प्रतुल जोशी
कोई भी पुत्र अपने पिता को जन्म से ही जानता है। पिता यदि एक साधारण गृहस्थ हो तो उन्हें जानना भी आसान हो सकता है लेकिन पिता ने यदि अपने जीवन में कुछ असाधारण किया होतो कई बार पिता के व्यक्तित्व के सभी पक्षों को जानना पुत्र के लिये भी सम्भव नहीं होता। ऐसे में किसी अन्य स्रोत से अपने पिता के बारे में जानने का अवसर प्राप्त होता है तो सुखद आश्चर्य हो सकता है।
कुछ ऐसे ही अनुभवों से गुज़रने का अवसर मुझे मिला जब मुझे पिछले दिनों अपने छोटे भाई के प्रकाशन संस्थान ‘नवारूण प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘शेखर जोशी: कुछ जीवन की, कुछ लेखन की’ पढ़ने का मौका मिला। कथाकार, उपन्यासकार एवं लम्बे अर्से तक हिन्दी के समाचार पत्रों में सम्पादक रहे नवीन जोशी इस पुस्तक के लेखक हैं। 09-10 सितम्बर 2023 को इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) में संपन्न ‘‘शेखर जोशी स्मृति आयोजन‘‘ में इस पुस्तक का लोकार्पण भी हुआ था। लखनऊ निवासी नवीन जी का सम्पर्क पिताजी से वरर्ष 1979 से प्रारम्भ हुआ था, जब आप लखनऊ में कुमाउंनी संस्कृति के उन्नयन के लिये बनी एक संस्था ‘आंखर’ के सक्रिय सदस्य थे एवं पिताजी की कहानी ‘दाज्यू’ के मंचन के लिये आपने एक औपचारिक पत्र भेजा था। ‘दाज्यू’ समेत चार कहानियों का मंचन देवेन्द्र राज अंकुर जी के निर्देशन में 1981 में लखनऊ में हुआ था। वर्ष1979 से स्थापित सम्पर्क में प्रगाढ़ता तब आई जब 1992 से मैं लखनऊ में आकाशवाणी में पदस्थ हो गया और पिताजी का लखनऊ आना-जाना काफी होने लगा। वर्ष2012 में हम लोगों की माताजी की मृत्यु के पश्चात पिताजी स्थायी रूप से हमारे परिवार के साथ लखनऊ में आकर रहने लगे। इस स्थायित्व ने नवीन जी को पिताजी के व्यक्तित्व और लेखन कर्म को बेहद नज़दीक से जानने-समझने का मौका दिया।
समीक्ष्य पुस्तक ‘शेखर जोशी: कुछ जीवन की, कुछ लेखन की’ में कुल जमा एक दर्जन अध्याय हैं। इस किताब की भूमिका भी नवीन जोशी जी ने ही लिखी है। पुस्तक का पहला अध्याय ‘परकाया प्रवेश की कुछ दक्षता मुझमें रही’, पिताजी का लम्बा साक्षात्कार है जिसे नवीन जी ने उनके देहावसान (दिनांक 04 अक्टूबर, 2022) से कुछ समय पूर्व ही पूरा किया था। इस तरह यह पिताजी का किसी भी लेखक के द्वारा लिया गया अन्तिम साक्षात्कार है। इस साक्षात्कार के माध्यम से पिताजी के बचपन से लेकर उनके साहित्यकार बनने तक की पूरी यात्रा लगभग 38 पृष्ठों में समाहित है। इस साक्षात्कार से पिताजी के साहित्य के कुछ अत्यंत अधूरे पक्षों का उद्घाटन होता है। जैसे उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘कोसी का घटवार’ की पूर्वपीठिका क्या है? पिताजी बताते हैं कि उनकी पहली कहानी ‘राजे ख़त्म हो गये’ (रचनाकाल वर्ष1951 अथवा 1952) में ही ‘कोसी का घटवार’ का बीज मौजूद था। ‘राजे ख़त्म हो गए हैं’ द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका पर आधारित कहानी है। दूसरे विश्व युद्ध का पिताजी पर गहरा प्रभाव पड़ा। जब वह मात्र 09-10 वर्ष के थे तो उन्होंने देखा कि उनके गांव के आस-पास से सैकड़ों नवजवान युद्ध के मोर्चे के लिये जाते थे। इसमें से अधिकांश युद्ध में खेत रहे। जब उन नौजवानों को उनकी मां, बहनें या पत्नियां उन्हें विदा करने जाती थीं, तो एक कारुणिक दृश्य उपस्थित हो जाता था।
‘‘जहां-जहां बस्ती थी, देखा कि फौजी जवान अपनी चुस्त वर्दी में खड़े हुये हैं, गाड़ी की प्रतीक्षा में। और, उनको विदा देने के लिये उनके परिवार की बहुत सी महिलायें भी वहां थी। पुरुष कम दिखायी देते थे। उनमें माऐं होंगी, बहनें होंगी, भाभियां होंगी, किसी-किसी की पत्नी भी होगी। जैसे ही गाड़ी आती, फौजी चट से गाड़ी के अन्दर बैठ जाता अपना सामान लेकर और जैसे ही गाड़ी चलती थी, पीछे जो रूलाई फूटती थी, इतनी दर्दनाक कि मेरे बाल मन में वह अमिट रह गयी और यह एक जगह नहीं हुआ। कई जगह इस तरह के दृश्य देखे। और, जो फौज में गये और कभी नहीं लौटे। गांवों में विधवाएं हो गयीं, बहुत से मानव-गिद्ध मंडराने लगे। वह सब मेरा प्रत्यक्ष देखा हुआ था। तो उस कहानी में मैंने एक चरित्र बुढ़िया का लिया जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। उसके पास हर महीने मनीआर्डर आ रहा है। वह भ्रम में है कि बेटा ज़िन्दा है और (वापस) आयेगा, लेकिन बेटा पता नहीं कब शहीद हो चुका है। गांव में एक मंत्री जी आये हुये हैं। उन्होंने दही खाने की इच्छा व्यक्त की। लोग दही लेने के लिये बुढ़िया के पास पहुंचे। बुढ़िया ने बड़ी खुशी से दही की हांडी उनको पकड़ाई और कहा – ‘‘मंत्री आये हैं ना, कभी राजा भी आयेगा, हैं ! और, मेरा राजा भी आयेगा।’’ तो, ये कहानी थी। जो नैरेटर है उसमें वह कहता है कि मैंने उससे (बुढ़िया से) कहा कि राजे तो खत्म हो गये हैं। एक तरह से यह कहानी मेरी प्रसिद्ध कहानी ‘कोसी का घरबार’ का बीज है। क्योंकि जो युद्ध से लौटे थे वह भी अन्दर से इतने टूटे हुये थे, अपराधग्रस्त थे कि जिससे उनको कुछ लेना-देना नहीं, उनको उन्होंने छुरा भोंक दिया, गोली मार दी, मार दिया। उनमें से कुछ शराब के नशे में अपने को भुला रहे थे। गुंसाई ऐसे ही पात्रों में से एक है।‘‘ (पृष्ठ44-45)
नवीन जी से साक्षात्कार से हासिल हुई यह जानकारी तमाम पाठकों के लिये तो नई होगी ही, मेरे और परिवार के अन्य सदस्यों के लिये भी बिल्कुल नई थी। संतोष चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘अनहद’पत्रिका के ‘शेखर जोशी विषेशांक’ में किसी लेखक ने यह जरूर रेखांकित किया था कि जहां ‘उसने कहा था’ प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका के प्रभाव से उपजी कथा है तो ‘कोसी का घटवार’ को द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव से उपजी रचना माना जा सकती है। यह साक्षात्कार इसलिये अत्यंत महत्वपूर्ण है कि यह एक लेखक के रचनाकर्म और व्यक्तित्व के उन तमाम अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करता है जिससे अधिकांश जन अनमिज्ञ थे। इसी तरह इस साक्षात्कार के माध्यम से पचास के दशक के इलाहाबाद का परिदृश्य भी पुनः जीवित हो उठता है, जब इलाहाबाद हिन्दी साहित्य की राजधानी हुआ करता था।
यहां नवीन जी के एक प्रश्न और उसके उत्तर से इस परिदृश्य को समझने में आसानी होगी:
प्रश्न: इलाहाबाद में पचास के दशक में हुये लेखक सम्मेलन के बारे में बताइये कि क्या उद्देश्य था, कितनी भागीदारी थी, उसका क्या प्रभाव पड़ा।
उत्तर: दिसम्बर, 1957 में तीन दिन का एक अखिल भारतीय अभूतपूर्व सम्मेलन हुआ था। इसका आयोजन इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखकों ने किया और बनारस से आयोजन समिति में जुड़े डॉ0 नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह। इसमें जिन लेखकों को आमंत्रित किया गया था उनको यह सूचित कर दिया गया था कि हम आपके आवास की व्यवस्था नहीं कर पायेंगे। भोजन की व्यवस्था अवश्य हम करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने खर्चे पर अपने आवास की व्यवस्था करके, मित्रों के यहां, इधर-उधर, सम्मिलित हुये थे। तब नये कवि के रूप में श्रीकान्त वर्मा, मुक्तिबोध जी के साथ आये थे। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह और बनारस से बहुत से नये विद्यार्थी और साहित्य में रूचि रखने वाले शामिल थे। सम्मेलन का उद्घाटन ऐनी बेसेंट हॉल में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया था, पहले दिन। उसके बाद संगीत समिति के विभिन्न कक्षों में विभिन्न विधाओं के रचनाकारों की बैठकें हुयीं थीं। जैसे, कहानी विधा पर गोष्ठी की अध्यक्षता यशपाल जी ने की थी। कवियोंकी गोष्ठी अलग हुयी थी। नाटक वालों की गोष्ठी अलग हुयी, आलोचना वालों की अलग। इसके प्रमुख सूत्रधार अमृत राय थे।” (पृष्ठ37-38)
नवीन जोशी और पिताजी के लेखन और व्यक्तित्व में कई स्तरों पर समानता भी रही है। दोनों ने अपना बचपन पहाड़ में बिताया और विस्थापित होकर उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों में अधिकांश जीवन बिताया। जहां नवीन जी पहाड़ में अपने गांव से निकलकर लखनऊ आये और फिर लखनऊ के होकर रह गये। (यद्यपि नौकरी के चलते कानपुर और पटना में भी कुछ समय बिताया)। पिताजी अपने ‘ओलिया गांव‘ से 10-11 वर्ष की आयु में निकले तो फिर केकड़ी (राजस्थान), देहरादून, दिल्ली होते हुये इलाहाबाद में वर्ष1955 से 2012 तक रहे। दोनों ने ही पहाड़ को आधार बनाकर बहुत सी साहित्यिक रचनायें सृजित कीं। पिताजी ने जहां एक ओर कहानियों, कविताओं, संस्मरण और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में टिप्पणियों के माध्यम से पहाड़ (यानी कुमाऊँ) को अभिव्यक्ति दी, नवीन जी ने कहानियों के अलावा अपने तीन उपन्यासों की आधार भूमि पहाड़ को बनाया- ‘‘दावानल‘‘, ‘‘टिकटशुदा रूक्का‘‘ और ‘‘देवभूमि डवलपर्स‘‘। इसलिये दोनों को अपने हिस्से का पहाड़ बार-बार याद आता रहा। इस के चलते ही समीक्ष्य पुस्तक के बहुत से लेखों का विषय पिताजी की पहाड़ केन्द्रित रचनायें हैं।
पुस्तक का तीसरा लेख ‘‘पहाड़ का खुरदरा यथार्थ और सौन्दर्य‘‘ में नवीन जी न सिर्फ पिताजी की कहानियों में वर्णित पहाड़ का ज़िक्र करते हैं, परन्तु जनवरी, 2021 में नवारुण प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘मेरा ओलिया गांव‘ के कई प्रसंगों को एवं वर्ष2019 में प्रकाशित उनके कविता संग्रह ‘‘पार्वती‘‘ को भी अपनी लेखनी का विषय बनाते हैं। वह लिखते हैं “शेखर जी ने उत्तराखण्ड के अपने ओलियागाँव (जिला-अलमोड़ा) में बचपन के जो दिन बिताये उनकी गहन स्मृति मेरा ओलियागाँव के गद्य एवं पार्वती की कविताओं में तरह-तरह से गूंजती है। इनमें दुलारे गाय-बैल-बकरियों की याद है, उनके लिये घास का पहाड़ उठाकर लाती स्त्रियाँ हैं, घर में देर से छूटे शिशु की याद कर जिनके स्तनों से दूध रिसने लगता है, ओखल में धान कूटती युवतियों का नृत्य है, खेतों में हुड़के की ताल एवं सुरीले गीतों के बीच धान रूपाई के दृश्य हैं और वह ‘बाखली‘ (मकानों की लम्बी कतार) है जहाँ जीवन का हर कार्य व्यापार सबका साझा हुआ करता था।‘‘ (पृष्ठ63-64)
इस आलेख में नवीन जी पिताजी की पहाड़ से जुड़ी कहानियों पर चर्चा करते हुये टिप्पणी करते हैं ‘‘शेखर जोशी की रचनाओं में पहाड़ का प्राकृतिक सौन्दर्य, हिमाच्छादित शिख़र, विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती घाटियाँ, कल-कल बहती नदियाँ, बुरांश के फूलों से दुल्हन की तरह सजी पहाड़ियाँ, आदि-आदि खोजे से भी नहीं मिलते जो कि पहाड़ के अन्य रचनाकारों के लेखन में बहुतायत से आते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि वह विवरणों के विस्तार में नहीं भटकते। अक्सर तो विवरण में ही नहीं जाते। उनका लेखन बहुत सधा हुआ होता है, विशेष रूप से कहानियाँ। उनमें अनावश्यक कुछ नहीं मिलता। वे चुनिन्दा शब्दों और प्रसंगों का बहुत सोच-समझकर उपयोग करते हैं। बुरांश के फूल की रंगत या काफल के रस या हिमशिखरों की धूप-छांव में पाठक को भटकाये बिना वे उनका उतना ही दर्शन कराते हैं जितना कथा में ज़रूरी समझते हैं। दूसरा कारण बड़ा और अधिक महत्वपूर्ण दिखता है। वे पहाड़ के जिस पक्ष को कहानियों का विषय बनाते हैं, उसमें प्राकृतिक सौन्दर्य और पर्यटकीय रोमान की जगह ही नहीं होती। ‘बोझ‘, ‘व्यतीत‘, ‘कोसी का घटवार‘, ‘कथा-व्यथा‘, ‘रास्ते‘, ‘बिरादरी‘, ‘रंगरूट‘, ‘हलवाहा‘, ‘समर्पण‘, ‘गलता लोहा‘, ‘तर्पण‘, ‘देबिया‘, ‘गोपुली बुबु‘, ‘सिनारियो‘ जैसी कहानियों में पहाड़ का अतुलनीय सौन्दर्य कहाँ अटाए? ये सभी कथाएँ पहाड़ी आम जन के रोज़मर्रा के सुख-दुख, संघर्षरिश्तों की मिठास-खटास एवं उधेड़बुन, जाति दमन, दम्भ एवं वर्चस्व को चुनौती देती स्थितियों, पलायन, गरीबी, लाचारी, अलाभकारी खेती के संकट आदि स्थितियों का प्रभावशाली चित्रण करती हैं। इनमें ‘नायिकाएँ‘ हैं पर श्रम-श्लथ, उपेक्षित या स्थितियों से टूटी हुयी तथा यथासम्भव लड़ती हुयी। ‘नायक‘ हैं, हालात से जूझते या समर्पण करते, बोझा ढोते, जैसे तैसे रिश्ते निभाते, परदेस भागते…। छोटे-छोटे सुख भी हैं। हास्य रस भी है और जीवट भी लेकिन हिम शिखरों पर सूर्योदय और सूर्यास्त का अनुपम-अनिर्वचनीय सौन्दर्य इस जीवन को रंगीन नहीं बना पाता।‘ (पृष्ठ70-71)
बहुत सारी कवितायें लिखने के बावजूद पिताजी का कथाकार पक्ष ही अधिकांश समय, आलोचकों और समीक्षकों द्वारा चर्चा में आया। ऐसा प्रायः अधिकांश रचनाकारों के साथ होता है कि जब उनकी कुछ चुनिंदा रचनायें, पाठकों के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हो जाती हैं, या बाजार की भाषा में कहें ‘‘ब्रांड‘‘ बन जाती हैं तो रचनाकार की अन्य रचनाओं पर अपेक्षाकृत बहुत कम या न्यूनतम चर्चा होती है। मैंने पिताजी पर लिखे अधिकांश लेखों में उनकी आठ-दस कहानियों पर ही चर्चा पढ़ी। इसमें प्रमुख रहीं हैं ‘‘कोसी का घटवार‘‘, ‘‘दाज्यू‘‘, ‘‘बदबू‘‘, ‘‘उस्ताद‘‘, ‘‘नौरंगी बीमार हैं‘‘, ‘‘आशीर्वचन‘‘ आदि। बोर्ड की ग्यारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में लगने के कारण ‘‘गलता लोहा‘‘ को भी काफी लोकप्रियता मिली है। पिताजी की कविताओं पर आलोचकों समीक्षकों का ध्यान बहुत कम गया है। लेकिन नवीन जी की पैनी दृष्टि (जो उन्होंने पत्रकारिता में चार दशक सक्रिय रहने के चलते अर्जित की है), पिताजी के कवि पक्ष को भी पूरी गंभीरता से सामने लाती है। ‘‘पार्वती‘‘ कविता संग्रह में पहाड़ से जुड़ी कविताओं का ज़िक्र करते हुये आप लिखते हैं: ‘‘मेरा ओलियागांव‘‘ की खूबी यह है कि वह अनावश्यक रोमान, अतीतमोह और नराई में नहीं ले जाती। उसमेंशेखर जी की कहानियों की तरह वस्तुनिष्ठता मिलती है। ‘‘पार्वती‘‘ में शामिल स्मृति सम्बन्धित कवितायें अवश्य मन को भिगो जाती हैं। ‘देवी का मन‘, ‘मातृहीन‘, ‘ओखल नृत्य‘, ‘मितवा‘, ‘धान रोपाई‘, ‘स्मृति में रहें वे‘, ‘पहली वर्षा के बाद‘, ‘नदी किनारे‘, ‘ग्रीष्मावसान‘, ‘विदा की बेला‘, ‘मुझे अपने में समेटे‘, ‘नैनीताल के प्रति‘, ‘प्रवासी का स्वप्न‘, ‘घंटियों का सरगम‘, ‘द्विज‘, ‘पहाड़ों की बर्फ‘ और ‘बाखईवाला गांव‘ शीर्षक कवितायें यादों से भीगी-भीगी हैं। (पृश्ठ 73)
अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में पिताजी का अपनी मातृभाषा यानी कुमाउंनी बोली के लिये विशेष लगाव रहा और इस प्रक्रिया के निकटस्थ साक्षी रहे नवीन जी। नवीन जी से अपनी घनिष्ठता के कारण ही पिताजी ने मृत्युपूर्व लिखी अपनी वसीयत में अपनी एक ख्वाहिश यह भी लिखी थी कि उनकी कुमाउंनी रचनाओं के प्रकाशन का दायित्व नवीन जी का होगा। अपने ‘मन की बात‘ में पिताजी लिखकर गये ‘मूल कुमाउंनी‘ में लिखी हुयी रचनायें श्री नवीन जोशी के पास सुरक्षित हैं। शब्दचित्र, आलेख, क्वीड़ और कविताओं का यदि एक संकलन ‘पहाड़‘ संस्था (नैनीताल) और डा. बी. के जोशी द्वारा स्थापित ‘दून लाइब्रेरी एवं रिसर्च सेंटर‘ (देहरादून) की ओर से प्रकाशित हो सके तो उसे स्कूल-कॉलेज की लाइब्रेरी में निःशुल्क वितरित कर दिया जाये।इस निमित्त पिताजी ने अपनी सीमित पेंशन से जो धनराशि बैंक में जमा की उसमें से पच्चीस हजार रूपये का प्रावधान पुस्तिका छपाने के लिये कर गये (पृष्ठ-118)।
इन सारे प्रसंगों को नवीन जी ने आलेख ‘‘अपनी दुदबोलि में‘‘ विस्तार से वर्णित किया है। कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं:- “शुरूआती दौर में उन्होंने अपनी हिन्दी कथाओं एवं अन्य रचनाओं का कुमाउंनी में अनुवाद करके प्रकाशनार्थ भेजे। कुमाउंनी में मौलिक बहुत कम लिखा। वैसे भी वे बहुत कम लिखते थे। 2012 में पत्नी के निधन के बाद वे भीतर से बहुत टूट गये थे और साल भर तक उन्होंने क़लम भी न उठायी। फिर लिखना षुरू किया तो कुमाउंनी से ही। सितम्बर, 2014 में ‘दुदबोलि‘ सम्पादक मथुरादत्त मठपाल जी को कुमाउंनी में लिखे पत्र में उन्होंने बताया था-23 अक्तूबर, 2012 को मेरी घरवाली जाती रही। तब से साल भर तक मेरा क़लम उठाने का मन ही नहीं हुआ। फिर मैंने सोचा ये तो ठीक नहीं, कुछ लिखना चाहिए। तब मेरी दुदबोलि ने मुझे सहारा दिया और लिखने में मन लगने लगा। इस पत्र के साथ उन्होंने दुदबोलि में प्रकाशनार्थ आठ कुमाउंनी ‘क्वीड़‘ (रोचक किस्से व गप्प) लिखकर भेजे थे। तब से कुमाउंनी में वे अधिक लिखने लगे। उनका ‘अधिक‘ भी बहुत कम और चुनिंदा होता था। इन क्वीड़ों में कुमाउंनी समाज, उसकी बोली की समृद्ध शब्द सम्पदा, अभिव्यक्ति सामर्थ्य, वक्रोक्ति, व्यंजना, लाक्षणिकता, कहावतों, मुहावरों के अलावा आधुनिकता से उपजी विडम्बनाएँ भी सामने आती हैं। इनमें अद्भुत कथारस होता है। वे कहते भी थे कि अपनी कहानियों के शिल्प और भाषा के लिये मैंने कुमाउंनी बोल-चाल से बहुत कुछ ग्रहण किया है, हालांकि लेखन में वे कुमाउंनी बोली की लटक और स्थानीय शब्दों की अनावश्यक घालमेल के हिमायती नहीं थे।‘ (पृष्ठ110-111)
यदि कोई व्यक्ति, किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन के अधिकांश पक्षों से परिचित हो और फिर उन पक्षों को किताब की शक्ल में सामने ला दे तो ऐसे व्यक्ति को ‘‘जीवनी लेखक‘‘ (अंग्रेजी में बायोग्राफर) कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिताजी अपने अत्यंत संकोची स्वभाव के चलते बहुत सी बातें हम बच्चों से साझा नहीं करते थे लेकिन नवीन जी से उनका स्नेह और विश्वास ऐसा था कि अपनी निजी जिन्दगी की बहुत सी बातें बताने में नहीं हिचकते थे। वर्ष2012 के बाद लखनऊ प्रवास में उन्होंने नवीन जी से जो अपने ढ़ेर सारे निजी प्रसंग बताये।उसको आधार बनाकर नवीन जी ने पुस्तक के दो अध्याय ‘‘जीवन और साहित्य में चन्द्रकला‘‘ और ‘‘टंडन जी का हाता, 100 लूकरगंज‘‘ लिखे हैं। हमारी माताजी (स्व0 चन्द्रकला जोशी) और पिताजी का वैवाहिक जीवन का साथ मात्र बावन वर्षों का था (जनवरी, 1960-अक्तूबर, 2012) । लेकिन हमारे घर में समीकरण कुछ अलग तरीके के थे। माता-पिता ने अपने बचपन का कुछ समय साथ-साथ गुजारा था। कुछ ऐसा संयोग था कि अजमेर से कुछ किलोमीटर दूर केकड़ी नामक स्थान में हमारे पिताजी के मामाजी (स्व. जगन्नाथ शास्त्री) एवं हमारे पिताजी के भावी श्वसुर (भगवान वल्लभ पंत) यानी हमारे नानाजी मकान में साथ-साथ रहते थे। दोनों वहां अध्यापक थे एवं उनको अध्यापकी का मौका दिया था प्रसिद्ध साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी जी के पिताजी प्रेम वल्लभ जोशी ने जो अजमेर में शिक्षा विभाग में एक ऊँचे ओहदे पर थे। पिताजी के मामाजी निःसंतान थे और भगवान वल्लभ पंत जी का भरा-पूरा परिवार था।
हमारी दादीजी की मृत्यु तब हो गयी, जब पिताजी लगभग 10 वर्ष के रहे होंगे। गांव में पढ़ाई की समुचित व्यवस्था न होने के चलते पिताजी अपने मामाजी के पास पढ़ने केकड़ी चले गये। नानाजी और हमारे पिताजी के मामाजी का घर एक था। एक ही रसोई थी। पिताजी कुल जमा चार वर्ष केकड़ी में रहे होंगे। बचपन के परिचय ने परवर्ती वर्षों में माता-पिता को जीवन साथी बना दिया। इसी तरह इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) के 100 लूकरगंज मोहल्ले में हमारे परिवार ने 50 वर्ष का समय गुजारा। नवीन जी ने अपने लेखों में पिताजी के जीवन के इन पक्षों पर भी कलम चलायी है।
पुस्तक में और भी बहुत से पठनीय लेख हैं जिससे एक लेखक के जीवन और साहित्यकर्म के अंतरंग पक्षों का पता चलता है। जैसे-‘‘जीवन और लेखन में सौन्दर्य दृष्टि‘‘, ‘‘सोद्देश्य और सार्थक लेखन पर कुछ टिप्स‘‘, ‘‘हिन्दी के अकेले डांगरीवाले‘‘। पुस्तक का अन्तिम अध्याय पिताजी के साथ नवीन जी के पत्राचार पर आधारित है। कुल 21 पत्र प्रकाशित हैं। इसमें पहला पत्र 15.07.1979 का है जो आपसी परिचय का पहला दस्तावेज़ है। आखिरी पत्र अप्रैल, 2006 का है। वर्ष2006 के बाद मोबाइल फोन आ जाने से पत्र व्यवहार का सिलसिला लगभग ख़त्म हो गया था। इस पत्राचार के बारे में नवीन जी लिखते हैं:- ‘‘ये पत्र प्रिय भाई से शुरू हुये थे और प्रिय नवीन तक शीघ्र ही आ गये थे‘‘। इन पत्रों से गुज़रते हुये उनके साथ का एक लम्बा दौर याद आता है।
नवीन जी के विभिन्न आलेखों में अपने प्रिय कथाकार-लेखक के लिये जिस तरह की आत्मीयता दिखती है, उसने मुझे बेहद प्रभावित किया। आत्मीयता के साथ शोध का जो सम्मिश्रण है, वह ऐसे साहित्यकार से ही सम्भव है जो जीवन भर कलम से जूझता रहा हो। चूँकि नवीन जी ने चार दशकों का समय पत्रकारिता को दिया है, और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आप शिखर पर रहे हें, इसलिये लेखन में यह विशिष्टता सम्भव हो सकी है। यह किताब लेखक के परिवार के सदस्यों के लिये ही एक उपहार की तरह नहीं है, बल्कि उन पाठकों के लिये भी एक अमूल्य निधि है जो हिन्दी साहित्य के क्रमिक विकास में रूचि रखते हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- ‘शेखर जोशी- कुछ लेखन की, कुछ जीवन की’, प्रकाशक- नवारुण प्रकाशन, मूल्य- 260/-, सम्पर्क- 9811577426