गजेन्द्र रौतेला
बच्चों के खेल जो जीवन जीने की कला सिखाते हैं। बचपन जीवन के सबसे अहम और खूबसूरत पड़ाव में माना जाता है। जो हमारे जीवन की बुनियाद को गढ़ती है। आज के इस तकनीकी और एकाकी जीवन के दौर में वो सब परम्परागत सामुहिक खेल विलुप्त होते जा रहे हैं जो कभी हमारे जीवन का हिस्सा हुआ करते थे । एक बेहतर समाज के निर्माण में उन खेलों की भी उतनी ही भूमिका रही है जितनी कि बेहतर शिक्षा की। यह भी सच है कि वक़्त और तकनीकी विकास के साथ-साथ जीवन के बहुत सारे पहलू भी परिष्कृत होते रहते हैं। यह विकास प्रक्रिया की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। बच्चों के व्यक्तित्व को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली चीजों में से एक है उनके खेल-खिलौने।
कोविड काल में उनका स्वरूप भी बदला है और जरूरत भी। जहाँ पहले से ही तकनीक ने बच्चों को एकाकी और वर्चुअल जीवन की तरफ उन्मुख किया हुआ था वहीं इस वर्तमान दौर में इसमें बेइंतहा बढ़ोतरी भी दिखाई दे रही है। अक्सर हम अपने आसपास ही बच्चों को मोबाइल या लैपटॉप में घुसे पड़े देखते हैं और अचानक से खुद से ही चिल्लाते या बात करते हुए देखते हैं। भले ही उनके आसपास बाकी लोग भी मौजूद हों लेकिन उन्हें उनके होने या न होने का एहसास बिल्कुल भी नहीं होता और न ही परवाह।मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि यह स्थिति उनके व्यक्तित्व विकास को बेहद प्रभावित करती है और अंततः हमारे समाज को भी।
जहाँ एक तरफ शिक्षा के माध्यम से अपने समाज को एक जिम्मेदार और संवेदनशील समाज बनाने का प्रयास करते हैं तो वहीं दूसरी ओर इस तरह के खेल उन्हें एकाकी और सामाजिक जिम्मेदारी से दूर भी ले जाते हैं। यह एक बड़ी चिंता का विषय है जिस पर पूरे समाज और अभिभावकों को बड़ी गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि आखिर हम किस प्रकार से बच्चों के व्यक्तित्व विकास में उनके खेलों को समाहित करें कि हम उन्हें एक संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बना सकें।
लेकिन इसी कोविड काल के दौरान कुछ छिटपुट उम्मीद जगाती हुई तस्वीरें भी नज़र आई जहाँ हमारे दूर-दराज के पहाड़ी घर-गाँव में बच्चे उन खेलों में मशगूल दिखाई दिए जो कभी हमारे जीवन का अभिन्न अंग हुआ करते थे। जिनमें डूब जाने पर भूख-प्यास-वक़्त सब भूल जाया करते थे। ये वो खेल थे जो जीवन जीने की कला के साथ-साथ हमें शारीरिक और मानसिक रूप से भी संवेदनशील और मजबूत बनाते थे जो एक नागरिक और समाज की पहली जरूरत है।
जुलाई महीने के एक दिन रोज की कोविड ड्यूटी के दौरान गाँव के एक घर में मस्तू और फुरकी अपने दोस्तों के साथ ‘कूड़ी-भंडी’ खेल खेल खेलने में इतने मशरूफ थे कि उन्हें मेरे उनके पीछे खड़े होने की खबर तक न लगी। उनके खेल को देखते हुए उनकी बातचीत को सुनना भी उतना ही रोचक था जितना कि उनकी मशरूफियत। मस्तू खाना पकाने की जद्दोजहद में था तो फुरकी उसे नसीहतों की बौछार करती हुई कह रही थी कि ‘ नी च रे मस्तू त्येरा बसो’ तो मस्तू को लगा कि उसकी ‘इंसल्ट’ हो रही है उसके ‘सेल्फ रेस्पेक्ट’ को ठेस लग रही है ऐसे कैसे हार मान ले ,वो तो करके दिखायेगा। फिर से पूरी जद्दोजहद के साथ जुट गया मस्तू अपने काम में।
दरअसल यह सिर्फ खेल भर नहीं होता। यह हमारे जीवन के लिए हमें तैयार करता है हमें परिष्कृत करता है हमें संघर्ष करना सिखाता है हमारा विकास करता है जो सिर्फ कल्पना मात्र नहीं होता बल्कि यथार्थ के जीवन जीने में भी बड़ी भूमिका निभाता है।
तो आइये इस बाल दिवस हम भी अपने लिए अपने समाज और बच्चों के लिए कुछ सोच-विचार करें और कुछ नए रास्ते तलाशें नए रास्ते बनाएं जिससे हम बेहतर इंसान और बेहतर नागरिक और बेहतर समाज का निर्माण कर सकें।