अजय कुमार
पिछले एक-दो दशकों से उत्तराखंड में मानव वन्यजीव संघर्ष तेजी से बढ़ा है। सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार राज्य बनने के बाद अप्रैल 2023 तक 1060 लोग वन्य जीवों के हमले में अपनी जान गंवा चुके हैं और 4923 लोग घायल हो चुके हैं। राज्य स्थापना के समय प्रति माह औसतन दो मौत वन्य जीवों के हमले से होती थी जबकि पिछले वर्ष में 82 लोगों ने वन्यजीव हमलों में अपनी जान गंवाई।
उत्तराखंड में सल्ट विकास खंड के सांकर गांव में गत नवम्बर माह में बाघ ने जंगल जा रही एक घसियारी महिला पर हमला कर उसे बुरी तरह घायल कर दिया। इलाज हेतु पहले उसे पास में रामनगर और फिर दिल्ली ले जाना पड़ा। इलाज के बाद वह बच तो गई किन्तु उनकी एक आंख पूरी तरह बंद है और मानसिक रूप से वह भय के साये में है। महिला के परिजनों का कहना है कि इलाज वे दवाओं हेतु उन्हें एक लाख सत्तर हजार रु. खर्च करने पड़े परन्तु वन विभाग से मुआवजा महज पचास हजार रूपये मिले। उसके बाद भी दवायें और इलाज चलता रहा, अब तक इलाज में लगभग तीन लाख रुपया खर्च हो चुके हैं और इस वजह से परिवार कर्ज में फंस गया है। इस घटना के बाद बाघ के डर से न सिर्फ सांकर परन्तु आसपास गांवों के अनेक परिवार अपने दूधारू मवेशियों को औने-पौने दामों में बेच चुके हैं। इस घटना से स्थानीय लोग बहुत डर में थ्ो तभी फरवरी माह में सांकर के पास के गांव झडगांव में बाघ ने एक महिला की जान ले ली। परिवार में अब तीन बच्चे व पिता हैं। वन विभाग ने कुल चार लाख रूपये मुआवजा दिया परन्तु महिला का पति उससे बिल्कुल संतुष्ट नहीं है।
मानव वन्यजीव संघर्ष का दूसरा पक्ष भी बहुत निराशाजनक है। पूरे देश में इस साल अब तक 39 बाघों की जान जा चुकी है। इन 39 में से 17 बाघ संरक्षित क्षेत्र के अंदर मरे हैं और 22 की मौत ऐसे क्षेत्रों से बाहर हुई है। देश में 2021 में 127 और 2022 में कुल 121 बाघों की मौत हुई थी। इस सन्दर्भ में नेचर क्लाइमेट चेन्ज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण इंसानों और जानवरों के बीच जीवन की जंग तेज हुई है। जीव विज्ञानी ब्रियाना अब्राहम के अनुसार बीते दस वर्षों में मानव वन्यजीव संघर्ष के मामले उससे पहले के दो दशकों की तुलना में चार गुना बढ़ गए हैं। सल्ट ब्लॉक के ग्रामीणों का अनुमान है कि वनों में लगी आग जानवरों को जंगल से बाहर निकलने को विवश करती हैं साथ ही, बाघ, हाथी, गुलदार इत्यादि के घटते सुरक्षित आवासीय क्षेत्र भी उन्हें जंगल से बाहर निकल कर मनुष्यों पर हमलावर बनाते हैं। इसके साथ ही वन्यजीव गलियारों में सड़कों इत्यादि के निर्माण कार्य वन्यजीवों के मार्गो को बाधित करते हैं। जंगलों में भोजन व पानी की कमी के कारण भी जानवर वनों से बाहर निकल रहे हैं। कुल मिलाकर इंसान व जानवरों के बीच जीवन की जंग तेज हुई है।
इन परिस्थितियों के बीच उत्तराखंड के सल्ट विकास खंड में महिलाओं का संगठन रचनात्मक महिला मंच व ग्रामीण सरकार से जंगली जानवरों के हमले से मौत व अन्य नुकासान का मुआवजा बढा़ने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि जंगली जानवर के हमले से मनुष्य की मौत का मुआवजा रू. 25 लाख होना चाहिये। वर्तमान में उत्तराखंड में यह रकम महज 4 लाख रुपये है। जबकि ओड़िशा में यह 6 लाख, मध्य प्रदेश में 8 लाख, कर्नाटक में 15 लाख व महाराष्ट्र में 20 लाख (10 लाख नकद व 10 लाख एफ.डी.) है। संगठनों की यह भी मांग है कि जंगली जानवरों के हमले में घायल हुए व्यक्ति के इलाज का पूरा खर्च सरकार वहन करे।
सल्ट विकास खंड में बाघ के हमले में घायल महिला के इलाज के दौरान अस्पताल ने आयुष्मान कार्ड यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि ‘आपको वन विभाग से मुआवजा मिल तो रहा है।’ जबकि घायल होने वाली महिला के इलाज में लगभग 3 लाख रुपया खर्च हो चुके हैं और वन विभाग से मुआवजा केवल 50 हजार मिला। जंगली जानवरों के हमले में घायल अनेक ग्रामीणों के परिजन कहते हैं कि इलाज के दौरान वो भारी कर्ज में फंस गए हैं।
संगठन व ग्रामीण यह भी मांग कर रहे हैं कि जंगली जानवरों के हमले में मरने वाले खच्चर, गाय व बकरी के लिये मुआवजा बढ़ाया जाये। बकरी, गाय व खच्चर पर्वतीय समाज में आजीविका के महत्वपूर्ण श्रोत हैं। उनके मरने से परिवार आर्थिक रूप से संकट में आ जाते हैं। अभी जंगली जानवरों के हमले से होने वाली इनकी मौत का मुआवजा बहुत कम व अव्यवाहरिक है। मांग है की कम से कम इतना मुआवजा मिले की नया पशु खरीदा जा सके।
वर्तमान में जंगली जानवरों से फसल को होने वाले नुकसान का मुआवजा भी काफी कम है और इसे प्राप्त करना भी आसान नहीं है। गन्ना, धान व गेहूँ की फसल को छोड़ कर अन्य फसलों के लिए यह रूपये 8 हजार प्रति एकड़ है। यदि सल्ट विकास खंड के सन्दर्भ में देखें तो कई परिवार 4-5 नाली भूमि में मिर्च की खेती करते हैं और उससे 35-40 हजार रूपये कमा लेते हैं। यही वहां की मुख्य फसल है, जिस आमदनी का इंतजार परिवार वर्ष भर करता है। 8 हजार रूपये प्रति एकड़ मुआवजे की गणना से यह 400 रूपये प्रति नाली है। मुआवजे की यह दर किसी भी फसल के लिए हास्यापद है। ऐसे में फसलों को होने वाले नुकसान का मुआवजा बढ़ाने की मांग जायज़ ही है।
कुल मिला कर मानव वन्यजीव संघर्ष ने उत्तराखंड के अनेक इलाकों में जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। पिछले दिनों पौड़ी जिले के कुछ इलाकों में रात का कर्फ्यू तक लगाना पड़ा व स्कूल भी बंद रखने पड़े। खुले स्कूलों में बच्चों की उपस्थित कम है। कई परिवार इस वजह से अपने बच्चों को लेकर उनकी पढाई के लिए पास के शहरों में पलायन कर गये हैं। कई परिवार अपने छोटे बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्रों में नहीं भेज रहे हैं क्योकि घर से आंगनवाड़ी केंद्र आते-जाते मार्ग में बाघ या गुलदार के हमले का खतरा बना रहता है। जिन इलाकों में बाघ या गुलदार हमलावर है वहां ग्रामीण अपनी गाय-भैसों को बेच रहे हैं, क्योकि जंगल में चारा एकत्र करने जाने में जान का जोखिम है।
इन परिस्थितियों से निपटने में सरकार के कोई विशेष प्रयास अभी तक नजर नहीं आ रहे हैं। सरकार को तुरन्त इस दिशा में सोचना चाहिए। वन विभाग को ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है। जानवरों और इंसानों के बीच बढ़ते टकराव से निपटने के लिए जरूरी है की वन विभाग समुदायों के साथ टकराव की जगह संवाद बढ़ाये। सरकार के लिए भी ये जरूरी है की वह ग्रामीणों के बीच विश्वास बहाल करने के लिए मुआवजा राशि बढ़ाये।
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