भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी
दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के पूर्व प्रोफेसर जी एन साईबाबा, जो अभी महज़ 50 वर्ष के थे, ने 12 अक्टूबर ओ हैदराबाद में अपनी अन्तिम सांस ली। यूएपीए के फ़र्ज़ी मुक़द्दमें में पिछले 10 वर्षों तक गैर-क़ानूनी रूप से सज़ा काट कर रिहा होने के बाद प्रोफ़ेसर साईबाबा लगातार स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से जूझ रहे थे।
वे मानवाधिकारों के समर्थक थे और उन्होंने ताउम्र कई जनान्दोलनों में सक्रिय भूमिका निभायी जिसमें 1993 में राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के लिये 35 दिन लम्बी चली भूख हड़ताल, आदिवासियों के अधिकारों के लिये संघर्ष, ऑपरेशन ‘ग्रीन हंट’ का विरोध, मुम्बई प्रतिरोध 2004 प्रमुख रूप से शामिल हैं। वे एक बेहतरीन शिक्षक थे और आकादमिक जगत में सराहनीय थे।
प्रोफ़ेसर साईबाबा उसी फ़ासीवादी दमनकारी राज्यसत्ता के शिकार हुए जो आज भारत के नागरिकों पर अपना कहर बरपा रही है और अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ का गला घोंट देना चाहती है। साईबाबा 90 फ़ीसदी विकलांग थे और उन्हें जेल में न सिर्फ़ स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रखा गया बल्कि कई बार तो उन्हें खाना और पानी तक नहीं दिया जाता था क्योंकि इस उदाहरण से मोदी-शाह के नेतृत्व वाली फ़ासीवादी सरकार अन्याय के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज़ को “सबक सिखाना” चाहती थी। जेल से रिहा होने के बाद यह पता चला कि उनके शरीर के कई अंगों ने पूरी तरह से काम करना बन्द कर दिया था। आए दिन राम-रहीम जैसे बलात्कारियों, अपराधियों को पैरोल देने को तत्पर राज्यसत्ता ने प्रोफ़ेसर साईबाबा को उनकी बीमार माँ तक से मिलने के लिये पैरोल की मंजूरी नहीं दी।
जेल में रहते हुए उन्होंने इस दमनकारी व्यवस्था और उसके न्यायतन्त्र की वास्तविकता को उजागर करते हुए कई क्रान्तिकारी कवितायें लिखीं।
प्रोफ़ेसर जी एन साईबाबा की समय से पहले हुई मृत्यु एक संस्थागत हत्या है जो इस बात की याददिहानी है की आज मानव अधिकार, नागरिक अधिकार, जनवादी अधिकार क़ानूनी किताबों में पढ़ाये जाने वाले खोखले शब्द मात्र बन चुके हैं।