गजेंद्र रौतेला
आजकल हर तरफ हर जगह राजनीतिक चर्चाओं की गहमागहमी है।जहाँ देखो जिधर जाओ हर जगह किसी न किसी रूप ये चर्चाएं अपने चरम पर हैं और होनी भी चाहिए।क्योंकि एक स्वस्थ लोकतंत्र में ये बेहद जरूरी भी है।क्योंकि जहां एकतरफ किताबी ‘राजनीतिशास्त्र’ हमें सैद्धान्तिक ज्ञान देता है तो वहीं दूसरी तरफ इस तरह की चर्चाएं हमें व्यावहारिक समझ भी देती है।यह हमारे लोकतंत्र की आत्मा को बचाये रखने के लिए जरूरी भी है। लेकिन अक्सर हम इस चर्चा के पीछे बेहद जरूरी और अहम मुद्दों को खो जाते हैं।दरअसल जो हमारे जीवन और समाज की बेहतरी के मुद्दे होते हैं वह कहीं पीछे छूट जाते हैं और बेहद गैरजरूरी विषय उनकी जगह ले लेते हैं जो न हमारे समाज के लिए और न ही व्यक्तिगत जीवन में कोई महत्व रखते हैं।इन सबके पीछे हम यह भी भूल जाते हैं कि इन राजनीतिक दलों या व्यक्तियों का ‘राजनीतिक एजेंडा’ या ‘घोषणा-पत्र’ क्या है जिसके आधार पर ये समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने के सपने देख रहे हैं और हमारे ‘भाग्यविधाता’ बनने की चाह रखते हैं।जो हम लोग इस लोकतंत्र में एक ‘नागरिक’ के रूप में सबसे मूल इकाई और ‘जनता जनार्दन’ कहलाये जाते हैं कब सिर्फ ‘वोटर’ या ‘संख्या’ में तब्दील हो जाते हैं हमें खुद पता नहीं चलता कि हम इस कुचक्र में स्वयं कब फंस गए। कई बार तो यह इतनी खूबसूरती से ‘प्रयोजित’ होता है कि हम खुद अनजाने ही इसका हिस्सा हो जाते हैं और पैरवी करने भी लग जाते हैं लेकिन जब तक समझ आता है तब बहुत देर हो चुकी होती है।चुनावी मौसम में हमारे आसपास हर रोज ऐसे कई नए-नए विषय हमारी ‘फिजां’ में ज़हर घोलने का काम करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे।लेकिन हम जिम्मेदार नागरिकों का कर्तव्य भी है कि इस तरह की कोशिशों का पुरजोर विरोध भी करें और उनके ‘राजनीतिक एजेंडे’ पर सवाल पूछें और उनके ‘घोषणा- पत्र’ और उसके ‘क्रियान्वयन’ पर बहस करें जिससे हम अपने एक जिम्मेदार नागरिक होने की भूमिका भी स्थापित कर सकें।
मानव विकास में शिक्षा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है।हम आज जहाँ तक भी पहुंचे हैं वह शिक्षा के बदौलत ही पहुंचे हैं।यह एकमात्र ऐसा औजार है जो सम्पूर्ण मानव विकास का केंद्र है।जिसके लिए ‘पढ़ने-लिखने’ की संस्कृति का होना बेहद जरूरी है लेकिन अक्सर यह महत्वपूर्ण मुद्दा कभी भी राजनीति का मुद्दा नहीं रहा।शायद यह विषय वोट बैंक की राजनीति को प्रभावित करने वाला लोक-लुभावन विषय न रहा हो।लेकिन राजनीतिक दलों को यह भी समझ लेना चाहिए कि बिना ‘शिक्षा और पढ़ने-लिखने’ की संस्कृति के कोई भी योजना तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि किसी की समझ और चेतना को विकसित न किया जाए।और यह तभी सम्भव है जब हम इस ‘पढ़ने-लिखने’ वाली संस्कृति को बढ़ावा देंगे और किताबों तथा लाइब्रेरी की संस्कृति को अपने एजेंडे में शामिल करेंगे।बतौर नागरिक हम सबकी भी साझी जिम्मेदारी है कि इस बेहद कठिन दौर में भी इस विषय को ‘राजनीतिक विमर्श’ का मुद्दा बनाए और सवाल करें क्योंकि ‘पढ़ने-लिखने की संस्कृति’ हमारे ‘संवैधानिक मूल्यों’ के प्रति जिम्मेदार भी बनाती है तो ‘सवाल करना’ भी सिखाती है।