दिनेश जुयाल
ये उत्तराखंड है महाराज!मुख्यमंत्रियों का प्रदेश। राज्य अभी 21साल का हुआ और 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ होने जा रही है। मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूडी को एक बार कुर्सी से उतार कर उसी टर्म में दुबारा कुर्सी पर चढ़ाया गया इस तरह अब जो आएगा वो नौवां चेहरा होगा। कई चेहरे पहले भी मायूस हुए इस बार आधे दर्जन के मुंह लटकेंगे। जाहिर है वे फिर भटकेंगे, जो भी साहब बनने जा रहे हैं वे भी उनको खटकेंगे। इस छोटे से प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी लीला चलती रहेगी क्योंकि यहां सीएम की करामाती कुर्सी फिसलन भरी है और हिलती भी बहुत है।
भाजपा ने त्रिवेंद्र को कुर्सी से उतार कर फिलहाल बगावत टाली है लेकिन अब कोई ढंग का चेहरा न चुना तो हरीश रावत वाला किस्सा भी दोहराया जा सकता है। यानी थोक में इधर से उधर जम्प मारने का। अब तो कांग्रेस के अलावा आप ने भी एक विकल्प हाज़िर कर दिया है।
त्रिवेंद्र को हटाने के कारण स्पष्ट हैं। एक नहीं कई गिनाए जा रहे हैं। उन कारणों से इतर इस राज्य में एक शाश्वत कारण है कि यहां नेता बहुत हैं और सबको लगता है कि अगर फलां झाम्पू बन सकता है तो मैं क्यों नहीं बन सकता मुख्यमंत्री! दरअसल इस बार प्रचंड बहुमत और दिल्ली के आकाओं की मेहरबानी से त्रिवेंद्र खुद भी इतने प्रचंड हो गए थे कि उन्हें अहसास ही नहीं हुआ कि उनके विरोधी भी प्रचंड हो रहे हैं। इस बार गैरसैण के सत्र में उठ रहे तूफान को भांप कर आलाकमान ने सियासी भूचाल का एपिसेंटर एयरलिफ्ट कर देहरादून शिफ्ट कर बजट तो पास करवा ही दिया। कुमाऊं और गढ़वाल मंडल की सड़कों उतर रहे जनाक्रोश को भी भरमा दिया साथ सदन में चुपचाप रखी गई कैग रिपोर्ट पर उठने वाले बवाल को भी टाल दिया। त्रिवेंद्र की हनक गई लेकिन सदन में सरकार की किरकिरी बच गई।
दिल्ली में सबसे ताकतवर माने जाने वाले नेता की पसंद रहे त्रिवेंद्र ने सियासी मित्रों के साथ ही नौकरशाहों की जिस छोटी टीम के साथ सत्ता सुख लिया उससे बाहर के लोगों के प्रति उनकी हिकारत उनके लिए नफरत बटोरती रहीं। जिस संघ के वह खुद को सिपाही कहते हैं उसकी भी इसलिए नहीं सुनी क्योंकि उनका विश्वास था कि उनकी पकड़ तो सबसे ऊपर तक है। कोश्यारी दादा की कृपा से कांग्रेस से आये कांग्रेसी गोत्र के मित्रों को अपने पहले मंत्रिमंण्डल में ज्यादा वजन देने के बाद पार्टी में वर्षों से काम कर रहे और अहम पदों पर रह चुके लोग उन्हें अपनी किचन कैबिनेट के लायक नहीं लगे। बार बार दिल्ली जाते, खबर छपती की कुछ लोग नवाज़े जाने वाले हैं लेकिन मामला टलता रहता। कुछ दायित्वधारियों को बड़ी देर से प्रसाद मिला। मंत्रिमंण्डल के तीन पद भरने की उम्मीद में सरकार का आखिरी साल आ गया। सब्र तो टूटना ही था।
नारा ज़ीरो टॉलरेंस का लेकिन गिनाने लायक काम ज़ीरो। आखिर किस घपलेबाज को सबक सिखाया इस नारे वाली सरकार ने? घपलों की खान माने जाने वाले विभाग खुद समेटे रहे। अफसर भी कुछ खास ही चुने। अपना विधायक घपले की शिकायत कर रहा है अफसरों के मनबढ़ होने की कथा सुना रहा है लेकिन नहीं सुनते। बात बढ़ती है, जांच होती है, घपला उजागर होता है, निलंबन भी होते हैं लेकिन घोड़ा फिर अपनी चाल चलने लगता है। इस बेअंदाजी पर अपनों को भी गुस्सा तो आ ही सकता है। भला हो मीडिया के मित्रो और मीडिया मैनेज करने के लिए रखी गई लाखों के खर्च वाली टीम का कि फिर भी ताल ठोंक कर कहते हैं ज़ीरो टॉलरेंस। राजा वाले तेवर जनता ने तब ही देख लिए थे जब मुख्यमंत्री शिक्षिका उत्तरा पंत को सरेआम धमकाया।
गज़ब है ! मुख्यमंत्री के विभाग में फर्जी डीपीआर से करोड़ों का घपला कैग पकड़ रहा है और कुछ नहीं होता!
सड़क मांग रही महिलाओं पर बर्बर लाठीचार्ज करने वाली सरकार की जनता भी जय कैसे बोले! हाई कोर्ट बार बार डंडा दिखा कर सरकार से काम करवा रहा है। कुम्भ की औपचारिक शुरुआत इसलिए भी नहीं हो पा रही है कि करोड़ों के बजट के बावजूद सरकार काम ही नहीं करवा रही। हाइकोर्ट वहां भी निगरानी कर रहा है। सवाल तो बनता है कि साहब इरादा क्या है? पिछले कुम्भ का घोटाला एक सीएम की कुर्सी खिसका गया था।
किसी की सुननी नहीं, न विमर्श करना। ये आदत होती तो गैरसैण कमिश्नरी की अजीब सी घोषणा न करते। पूरे कुमाऊं को दुश्मन बना लिया। अजयभट्ट जैसे खैरख्वाह भी सामने आकर ताल ठोंकने लगे। दरअसल इस प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले को इस कुर्सी का मिजाज ठीक से समझना चाहिए और हाँ, जो बेचारे अब तक खेत रहे उनका इतिहास भी संदर्भ सहित याद रखना चाहिए।