विनीता यशस्वी
अगली सुबह जगने पर खिड़की के बाहर देखने पर धुंध की चादर में लिपटी हुई काली नदी दिखायी दी। अभी पानी कुछ कम है, इसलिये नदी के किनारे सूखे पड़े हैं जिनमें रेत और पत्थर ही बिखरे हुए हैं। नदी मुड़े हुए रिबन की तरह बह रही थी। नाश्ता करने के लिये जाते में ज्वालेश्वरी देवी का मंदिर दिख गया। इसके नजदीक जौलजीबी झूलापुल भी है, जो भारत और नेपाल को आपस में जोड़ता है। सीढ़ियां उतर कर एक संकरे से रास्ते को पार करते हुए मंदिर तक पहुंचे। मंदिर की हालत बिल्कुल भी अच्छी नहीं है। आसपास सफाई का कोई खयाल नहीं। बाहर से ही दर्शन कर हम पुल की ओर चले गये।
काली नदी के ऊपर काफी ऊँचाई में बना लगभग 160 मीटर लम्बा लोहे का यह पुल बहुत संकरा, परन्तु मजबूत है। भारतीय हिस्से की ओर बैठे पुलिस कर्मचारी ने आई कार्ड देखने के बाद हमें पुल पार कर के नेपाल जाने की इजाजत दे दी, इस हिदायत के साथ कि ज्यादा देर वहां रुकना नहीं और पुल से कोई फोटो मत लेना। हमारी पदचाप के झटकों से पुल हिल भी रहा था और इसमें हमें मजा आ रहा था। हवा में ठंडक लग रही थी और नीचे देखने पर काली नदी पतली धार जैसी दिखती थी। इस अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के खुले होने के कारण स्थानीय लोग इधर से उधर आते-जाते दिख रहे थे। कुछ व्यापार के लिये तो कुछ नौकरी के लिये। बच्चों का एक झुंड पढ़ाई के लिये भारत आ रहा था।
उस ओर नेपाल की एक पुलिस चौकी थी, जिसमें एक पुलिसकर्मी तैनात था। उसका स्वभाव भारत के सिपाही की तुलना में ज्यादा दोस्ताना था। उसने मुस्कुराते हुए हमारा स्वागत किया और बताया कि वह रहने वाला जौलजीबी के नजदीक भारत का है, मगर नौकरी नेपाल में करता है। अब परिवार महेन्द्रनगर में रहने लगा है। मेरी बहन की शादी भी भारत में ही हुई है पर उसका पति भी नेपाल में नौकरी करता है। पंचेश्वर बाँध के बारे में पूछने पर उसकी राय थी कि बांध नहीं बनना चाहिये, क्योंकि इससे बहुत कुछ डूब जायेगा। उसने बताया कि जो जमीन वाले लोग हैं, वे बांध बनने से खुश हैं परन्तु खेतीहर मजदूर इससे बिल्कुल भी खुश नहीं।
लौट कर हम नाश्ता करने एक दुकान में गये। एक महिला हमारे लिये परांठे और सब्जी बना रही थी। यहां हमारे साथ दो और साथी, खीमा दी और कवीन्द्र भाई भी जुड़ गये। ये दोनों अस्कोट के एनजीओ अर्पण में कार्यरत हैं और फील्ड वर्क में जाते रहते हैं। खीमा दी बहुत हंसमुख हैं तो कवीन्द्र भैया उतने ही शांत। दुकान में बैठे एक सज्जन ने बताया कि जौलजीबी में सरकारी इंटरमीडिएट स्कूल है जिसमें को एजुकेशन है। नेपाल से भी बच्चे पढ़ने के लिये बच्चे यहाँ आते हैं। पांचवी तक पढ़ाई के लिये शिशु मंदिर और पब्लिक स्कूल भी हैं।
खीमा दी हमें शकुन्तला दताल से मिलाने ले गयी। वे रङ जनजाति से हैं। कई सामाजिक कार्यों से जुड़ी हुई हैं और प्रदेश कांग्रेस की उपाध्यक्ष रही हैं। शकुन्तला जी बताती हैं कि पंचेश्वर बांध के बारे में स्थानीय ग्रामीणों की राय लेने कभी कोई नहीं आया। उनका कहना था कि अगर सरकार बाँध बनाना ही चाहती है तो हमें जाना ही होगा। परन्तु जमीन का मुआवजा अच्छा मिलना चाहिये। वे बताती हैं कि बांध को लेकर जनता काफी हद तक कांग्रेस और भाजपा में बंटी हुई है। शराब के बढ़ते प्रचलन से वे चिन्तित थीं। राजी जनजाति तो इस शराब के कारण खत्म होने की कगार में ही पहुंच गयी है। अब तो महिलायें भी शराब पीने लगी हैं। बांध बनने से हमारी परंपरायें बिखर जायेंगी। यहां के ज्यादा लोग व्यापार ही करते हैं, इसलिये उनके सामने कई तरह के आर्थिक संकट खड़े हो जायेंगे।
औपचारिक रूप से यात्रा शुरू करने में हमें काफी देर हो गयी थी, इसलिये हमने जोग्यूणा गांव तक टैक्सी से जाना तय किया। अब तक गर्मी भी तेज होने लगी थी। जोग्यूणा में हम खेतों में मूंगफली निकालने का काम कर रही कुछ महिलाओं से मिले। जिस पहली महिला से हमारी भेंट हुई, वे काफी बुजुर्ग थीं। अपना नाम बताने से उन्होंने सरासर इंकार कर दिया। कारण पूछने पर बताया कि जब मुझे विधवा पेंशन ही नहीं मिल रही है तो मैं नाम क्यों बताऊं! उन्हें सख्त नाराजगी थी कि इतने चक्कर लगाने और सारी औपचारिकतायें पूरी कर देने बावजूद उन्हें पेंशन मंजूर नहीं हो रही है। कुछ और महिलायें थीं, जो दूसरों के खेतों में मूंगफली निकालने आयी थीं। इन लोगों में से किसी की भी बांध के बारे में अपनी राय कुछ नहीं है। सभी या तो पतिं के भरोसे हैं या फिर बच्चों के। इनको लगता है कि पति या बच्चे जो तय करेंगे वह सही होगा। पर हां, ये लोग अपना घर-द्वार, खेती-बाड़ी छोड़ कर नहीं जाना नहीं चाहते और चाहते हैं कि यदि जाना ही पड़े तो इन्हें इससे ज्यादा अच्छी जगह बसाया जाना चाहिये। अभी इनके गांव में जरूरी आवश्यकतायें भी पूरी नहीं हो रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जरूरतों के लिये पिथौरागढ़, चम्पावत, बेरीनाग जैसे शहरों के भरोसे ही रहना पड़ता है। बच्चों को पढ़ाने के लिये बाहर भेजना होता है। खेती को लेकर बेहद निराशा है, क्योंकि खेती को सुंअर और बंदरों ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। खेती से परिवार पालना भी मुश्किल होता जा रहा है। इसीलिये लोग बाहर जाते हैं नौकरी करने के लिये।
इन महिलाओं के साथ कुछ युवा लड़के भी यहाँ मौजूद हैं। वे सब बाहर ही पढ़ाई कर रहे हैं। उनकी चाह यही है कि उनके लिये स्कूल, अस्पताल और रोजगार की व्यवस्था होनी चाहिये ताकि उन्हें कहीं और न जाना पड़े।
इन लोगों से बात कर हम आगे बगड़ीहाट गांव की ओर बढ़ गये। यहां से हमें पैदल ही चलना था, हालांकि कच्ची रोड यहां बन चुकी है। काली नदी के किनारे-किनारे पैदल चलते हुए अच्छा लग रहा है। काली के उस पार नेपाल है। काली को नेपाल में महाकाली कहते हैं। गर्मी बढ़ गई है और यह इलाका भी शुष्क है।
बगड़ीहाट पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगा। यह गाँव जोग्यूड़ा ग्राम सभा में आता है। यहां लगभग 100 परिवार हैं। खीमा दी और कवीन्द्र भाई ने कुछ लोगों को पहले से ही सूचना दी हुई थी, अतः हम लोगों के पहुंचते ही जमावड़ा लगना शुरू हो गया। हम लोग एक दुकान में जाकर बैठे तो वहीं कुछ महिलायें भी आ गयीं। हालांकि ये महिलायें काफी वाचाल हैं, पर बांध के नाम पर चुप ही रहती हैं। धीरे से कहती हैं- बांध के बारे में तो घर वाले ही तय करेंगे। हम इस बारे में क्या कहें ?
80 वर्षीय कालू राम बांध नहीं चाहते हैं। कहते हैं, बांध से विकास तो हो जायेगा पर हम लोगों के लिये तो विनाश ही है। इस तरह की जगह हमें और कहां मिलेगी। यहां तो किसी का डर नहीं है। परन्तु वे यह भी कहते हैं कि समुचित विकास न होने के कारण ही यहां से पलायन हुआ है और लोग परिवार समेत बाहर नौकरी करने गये हैं। दुकान में बैठे मनि राम और मोहन राम भी कालू राम के ही सुर में सुर मिला रहे हैं। कालू राम फिर कहते हैं- हमारे गांव में हरीश रावत और अजय टम्टा भी आये थे। उन्होंने कहा था कि वे बांध रोकने के लिये बात आगे बढ़ायेंगे। अब पता नहीं क्या हो रहा है।
महिलाओं से जब शराब के बारे में पूछा गया तो उन्होंने दबंग ढंग से अपनी बात कही- यहां शराब का बहुत चलन है। लगभग सभी पुरुष शराब पीते हैं। हमारे गांव में ही शराब की दुकान खुल गयी थी, पर गांव की महिलायें एकजुट हुई और शराब की दुकान को यहां से हटा कर जौलजीबी में खोलना पड़ा। खेती के बारे में उनका सोच भी जोग्यूड़ा की महिलाओं जैसा ही था कि सुअरों और बंदरों ने खेती बरबाद कर दी है, इसलिये लोग खेती करना नहीं चाहते। शिक्षा के नाम पर एक इंटर कॉलेज है, पर उसमें शिक्षक ही नहीं हैं। सिर्फ दसवीं क्लास तक ही बच्चे स्कूल जा पाते हैं। अस्पताल यहां से दूर तितरी में है।
ये लोग अपने ग्राम प्रधान से भी बेहद नाराज थे। उनका कहना था कि वह तो गांव में आता ही नहीं है। सिर्फ उन लोगों का ही काम करता है जिसने उसको वोट दिया है। उसने तो हमें शौचालय बनाने के लिये आया हुआ पैसा तक नहीं दिया। इन लोगों ने यह भी बताया कि मनरेगा में 2 साल से कोई पेमेंट नहीं हुआ है। इन से बात हो ही रही थी कि अपनी बाईक दनदनाता हुआ ग्राम प्रधान हाजिर हो गया। यह 38 साल का युवक राम सिंह बिष्ट है। इसने भी कहा कि बांध नहीं बनना चाहिये और अगर बनता है तो सभी परिवारों को नौकरी और 50 लाख रुपया मुआवजा मिलना चाहिये। प्रधान ने बताया कि अभी तक उससे बाँध को लेकर कोई एन.ओ.सी. नहीं मांगी गई है। ये बांध के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करने को भी तैयार हैं, परन्तु ये डर भी सता रहा है कि अगर बांध बन ही गया तो फिर ये लोग क्या करेंगे ? उसे शिकायत थी कि सरकारी योजनाओं का हमें कोई फायदा नहीं मिल रहा है।
इस बीच कुछ छात्र भी आ गये। बी.ए. प्रथम के छात्र मिलेश का कहना था कि हम टिहरी बांध का हस्र देख चुके हैं। जो लोग वहाँ से बेदखल हुए हैं, वे अभी तक कहीं जम नहीं सके हैं। पंचेश्वर बांध बना तो हम लोगों का हाल भी टिहरी जैसा ही हो जायेगा। रूबी का कहना था कि नौकरी करने के लिये तो बाहर जाना ही पड़ता है, क्योंकि गांव में तो कुछ है नहीं। शिक्षा व्यवस्था से वह खुश नहीं है, क्योंकि वह अंग्रेजी पढ़ना चाहती है, मगर अंग्रेजी की सुविधा न होने के कारण उसे पॉलिटैक्निक की पढ़ाई करनी पड़ रही है।
यहां के लोग अपनी इष्ट देवी भगवती की पूजा करने के लिये नेपाल जाते हैं। इन लोगों के नेपाल में भी संबंध हैं।
अगला गाँव तितरी एक किमी. की दूरी पर है। रास्ते में गुरना गाड़ मिली, जो फिर काली में मिल जाती है। इसके ऊपर बने पुल को पार करते हुए हम तितरी पहुँचे। यहाँ भी हम एक दुकान में ही गये, जहां कुछ लोग हमसे बात करने के लिये इकट्ठा हो गये थे। यहां पर बांध को लेकर लोगों के विचार राजनैतिक दलों के आधार पर बँटे थे। बीजेपी से जुड़े लोग चाहते हैं कि बांध बने और कांग्रेस वाले चाहते हैं कि बांध न बने। परन्तु इससे इतर जब महिलाओं की अपनी ही कहानी थी। वे यातायात की सुविधा न होने से परेशान हैं। खेतों में काम करना कठिन है और उस मेहनत के हिसाब से उसके बदले बाजार में कुछ भी नहीं मिल पाता है। जानवरों ने खेती को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। बच्चियां स्कूल न होने से परेशान हैं। स्कूल न होने के कारण वे या तो अपनी पढ़ाई छोड़ दे रही हैं या फिर उन्हें बाहर के स्कूलों में जाना पड़ता है। बाहर जाना सबके लिये सम्भव नहीं है। इन्हें बड़े-बड़े कोर्स करवाने के नाम पर बेवकूफ बनाने वालों की भी कमी नहीं है। इन बच्चों को ये समझ नहीं आ रहा है कि उन्हें किस पर भरोसा करना चाहिये और किस पर नहीं।
इन महिलाओं में से ज्यादातर यहां से जाने के लिये तैयार हैं। उन्हें लगता है कि यदि उन्हें जमीन का अच्छा मुआवजा मिल जाये और रहने के लिये दूसरी अच्छी जगह मिल जाये तो उन्हें यहां से चला जाना चाहिये। मगर कुछ अपना सब कुछ इस तरह छोड़ देने का अफसोस भी इनकी आंखों में झलकता है।
एक रेस्टोरेट में मैगी खाकर हम लोग स्यालतड़ के लिये टैक्सी से निकल गये। आगे का रास्ता हालांकि गाड़ी वाला है, पर गड्ढों से भरा है और कई जगहों पर तो बुरी तरह टूटा है। काली नदी बिल्कुल हमारे साथ-साथ चल रही है।
स्यालतड़ में हम थोड़ा ऊपर गांवों की तरफ चले गये। एक मंदिर में नवरात्रि की पूजा चल रही है। मंदिर के सामने गांव के लगभग सभी लोग इकट्ठा हैं। इसलिये काफी लोग मिल गये बातचीत करने के लिये।
बांध के बारे में तो यहां भी सबकी मिली-जुली राय है। पर बांध के अलावा जो लोगों की समस्यायें हैं वे भी सरकार तक पहुंचनी चाहिये। अस्पताल एक गंभीर मुद्दा है। इन लोगों का कहना है कि पिपली गांव तक 108 एम्बूलेंस आती है, पर यहां नहीं आती। आशा कार्यकर्ता खाली नाम मात्र के लिये ही हैं। उनके पास इंजेक्शन भी नहीं होते। गर्भवती महिला को पिथौरागढ़ ही जाना पड़ता है।
बाकी समस्यायें इनकी भी हर गाँव जैसी ही हैं……….स्कूल, अस्पताल, सड़क और खेती। इनकी इच्छा है कि सरकार इनकी समस्याओं के बारे में सुने और उचित समाधान करे। ग्राम प्रधान निर्मला देवी हैं। वे कहती हैं कि अगर उनके गांव को जमीन का उचित दाम मिला तो वे जमीन छोड़ने के लिये तैयार है। इन लोगों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लिया जा चुका है। इसलिये इन लोगों की सरकार से मांग है कि वह इन्हें सही मुआवजा और पुनर्वास के लिये अच्छी जगह दिलवाये। ये लोग कहते हैं कि यहां पर तो हम लोग जमीन खोद कर अनाज उगा रहे हैं और उसे खा रहे हैं। अगर दूसरी जगह ऐसा भी न हो पाये तो हम क्या करेंगे।
इस गांव के कक्षा 11 में पढ़ने वाले एक छात्र रमेश का मानना है कि बांध नहीं बनना चाहिये। उसे लगता है कि दूसरी जगह जाकर फिर से जिन्दगी शुरू करना कठिन होता है और अगर पंचेश्वर बांध बना तो उससे इस जगह से पर्यावरण पर भी असर पड़ेगा।
(जारी रहेगा)
घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी ‘नैनीताल समाचार’ की वैब पत्रिका ‘www.nainitalsamachar.org’ की वैब सम्पादक हैं।