कमलेश जोशी
जो अब कानून बन चुका है किस तरह किसान विरोधी है और किस तरह किसान को कॉर्पोरेट का गुलाम बनाने और इस बिल के माध्यम से पूँजीपतियों की जेब भरने का खेल खेला जा रहा है इस बात को अगर समझना हो तो सबसे पहले जियो की केस स्टडी कीजिये.
जियो के आने से पहले संचार बाजार में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चल रही थी और एयरटेल, आइडिया, वोडाफोन, बीएसएनएल आदि नेटवर्क आपस में प्रतिस्पर्धा बनाए हुए थे जिस वजह से उपभोक्ताओं को न सिर्फ सस्ते ऑफर मिल रहे थे बल्कि लाइफ टाइम वेलिडिटी टाइप के ऑफर भी सिम के साथ दिये जा रहे थे. इस समय तक आपको तब तक रिचार्ज की जरूरत तो नहीं पड़ती थी जब तक आपको आउट गोइंग कॉल न करनी हो. लाइफ टाइम वैलिडिटी के चलते कमोबेश इनकमिंग फ्री थी. आप अपनी जरूरत व सुविधानुसार कॉलिंग या डेटा पैक रिचार्ज करवा लिया करते थे. उस पर भी आप पर इस तरह कि कोई जोर जबरदस्ती या मैसेज पर मैसेज भेज कर दबाव बनाने की कोशिश नहीं की जाती थी कि आपका रिचार्ज पैक खत्म होने को है जल्द से जल्द रिचार्ज करें.
जियो ने ग्राहकों की मोबाइल संबंधी आदतों और मोबाइल कंपनियों की कमजोरियों का गहन अध्ययन किया और नोटबंदी से ठीक पहले जियो लाँच कर दिया जिसकी ओपनिंग स्पीच में अंबानी ने कहा कि वह इस देश के हर व्यक्ति तक फ्री इंटरनेट और कॉलिंग पहुँचाना चाहते हैं. उन्होंने लगभग वादा करते हुए कहा कि वह देश को सबसे सस्ती कॉलिंग सुविधा व इंटरनेट डेटा उपलब्ध करवाएँगे और लॉंच के 6 महीने तक कॉल व डेटा फ्री दिया जाएगा. बाजार की भाषा में किसी उत्पाद या सर्विस को बहुत कम दाम में या फ्री में लॉंच करने को मार्केट पेनेट्रेशन कहते है. इस तरह लॉंच के साथ ही एक झटके में जियो ने सारे प्रतिद्वंद्वियों को बाजार से बाहर कर दिया और यहॉं से कॉलिंग और इंटरनेट की लत लोगों को लगाए जाने की शुरूआत हुई. देखते ही देखते जीयो के यूजर्स 2018 तक 30 करोड़ से ज़्यादा हो गए. फ़्री के इस खेल में एयरटेल, वोडाफोन और बीएसएनएल औंधे मुँह गिर पड़े और हर तिमाही घाटे की बैलेंसशीट के साथ बाजार छोड़ने की मजबूरी दिखाने लगे.
लगभग एक साल तक जियो ने लोगों को फ्री कॉलिंग और डेटा की ऐसी लत लगाई कि एयरटेल जैसा बड़ा नाम अपने मोबाइल टावर व नेटवर्क मेंटेन करने के पैसे जुटाने में असमर्थ दिखने लगा. वोडाफोन ने बढ़ते हुए घाटे को देखते हुए भारतीय बाजार छोड़ने की धमकी दे दी और अंत में खुद के सर्वाइवल के लिए आइडिया के साथ टाइ-अप कर लिया. बीएसएनएल की दुर्दशा तो ऐसी हुई कि वह अपने कर्मचारियों की सैलरी तक चुकाने में असमर्थता दिखाने लगा और कई कर्मचारियों को समय से पहले ही वीआरएस दे दिया गया. इस बीच जियो ने बाजार में अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया. प्रतिस्पर्धियों की खस्ता हालत देख जीयो ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और फ्री कॉलिंग को समाप्त कर मिनिमम चार्ज लेने का सिलसिला शुरू हुआ. शुरूआत जियो की प्राइम मेंबरशिप का चार्ज लेने से हुई.
समय बीतने के साथ ही दूसरे नेटवर्क इतनी बुरी हालत में पहुँच गए कि जियो ने ग्राहकों से वसूली शुरू कर दी. लगभग 149 के रिचार्ज से शुरू होता हुआ जियो का रिचार्ज कॉमन ग्राहक के लिए 399 रूपये पहुँचा और आज की तारीख में 84 दिन का रिचार्ज पैक 599 का हो चुका है. उस पर भी अन्य नेटवर्क पर बात करने के लिए चुनिंदा मिनट दिये जाते हैं जिनके समाप्त होने के बाद ग्राहक को पुन: एक टॉप-अप रिचार्ज करवाना पड़ता है. इस तरह ग्राहकों को फ्री का सपना दिखा कर जियो ने बाजार में एकाधिकार स्थापित किया और बाकी सारे नेटवर्क को बाजार से लगभग बाहर कर आज उन्हीं ग्राहकों से पैसे की वसूली कर रहा है जिन्हें डेटा और कॉलिंग सबसे सस्ती देने का सपना दिखाया गया था. शुरूआत में बेहतरीन सर्विस व हाई स्पीड इंटरनेट की सुविधा देने वाले जियो का आज कई जगह इतना बुरा हाल है कि न तो ग्राहक जियो के साथ ही रहना चाहते हैं और ना ही खस्ताहाल अन्य नेटवर्कों के साथ जा सकते हैं.
कमोबेश कुछ ऐसा ही है कृषि संसोधन बिल जिसमें किसानों को सपने दिखाए जा रहे हैं कि उन्हें एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) मिलेगा और एपीएमसी मंडियों के इतर वह अपना माल देश भर में कहीं भी बेच सकेंगे. माल देश भर में कहीं भी बेचने पर पहले भी कोई पाबंदी नहीं थी और बात एमएसपी की करें तो देश के सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी मिल पाता है. किसानों को डर है कि सरकारी मंडियों को खत्म कर दिया जाएगा लेकिन सरकार कहती है कि सरकारी मंडियाँ बनी रहेंगी. चलिए मान लीजिए फिलहाल सरकारी मंडियाँ बनी रहेंगी लेकिन साथ ही साथ बाजार में पूँजीपति भी प्राइवेट मंडियों के साथ उतर आएंगे. इसके साथ ही शुरू होगा कृषि के क्षेत्र में जियो जैसा कारोबार. शुरूआत में किसानों को रिझाने के लिए पूँजीपति जेब से पैसा लगाकर, घाटा उठाकर किसानों को अनाज का दाम सरकारी मंडी से ज़्यादा देंगे. मंडियों में किसानों की खूब आवभगत होगी. उन्हें एयर कंडीशंड कमरों में बैठाया जाएगा और इस तरह किसान सरकारी मंडी को छोड़ प्राइवेट मंडी का रुख करने लगेगा. सरकारी मंडियों में माल कम आएगा और सरकारें वोडाफोन और आइडिया की तरह मंडियों का कारोबार ठप होने के कारण घाटा होने का रोना रोने लगेंगी. धीरे-धीरे घाटे का हवाला देकर सरकारी मंडियों को बंद करने का सिलसिला चालू होगा और जिस दिन प्राइवेट मंडियों का बाजार में एकाधिकार हो जाएगा वो जियो की तरह अपना रंग दिखाना चालू करेंगी.
सरकार के बिल में कहीं भी एमएसपी को लीगल या कानून बनाने की बात नहीं की गई है. यह सिर्फ मुँह से दिया जाने वाला एक आश्वासन भर है. फसल बाजार में पूँजीपतियों का एकाधिकार उन्हें फसलों का रेट तय करने और जमाखोरी की छूट देगा जिसके बाद किसान अपनी फसल को पूँजीपतियों के द्वारा तय किये गए मनमाने दामों के हिसाब से बेचने पर मजबूर होंगे. साथ ही पूँजीपतियों की मनमानी और दो पक्षों के बीच संघर्ष की सुनवाई किसी कोर्ट में न होकर एसडीएम या डीएम के समक्ष होगी जो सरकार की निगरानी में काम करते हैं न कि एक स्वतंत्र इकाई के रूप में. इसी तरह कान्ट्रेक्ट फार्मिंग का बिल भी किसानों को पूँजीपतियों का बंधुआ मजदूर बनाने जैसा ही है. कृषि क्षेत्र में प्राइवेट मंडियों की एंट्री किसानों की स्वतंत्रता छीनने से ज़्यादा कुछ नहीं है. किसान पिछली तमाम सरकारों से अपनी खुशहाली का सिर्फ आश्वासन पाते रहे हैं लेकिन असल में ये आश्वासन हर बार चुनावी जुमला ही साबित हुआ है. इस बार किसान अपनी बदहाली और सरकारों के झूठे आश्वासनों से ऊपर उठकर खुद की लड़ाई के लिए सड़कों पर उतर आए हैं.
सरकार को उन तमाम किसान संगठनों से बात करनी चाहिये जो कृषि संसोधन बिलों के खिलाफ लामबंद हैं. एमएसपी को लीगल किया जाना चाहिये ताकि किसान फसल के लिए मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर आश्वस्त रहें. किसानों को विश्वास में लिया जाना बहुत जरूरी है अन्यथा इस देश में प्याज के बढ़ते दामों पर सरकार गिर जाती है फिर कृषि संसोधन बिल के खिलाफ तो किसान सड़कों पर ही उतर आए हैं.