैसी मासूम सी ख्वाहिश है! प्रकृति के प्रति लेखक की यह चिंता पूरी यात्रा में और इसीलिए किताब में भी जगह-जगह बनी रहती है, चाहे वह भोज वृक्षों का विनाश हो या पूरे हिमालयी क्षेत्र में फैलाया जा रहा प्लास्टिक-पॉलीथीन-बोतलों-आदि का कचरा हो या उत्तराखंड में किसी ‘समझदार सरकार’ का न होना हो।
सबसे अधिक जो प्रभावित करता है, बल्कि छू लेता है और जिसका स्पर्श मन में गहरे बना रह जाता है, वह है शेखरदा की निगाह। जिस नज़र से वे प्रकृति की हर चीज को देखते हैं, वह मनुष्य से इस सम्पूर्ण सृष्टि के लिए सम्मान और साज-संभाल की आग्रही है। सृष्टि में मनुष्य ही श्रेष्ठ प्राणी नहीं है। वह बुद्धि-विवेकशील प्राणी अवश्य है और इसीलिए सौंदर्य का पारखी है किंतु वह इस सौंदर्य के रचयेता का सम्मान नहीं करता जबकि शेखरदा चाहते हैं कि उसे न केवल देखा-सराहा जाए, बल्कि समझ कर बड़ा-सा सलाम भी किया जाए। वे शिवलिंग शिखर की जड़ में तपोवन के विस्तार में गल के ऊपर खड़े हैं, चारों ओर बिखरा सौंदर्य उन्हें अद्भुत रूप से मोह लेता है और वे सोचते हैं- “ऐसी जगहें शायद हममें अधिक मानवीय गुण भरती हैं और प्रकृति के आगे विनम्र होने की समझ देती हैं। ये जगहें आदमी की रचनाएं नहीं हैं।” उस दुर्गम हिमालय के कोने-अतरों में शेखरदा ने निर्जन सौंदर्य के कितने ही रूप देखे और दर्ज़ किए हैं। उसके वर्णन में वे अनेक बार रूपवादी-छायावादी तक हो जाते हैं पर अंततः उसकी परिणति यथार्थवाद में ही होती है। उनकी शैली ही अनोखी नहीं है, वे अपने अनुभवों के लिए नए शब्द भी गढ़ते हैं।
उनकी दृष्टि ही नहीं, कान भी गजब कर जाते हैं। वे गल के भीतर की ध्वनियां सुनते हैंतो उससे बात करने लगते हैं। गल भी उन्हें जवाब देने लगता है- “धड़म-बड़म-खड़म। सुनो शेपा, मैं हूं गंगोत्री गल। सहस्राब्दियों पहले तो मैं बहुत नीचे तक पसरा था और कोई मनुष्य या भगवान मुझ तक न आते थे। राजा भगीरथ की कहानी तो मुझसे हाल ही मैं जुड़ी। करोड़ों-लाखों साल तक मैं यू ही सोया रहा। …”अड़म-बड़म-खड़कम की भाषा में गंगोत्री गल अपनी कहानी बताता है कि 1808 में जब सर्वे ऑफ इण्डिया वाले आए तब मैं आज की गंगोत्री से मात्र पांच किमी ऊपर था लेकिन आज मैं 15 किमी से अधिक ऊपर को सरक आया हूं, आदि-आदि। बर्फ पर चमकती चांदनी का चिड़िया से संवाद भी वे सुन लेते हैं।बल्कि, “यहां तो भरल, कव्वे, गल, चट्टानें और वनस्पतियां न जाने चांद से कैसे बोलती हैं?”समझने का सूत्र यह है कि “मनुष्य के लिए जरूरी है कि प्रकृति को सुनने के लिए वह स्वयं चुप रहना सीखे।”
हिमालय अध्येता के अलावा सचेत इतिहासकार शेखरदा के इस वृतांत में हम हिमालय की अनेक कठिन और पहले-पहल हुई यात्राओं का संदर्भ पाते हैं तो कालिंदीखाल के पथ पर पड़े पहले और फिर बार-बार चले कदमों के निशान भी पढ़ने को मिलते हैं। माना जाता था कि एरिक शिप्टन और टिलमैन 1934 में पहली बार कालिंदीखाल होकर गोमुख तक गए थे लेकिन शेखरदा अपनी पड़ताल से बताते हैं कि वास्तव में 1931 में कैप्टन ई जे बरनी और उनके छह साथी इस दर्रे को पार करने वाले पहले यात्री थे। तब तक यह दर्रा कालिंदीखाल नहीं कहलाता था। बरनी की यात्रा के बाद इसे ‘बरनी कॉल’ नाम दिया गया और बाद में कालिंदी शिखर के नाम पर इसे कालिंदीखाल कहा जाने लगा। बाद में शिप्टन व टिलमैन और भी कुछ पर्वतारोही इस इलाके में आए।
1945 में स्वामी प्रबोधानंद के साथ पांच अन्य साधुओं ने गंगोत्री से कालिंदीखाल पार करते हुए बद्रीनाथ की यात्रा की थी। इनमें से एक साधु परमानंद शून्य से नीचे के तापमान में दिगम्बर यानी पूरी तरह वस्त्रहीन थे। बाद में स्वामी सुंदरानंद ने दस बार दुर्गम कालिंदीखाल को पार किया। ये वही प्रसिद्ध छायाकार स्वामी सुंदरानंद हैं जिनके हिमालय सम्बंधी छायाचित्र देश-विदेश में ख्यात हुए। यह जानना रोचक होगा कि अपनी पहली यात्रा में स्वामी सुंदरानंद एक बर्फीली खाई में गिर गए थे। उनके साथी यात्री ने खाई में गिरे हुए उनका फोटो खींचा था लेकिन बाद में स्वामी जी के मांगने पर भी उन्हें दिया नहीं। अगली बार स्वामी सुंदरानन्द अपना कैमरा लेकर उसी मार्ग पर गए और हिमालय के चर्चित छायाकार भी बने। सितंबर 1990 में नवभारत टाइम्स, लखनऊ के हमारे साथी पत्रकार गोविंद पंत राजू ने भी अपने चंद साथियों के साथ इस कठिन मार्ग को सफलतापूर्वक पार किया था। उन्होंने लखनऊ लौटकर एक छोटी सी स्मारिका प्रकाशित की थी जिसमें इस दुर्गम हिमालयी यात्रा के अनुभव लिखे और कालिंदीखाल के कुछ रंगीन चित्र हाथ से चिपकाकर दिए थे।यह रोमांचक इतिहास को किताब और भी पठनीय व उपयोगी बनाता है। अनूप साह तथा प्रदीप पाण्डे के अतिरिक्त कुछ अन्य छायाकारों के कई रंगीन और श्वेत-श्याम चित्र यात्रा के अनुभव को जीवंत बनाने में सहायक हुए हैं।
उच्च हिमालय के दुर्गम मार्गों की यात्राएं आवश्यक उपकरणों और मौसम की पूरी जानकारी लेकर ही की जाती हैं। तो भी वहां मौसम कभी भी बिगड़ सकता है। हमारे इन तीन यात्रियों को जिस दिन कालिंदीखाल पहुंचना और आसपास डेरा डालना था, वे अचानक बारिश, हिमपात और घने कोहरे की चपेट में आ गए। ऐसा ही उनके आगे-पीछे चल रहे एक आस्ट्रियाई दल के साथ हुआ। यात्री और सहायक एक दूसरे से बिछड़ गए। लुढ़कने-फिसलने में कुछ सामान गिर गया। कुछ जान बचाने के लिए छोड़ दिया गया। कहीं मार्ग खो गयाऔर कहीं भूस्खलन ने अवरुद्ध कर दिया। कोई बर्फ में गिरा तो उठ नहीं सका। किसी के पैर हिमदंश से सुन्न हो गए। बिना खाए-पिए गीले कपड़ोंऔर छपछपाते जूतों से वे चलते रहे। वर्षों के अनुभवी सहायक भी असहाय हो गए।
शेखरदा किराए पर एक सैटेलाइट फोन साथ ले गए थे। उससे देहरादून में अधिकारियों को हालात की गम्भीरता और बचाव दल भेजने की गुहार लगाई गई। वहां से आईटीबीपी के घासतोली कैम्प को सतर्क किया गया लेकिन मौसम इतना खतरनाक हो गया था कि बचाव दल भी यात्रियों तक पहुंच न सका। यात्री गिरते-पड़ते-भटकते रहे। कभी एक-दूसरे को सहारा देते और कभी अपने हाल पर छोड़ देते। गुजरात के युवक नितेश का बदन अनूप साह और प्रदीप पांडे के हाथों में ही अकड़कर लुढ़क गया। मृत्यु की परियां सबके ऊपर नाचने लगी थीं। अंधेरा होने और भूस्खलन के कारण भटक जाने पर हमारे तीनों यात्री एक बड़ी चट्टान की आड़ में बैठ गए। अनूप साह के पर्वतारोहण के अनुभव काम आए कि किसी को सोने नहीं दिया। वहां नींद का मतलब मौत की नींद होता। एक-दूसरे की मालिश करके ऊर्जा बटोरते हुए, अंत्याक्षरी खेलते और गीत गाते हुए रात बिताई गई। मृत्यु आसपास नाच रही थी लेकिन तीनों के जीवट से हारकर चली गई। सुबह हुई तो जैसे पुनर्जन्म हुआ। परंतु सभी इतने भाग्यशाली नहीं थे। इस दल के दो सहायक और ऑस्ट्रियाई दल के चार लोगों के प्राण वहीं छूट गए। दूसरे दिन बहुत खोजने के बाद उनकी देह मिलीं।
मौत से मुलाकात का यह किस्सा शेखरदा ने बड़े संयम, संतुलन किंतु विकल कर देने वाली भाषा-शैली में लिखा है, जिसे पढ़ते हुए कंपकंपी छूट जाती हैऔर पसीना आने लगता हैद “मौत हमारे आसपास मंडरा रही थी। वह किसी को भी दबोच सकती थी। यहां आज उसी का राज था। हमारे शरीर लगातार हिमांक के पास थे और हमारे मन-मस्तिष्कों में भावनाओं का उबाल क्वथनांक से ऊपर पहुंच रहा था।” वह आतंक और सनसनी पुस्तक पढ़कर ही समझे जा सकते हैं।
शेखरदा लिखते हैं कि उच्च हिमालय की यात्राओं में उन्हें अजीब तरह के सपने आते हैं। कालिंदीखाल यात्रा के पड़ावों में भी उन्हें कुछ विचित्र सपने आए, जिनका वर्णन उन्होंने बड़ी खूबी के साथ किया है। उन पर चर्चा फिर कभी क्योंकि सपना होकर भी हमारे वर्तमान का वे बहुत कुछ बयां करते हैं।
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