अशोक पाण्डे
जब उनसे पहली बार मिला वे नैनीताल के लिखने-पढ़ने वालों के बीच एक सुपरस्टार का दर्जा हासिल चुके थे. उनकी कविताओं की पहली किताब ने आना बाकी था अलबत्ता मेरे परिचितों का एक बड़ा हिस्सा उन्हें एक बेपरवाह जीनियस कवि, शानदार इन्सान और बड़े सम्पादक के रूप में जानता था. मैंने उनकी तीन या चार कविताएँ पढ़ी थीं जिनमें वह कविता भी थी जिसे उन्होंने अपने असमय दिवंगत हुए अपने दोस्त बलदेव साहनी की याद में लिखा था.
सन 1989 की बात है. उस दिन वे नैनीताल आये थे और शैले हॉल में उनका शानदार काव्यपाठ हुआ था. प्रोग्राम समाप्त होने पर उनके गिर्द एक छोटा-मोटा जुलूस जमा हो गया था जो नैनीताल क्लब से बड़ा बाजार होता हुआ, नगरपालिका दफ्तर के सामने से होता हुआ झील के किनारे, फ्लैट्स में बैंडस्टैंड के बगल में लगी पत्थर की रेलिंग तक उनके साथ आते-आते आकार में सिकुड़ता गया. दर्जन भर लोग अब भी उनके साथ थे, दुनिया जहान की बातें थीं, ठहाके थे और एक बेफिक्र हल्का माहौल बना हुआ था. सात-साढ़े सात का समय था और हल्की ठंडक पड़ना शुरू थी.
इस दर्जन भर की महफ़िल का हिस्सा मैं भी था अलबत्ता अभी तक किसी ने उनसे मुझे आधिकारिक रूप से मिलवाया नहीं था. मैं संकोचवश चुपचाप बैठा केवल सुन रहा था. फिर चाय आई. चाय पीते-पीते किसी ने उनसे ‘रामसिंह’ कविता के बारे में कुछ बात करना शुरू कर दिया. मुझे बाद में अहसास हुआ वे आदतन अपनी कविताओं पर बात नहीं करते थे. कुछ हल्की-फुल्की बात कहकर उन्होंने उस सारी संजीदगी को हवा में उड़ा दिया. पता नहीं क्यों मुझे उनकी यह बात भाई. मेरे मुंह से अनायास निकल पड़ा – “सर, आपकी बलदेव साहनी वाली कविता पढ़ी है मैंने! ….”
किसी ने उन्हें मेरा नाम बताया. मैं अंगरेजी में एमे कर रहा था और अपने आपको बड़ा तीसमारखां राइटर समझने लगा था. उन्होंने मुझे अपने पास आने को कहा और अपना दोस्ताना हाथ मेरे कंधे पर रखा. अब बातचीत हम दोनों के बीच हो रही थी. मैंने अचानक एमिली डिकिन्सन की कविता की एक पंक्ति उन्हें सुनाई – “आई हर्ड अ फ्लाई बज़ व्हेन आई डाईड.”
“ओफ्फोह! अरे यार!” हकबकाते हुए उन्होंने इतना ही कहा और फिर अचानक मेरा हाथ थामकर बोले – “चलो!” और हम दोनों तिब्बती मार्केट की तरफ चल दिए. किसी ने पूछा तो वे पलट कर बोले – “अभी आ रहे हैं!”
मुझे नहीं मालूम हमने उस रात क्या बातें कीं पर रात के दो बजे तक हम ठंडी सड़क पर इस बेंच से उस बेंच भटकते-बैठते कितनी ही बातें करते रहे.
उस शाम जो उन्होंने मेरा हाथ थामा तो अगले छब्बीस साल नहीं छोड़ा. एमिली डिकिन्सन की उस कविता की एक पंक्ति ने मुझे जैसे किसी गर्भनाल से उनके साथ इकठ्ठे बाँध दिया था.
लिखे-बोले शब्दों और भाषा के आनंद से हहराता एक असीम समुद्र था जिसमें उनके साथ मिलकर मैंने अपनी डोंगियाँ अनंत दफा तैराईं और दूर-दूर के मुकाम तय किये. इस यात्राओं के बीच ही चेतन-अवचेतन के जादुई द्वीपों में हम अपनी रातों के तम्बू गाड़ दिया करते – बातें होती जाती थीं और समय उड़ता जाता था. हमने साथ-साथ मिलकर बड़े दुस्साहस भी किये और कभी-कभी अकल्पनीय बचकानी मूर्खताएं भी कीं अलबत्ता हर बार बगैर खरोंच के साबुत लौट आये.
उनकी हर नई कविता का मैं पहला श्रोता बनता. अपनी कविता के लिए उपयुक्त शब्दों को छांटने में वे बहुत मेहनत करते थे. और पूरा ध्यान रखते थे कि उनके लिखे में “आंय-बांय-शांय कोई बात न हो!” उनकी निगाह से कुछ भी अच्छा गुज़रता – जैसे संगीत, फिल्म, किताब या किस्सा – तो वे आधी-आधी रात को जगाकर टेलीफोन कर उस बारे में बहुत शिद्दत से बात करते. ऐसी ही छूट उन्होंने मुझे भी दी हुई थी.
2010 के आसपास उन्हें एक मनहूस बीमारी ने घेर लिया जो आखिरकार उन्हें अपने साथ ले जा कर ही मानी. चार साल पहले यही तारीख थी जब तड़के उनके छोटे बेटे प्रफुल्ल का फोन आया. मैं हल्द्वानी में था. तुरत-फुरत गाड़ी बरेली के नजदीक उस हस्पताल की तरफ भागना शुरू कर चुकी थी. दिमाग पर लकवा पड़ने को था और मेरी चेतना सुन्न पड़ रही थी. मैंने किसी से कुछ कहना था वरना कुछ भी हो सकता था. मैंने बदहवासी में असद जैदी (Asad Zaidi) को फोन किया. मैं उनका अहसान इस जीवन में नहीं भूल सकता कि भोर के तीन-साढ़े तीन बजे भी उन्होंने मेरा फोन उठा लिया. “इट्स ऑल ओवर भाईसाब!” – जुबान से यही भर निकल सका.
अस्पताल में पहले प्रफुल्ल और फिर दिनेश जुयाल (Dinesh Juyal) मिले. सुबह के साढ़े पांच-छः बजे वहां यही दो लोग थे. हम अस्पताल के बाहर मिल रहे थे और हमारे पास तमीज से दुखी तक हो सकने की न जगह थी न फुर्सत. जल्द ही औपचारिकताएं होना शुरू होना थीं और वे होने भी लगीं. काफी देर तक डाक्टरों और नर्सों की बताई बातें सुन कर हम उनकी बताई चीजें समझने और वैसा ही करने की मशीनी कोशिशें करते रहे कि फलां जगह से यह कागज़ लाइए, फलां कमरे से सामान उठा लीजिये. अचानक यह हुआ कि मैं रिसेप्शन में अकेला पड़ गया जब डाक्टर दिख रहे एक आदमी ने मुझसे कहा – “आप जाकर मॉर्चरी से बॉडी कलेक्ट कर लीजिये!”
यह 28 सितम्बर 2015 की मनहूस सुबह का सात-साढ़े सात का वक्त है. बरेली-नैनीताल रोड पर स्थित भोजीपुरा के राममूर्ति हस्पताल के बाहर मैं नीले एप्रन वाले एक आदमी से मॉर्चरी का रास्ता पूछ रहा हूँ. हस्पताल के पिछवाड़े एक सुदूर कोने में जेनरेटरों की भकभक से गूंजते-धुंआते टीन की छत वाले एक बड़े कमरे से आगे छिटका हुआ एक छोटा सा कमरा है जिसके बाहर एक मरियल सा ताला लटका हुआ है. कमरे के बाहर बने एक कोठरीनुमा दफ्तर में सुबह-सुबह ड्यूटी पर तैनात एक साधारण सा आदमी जैसे मेरे आने की ही राह देख रहा है.
“यहाँ साइन कीजिये” वह मुझसे कहता है.
रजिस्टर की एंट्री में उनके नाम की स्पेलिंग गलत लिखी हुई है. मैं कुछ नहीं कहता. उनके नाम के आगे दो और नाम लिखे हैं – राम खिलावन और मोहम्मद अकरम. “ये लोग कौन हैं” – मैं पूछता हूँ. “स्टाफ हैं! वार्ड से यही लोग बॉडी डिपॉजिट करने आये थे. यही कायदा है.” – वह विनम्रता से कहता हुआ उठता है और ताला-कुंडी खोलकर दरवाजा उघाड़ देता है. भीतर जीरो वाट का बल्ब जला हुआ है जिसकी पीली रोशनी में मुझे एक झीनी सफेद चादर भर दिखाई देती है.
“अरे एम्बुलेंस कहाँ है आपकी? लेकर कैसे जाइयेगा!”
पाता हूं मैं लड़खड़ा रहा हूँ – कुछ भी सोच या कर सकने से लाचार. “हांहूं” जैसा कुछ कहने की कोशिश करता हुआ मैं देखता हूँ सामने से दिनेश जुयाल एम्बुलेंस लेकर आ रहे हैं. पीछे पीछे बदहवास भागता हुआ प्रफुल्ल भी आ आ रहा है.
सुबह की रोशनी में एक अजनबी सा पीलापन छा रहा है. सिर उठाकर आसमान पर निगाह डालता हूँ. रातोंरात कोई उस पर सड़क का भारी कोलतार पोत गया है.
कहीं से आकर एक मक्खी कान के ठीक सामने ठहर कर भिनभिन करना शुरू कर चुकी है