हरीश जोशी
पिछले तीन दिनों में पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड के निवासी किशोरवय प्रदीप की नोएडा की सड़कों में दौड़ ने मीडिया और सोशल मीडिया को एक नया मसाला परोस दिया है। जीविकोपार्जन की दौड़ में प्रदीप की इस अभ्यासी दौड़ ने न केवल प्रदीप को बल्कि इस पूरे कथानक से जुड़े कई लोगों को लाइम लाइट में ला दिया है।प्रदीप की इस दौड़ के बहाने असंख्य यक्ष प्रश्नों की एक लंबी फेरहिस्त है जिन्हें समझा जाना बहुत जरूरी है।
ऐसा नहीं है कि एक अकेला ये ही प्रदीप नहीं दौड़ रहा है बल्कि सेना,पुलिस व अन्य भर्ती परीक्षाओं में शारीरिक दक्षता परीक्षाओं से जूझने के लिये उत्तराखण्ड की शायद ही कोई सड़कें, बंजर खेतों और धार-धुरों में युवाओं द्वारा बनाये गये स्वनिर्मित मैदान अछूते होंगे जहाँ पर देर रात और सुबह मुँह अंधेरे ही असंख्य प्रदीप सैन्य भर्ती के लिये जोर आजमाइश करते हुए देखे जा सकते हैं।वस्तुतः पहाड़ में पहाड़ जैसा ही दुष्कर जीवन है परन्तु पहाड़ को इस आलोक में कभी समझा ही नहीं गया यदि समझा गया होता तो पहाड़ की परिस्थिति विशेष के आंदोलन बीजों से उपजे इस राज्य में सफेदपोशों की मेहरबानी से 22 सालों के भीतर पाँच विधानसभाओं के लिये 12 मुख्यमंत्री नहीं देखे गये होते।पहाड़ के जिन मुद्दों को सुलझाने की नींव पर राज्य खड़ा हुआ उसका एक बड़ा हिस्सा तो सरकारों के गिरने संभलने में ही खर्च होता जा रहा है।खैर मुद्दे अनन्त मुद्दा कथा अनन्ता।
बात प्रदीप की करें रोजगार,अच्छी जीवन शैली,पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिये दौड़ रहा पहाड़ का हर वासिन्दा वस्तुतः प्रदीप की दौड़ से कहीं भी अलग नहीं है।अलग बात है कि हर दौड़ने वाले प्रदीप तक फ़िल्मकार विनोद कापड़ी की नजर और कैमरा नहीं पहुँच पाता।संघर्ष चहुँओर है।
इतना चर्चित हो जाने के बाद लाजिमी है कि इस प्रदीप की दौड़ को मेहनत से,सहानुभूति से अथवा अनुकम्पा से शायद कोई मुकाम मिल ही जाये पर रोजमर्रा के जीवन में आपाधापी की दौड़ लगा रहे उन असंख्य प्रदीपों का क्या होगा जो दो जून की रोटी के लिये खुद ही बोझ साबित होते जा रहे हैं। जिन तक ना तो मीडिया की नजर है और ना ही नीतिकारों की।
वो तो भला हो विनोद कापड़ी का कि नोएडा की सड़कों पर दौड़ रहे इस किशोर को पहिचान दिलायी वरना नोएडा के सुविधाभोगी मीडिया के लिये ना जाने कब से दौड़ लगा रहे इस प्रदीप को खोज पाना नामुमकिन ही था।
यह तो इस देश का रिवाज ही है कि बोरवेल में गिरा कोई प्रिंस और सड़कों पर दौड़ रहा प्रदीप रातों रात सुर्खी बन जाते हैं।पर आगे की कोई स्पष्ट नीति ना तो सफेद पोशों, ना ही नीतिकारों और न ही मीडिया की ऒर से स्पष्ट हो पाती है कि कैसे इन सब मुद्दों को दिशा दी जा सके।