हिमांशु जोशी
भारत में बहुत से परिवार पोस्टपार्टम डिप्रेशन के परिणाम झेलते हैं, कई परिवार पोस्टपार्टम डिप्रेशन की वजह से टूट गए हैं। लोग इस बीमारी को समझते नही और न इस पर बात करते हैं, जिस वजह से पीड़ित महिला को इसका इलाज नही मिलता। महिलाएं दुत्कारी जाती हैं और बच्चे या खुद के लिए गलत कदम उठा लेती हैं। अमरीका में महिलाओं द्वारा अपने बच्चों की जान लेने की खबरें आम हैं, आम इसलिए क्योंकि वहां एकल परिवार अधिक हैं और भारत में अभी भी जो संयुक्त परिवार बचे हैं वहां महिलाओं को इस तरह के विचार नही आते। जैसे जैसे भारत में एकल परिवार बढ़ रहे हैं, इस बीमारी के गम्भीर असर भी दिखेंगे। महिलाओं को मां बनने से पहले एक मां होने की गम्भीरता को गम्भीरता के साथ समझने की जरूरत है , यही उसके परिवार के लिए बेहतर होगा।
जवाहर लाल नेहरू ने अपनी बेटी को साल 1928 में तीस खत लिखे थे, ये तब लिखे गए थे जब इंदिरा गांधी दस साल की थीं। एक पिता के अपनी बेटी को लिखे खत हमेशा जरूरी होते हैं, मुझे नही लगता था कि तुम जब मात्र 39 दिन की होगी तब मुझे तुम्हें पहला खत लिखने की जरूरत पड़ जाएगी।
7 अक्टूबर को जब तुम्हारे रोने की पहली आवाज मेरी मम्मी के कानों में पड़ी थी तो उन्होंने मुझे गले से लगा लिया, वो खुशी थोड़ी देर बाद तुम्हारी माँ पर आई मुसीबत की वजह से चिंता में तब्दील होने वाली थी। पोस्टपार्टम हैमरेज, जिसमें मां के नॉर्मल डिलीवरी के बाद रक्तस्राव बन्द नही होता, उसकी वजह से तुम्हारी मां कुछ दिन अस्पताल में रही। जब चार दिन बाद हम अस्पताल से घर लौटे तो बच्ची के पालन पोषण में भारतीय समाज में आने वाली चुनौतियां, मेरे सामने खड़ी थी।
कुछ दिनों बाद तुम्हारी मां के व्यवहार में बदलाव नजर आने लगा था। तुम्हारी मां तुमसे दूर जाने लगी थी, आत्महत्या की बात करती, भूलने ज्यादा लगी थी, मुझपर विश्वास नही करती थी। मुझे ये लक्षण कुछ अजीब लगे और इस बारे में मैंने इंटरनेट खंगाला तो बेबी ब्लूज़ और पोस्टपार्टम डिप्रेशन के बारे में जानकारी मिली। यह सब मेरे लिए नया था, तुम्हें सम्भालने की चुनौती भी और तुम्हारी मां को भी। नवजात शिशु थोड़ी देर भीगे कपड़ों में रहे, भूखी रही तो सीधे उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। एक दिन सांस लेने में थोड़ी आवाज आने पर ही मम्मी और मैं, तुम्हें लेकर अस्पताल दौड़े थे।
तुम्हारी मां की स्थिति के बारे में, मैं तुम्हारी नानी को बता चुका था और तुम्हारी मौसी भी तब घर ही थी,जब मैं तुम्हें मनोचिकित्सक के पास दिखाने लेकर गया। मौसी के साथ तुम्हारी मम्मी को मनोचिकित्सक के पास दिखाने पर दो हफ्ते की दवाई मिली और तुम्हारी मां के जल्द ठीक होने का आश्वासन भी। खैर, यह खुशी तब चले गई जब मनोचिकित्सक को दिखाने के अगले दिन ही तुम्हारी मां ने बाथरूम में फिनाइल पी लिया। यह सब तब हुआ जब तुम्हारा पहला महीना पूरा होने पर तुम्हारी मां और मैं बाजार से केक लेकर आए ही थे। मैं, तुम्हारी मां को नदी किनारे घुमा रहा था, हमेशा की तरह अच्छा खिला रहा था, हर बात समझा रहा था पर फिर भी उसने बिना सोचे यह निर्णय लिया।
उसका दिमाग, उसके बस में नही था। खैर, समय पर उल्टी कराने से तुम्हारी मां बच गई पर अब मैं भारतीय समाज की बनावट के एक ऐसे ढांचे से गुजरने वाला था,जिससे हर पुरुष बचना चाहता है। तुम्हारी मां को कुछ होता तो ससुराल पक्ष उसकी बीमारी बताने के बावजूद मुझे उसकी मृत्यु के लिए कसूरवार ठहराता। अब उनकी तरफ से मुझसे मनोचिकित्सक की पर्ची मांगी जाने लगी, कभी तुम्हें और तुम्हारी मां को अपने घर बुलाने की बात कही जाती। इन 39 दिनों में तुम्हारी मां को छोड़कर शायद ही हमारे घर में कोई सोया हो, पहले पोस्टपार्टम हैमरेज में तुम्हारी मां का जीवन बचाने की कोशिश और फिर इस डिप्रेशन से। समाज की हर समस्या पर नजर रखने और उस पर लिखने की वजह से जो हिम्मत हमेशा मुझमें रहती थी, उसी हिम्मत ने यहां मुझे मजबूत बनाया।
हां, भारत में महिलाओं पर अत्याचार ज्यादा हैं पर ससुराल पक्ष के न जाने कितने परिवार सही होने के बावजूद मेरी जैसे स्थिति से गुजरते हैं,मुझे नही पता। मैंने तुम्हें यह सब बताना इसलिए जरूरी समझा क्योंकि तुम एक लड़की हो, बिन पिता की लड़की को समाज एक अवसर समझता है। उसके अपने ही उसका शोषण कर सकते हैं। अब मां बनने की बात, एक लड़की अपनी मां से सिर्फ अपने कैरियर और शरीर को ठीक रखने की सीख सीखी हो तो उसके लिए एक शिशु की मां बनना बड़ी चुनौती है।
मुझे नही पता कि कल क्या होगा, तुम्हारी मां कब ठीक होगी। मैं कब तक अपना सारा काम छोड़ उस पर नजर रख सकूंगा! अगर सब कुछ ठीक नही रहा और तुम्हें अपनी नानी के घर रहना पड़ा तो कल मुझे कसूरवार मत ठहराना। इस बीमारी के बारे में समझना, पुरुषों पर कानून के गलत उपयोग के बारे में समझना और तुम अपनी राह खुद बनाना। ऐसी राह, जिसे तुम समझदार होते ही अपना लो। यह ऐसी राह न हो , जहां हर मां बाप अपने अनुसार, अपने बच्चों को चलाना चाहता है। जहां माता पिता फैसला लेते हैं कि मेरी बेटी क्या पढ़े, पहने, खाए, किससे शादी करे।
यह वह राह हो जहां तुम अपना सही गलत खुद समझो और मानसिक रूप से इतनी मजबूत बनो कि तुम किसी पोस्टपार्टम डिप्रेशन जैसी बीमारी की जद में न आओ।