राजशेखर पंत
मलबे में तब्दील हुई किसी भी चीज़ का- चाहे वह इमारत हो, शहर हो, संस्कृति हो, मूल्य हो, आदर्श हों या फिर ज़ेहन के किसी कोने में दफन यादें -पुनर्निर्माण संभव नहीं है। हाँ, मलबे को साफ कर, उस जगह पर नए निर्माण की संभावना हमेशा बनी रहती है। कुछ लोग मलबे के ढेर से काम की ईंटें और सरिये के टुकड़े बेशक बीन लेते हैं पर इनसे कम से कम वो इमारत दोबारा तामीर नहीं होती जो मलबे में तब्दील हो चुकी हो। क़िस्सा कोताह ये कि बेशक इसे सहेज लीजिये पर, जैसा कि एक शायर ने फरमाया है-
सर पे गिरे मकान का मलबा हि रख लिया,
दुनिया के कीमती सर-ओ-सामान से गये।
मलबा, चाहे वह किसी भी चीज का हो, बस बर्बादी, विध्वंस और लुटने-पिटने की दास्तान भर है।
खैर… ये बात तो हुई इंसानी ज़िंदगी और तहज़ीब से जुड़े मलबे की; दरअसल मलबे की मौज़ूदगी पूरी क़ायनात में पैबस्ता है। पहाड़ टूटते-दरकते हैं, पेड़ ढह जाते हैं, नदियां बरसात की बाढ़ के बाद मलबे के ढेर छोड़ जाती हैं, सितारे भी गाहे-बगाहे अपनी रौ से बहक कर आपस में टकरा जाते हैं, बिखर जाते हैं यूं ही टूट कर। फर्क सिर्फ इतना है कि जहां पहली किस्म का मलबा कमोबेश फेंकने, छुपाने या औरों की नज़र से बचा कर समेटे रहने के मतलब भर का रह जाता है, (दिल के किसी कोने में दफ़न यादों का मलबा भी इसी ज़मात में शामिल है) वहीं दूसरी तरह का मलबा कभी बर्बादी या विध्वंस का बाइस नहीं बनता। खोखला हो कर किसी बियाबान में ढह गया दरख़्त बाक़ी पेड़ों की ख़ुराक बन जाता है; किसी दरकते हुए पहाड़ से भरभरा कर गिरी चट्टानें, मट्टी वगैरा पहाड़ की शक्ल भर बदलती है। बिछड़ने के कुछ ज़ख्म उभरते हैं उसके सीने पर, पर धीरे-धीरे वक्त के साथ वो भी भर जाते हैं। पहाड़ का टूटा हुआ हिस्सा एक मायने में उसका विस्तार बन जाता है, समा जाता है उसी में। (वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को प्राइमरी, सेकंड्री और टरशरी सकशेसन कहते हैं, प्रकृति में हमेशा चलते रहने वाली क़वायद है यह)
क़ायनात के पोशीदा राजों को ठीक से समझने के बाद उसकी कारीगरी का इक़बाल किया जाना, बहुत से लोग समझते हैं कि फ़िलहाल बाकी है। ऐसे नासमझ लोगों को शायद इंसानी जज़्बे और फ़ितरत का अंदाज़ा ही नहीं होता। पहाड़, नदी, ऊंचे दरख्त, रेगिस्तान, चट्टानें -ये सब तो चुनौतियां, चेलेंज हैं, इंसान की जेहानी और जिस्मानी ताकत के लिए। इन्हें ललकारे बगैर, रौंदे बगैर वो भला कैसे अपनी काबीलीयत का इज़हार कर सकता है?
अब आप से क्या छुपाना, दरअसल देवभूमि के एक देवतुल्य सियासद्दान/हुक्मरान द्वारा हाल ही में ज़ाहिर की गयी एक मासूम सी ख़्वाहिश ने मुझे मलबे की शख़्सियत के बारे में इतना सोचने और उसे ठीक से समझने के लिए मजबूर किया है। क़िस्सा कुछ यूं है-
देवभूमि के देवताओं ने अपने रिहायशी इलाके , चारधाम कहा जाता है जिन्हें, ऊंची-ऊंची पहाड़ियों पर मुकम्मल किये हैं। तकलीफ़ बर्दाश्त करते हुए, देवताओं को याद करते हुए, सारी दुनियादारी, चाहतों वगैरा को पीछे छोड़ते हुए किसी देवस्थल तक पहुंचना गुजरे ज़माने की बेवकूफ़ी थी। आज के ज़माने में योयो हनीसिंह का गाना गुनगुनाते हुए बस यूं ही आराम से टहलते-टहलते इन जगहों तक पहुंचने की ख़्वाहिश रखना कोई गुनाह तो नहीं है। तो जाहिर है, देवभूमि के देवताओं की, सारे शहर और मैदानों को छोड़ पहाड़ की चोटी में जा बसने की गलती को सुधारना वक्त की ज़रूरत थी और इसके लिए दरकार थी एक खासी चौड़ी सड़क की जिस पर मछली की तरह फिसलते हुए लंबी चौड़ी गाड़ियां बाकायदा फर्राटे के साथ दौड़ सकें।
अब 645 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने के लिये बेशुमार पेड़ों को काटना, पहाड़ों का सीना चाक करना वगैरा एक खर्चीला शगल तो है ही, आनन फानन में 12000 करोड़ का इंतज़ाम किया गया। पर पहाड़ तो पहाड़ ही होते हैं। उन्हें खोदने, काटने में मलबा भी इफरात से निकलेगा। फिर यहां का जुग्राफिया भी कुछ ऐसा होता है कि मलबा छोड़िये आप ग़लती से एक कंकड़ में ठोकर भी मार दें तो वो सीधा पहाड़ की तलहटी से लग कर बहने वाली नदी में जा गिरेगा। जब पहाड़ो की हज़ामत शुरू हुई तो नदी के किनारे कुल जमा 125 बीघा इलाके में मलबा पसर गया। बकौल अखबारी खबर 54 ऐसी जगहें हैं जिन्हें डंपिंग ग्राउंड कहा जा सकता है। अब जो पर्यावरण की रात दिन चिंता में दुबला रहे हैं उन्हें भी खुजली होना लाजमी था। साजिशन यह शोर मचाया जाने लगा कि नदी का जो कुदरती बहाव है उसमें ख़लल पड़ेगा। सूरत ही कुछ ऐसी बना दी गयी कि पहाड़ों की संवेदनशीलता के चलते इस बड़े विकास के लिए की जा रही छोटी सी छेड़छाड़ पर भी सवालिया निशान लगने शुरू हो गये। खैर… ये एक दीग़र वाकया है।
मैं फिलहाल बात कर रहा था एक महामानव की मासूम सी ख़्वाहिश की, जो मलबे के इन ढेरों को पर्यटक स्थलों में बदलना चाहते हैं। सैकड़ों हज़ार सालों से जो पहाड़ अभी खुद को पूरी तरह नहीं संभाल सके हैं, उन्ही पहाड़ों की इत्मिनान से की जा रही चीर-फाड़ के दौरान पैदा हुए मलबे को पर्यटक स्थलों में तब्दील करने का जिगरा रखना यक़ीनन वज़ारत का ही बाइ-प्रोडक्ट हो सकता है; आम इंसान की क्या औक़ात जो ऐसे हसीन ख़्वाबों का तसव्वुर भी कर सके। ठीक भी है, जम्हूरियत अगर सियासद्दानों में यह यकीन भी पैदा न कर सके कि उनकी कही बात हमेशा सौ फ़ीसदी सही होती है, तो फिर ऐसी सियासत का क्या अचार डालाना है? लानत भेजी जानी चाहिये ऐसे ज़माने पर जिसमें हुक्मरानों द्वारा अपनी नेकनियति का इज़हार करते ही बेवज़ह छींटाकशी शुरू हो जाती है।
ठहर कर जरा सोचिए तो सही- नदी के किनारे जमा मलबे पर रंग बिरंगी टाइल्स लगी हुई हैं। पत्थर की दीवारें बनायी गयी हैं, जिनके सफेद रंग से पुते हुए सीने पर लिखा है कि फलां फलां विभाग या निगम आपका स्वागत करता है। चारों ओर रेलिंग्स लगी हुई हैं। एक अदद सुलभ शौचालय के बगल में शराब का सरकारी ठेका है। चाउमिन, उबले अंडे, ब्रेड पकौड़े वग़ैरा बन/बिक रहे हैं। पास ही लगी प्लास्टिक की लाल पीली स्लाइड्स ओर झूलों में बच्चे खेल रहे हैं। किनारे की टेबल में एक नया जोड़ा थम्सअप में मिला कर व्हिस्की पी रहा है, कुछ कारें और ट्रक्स खड़े हैं… कसम से इस दिलकश नज़ारे का दीदार कर बरसात में उफनती नदी भी मलबे के इन खुशनुमा टीलों से थोड़ा हट कर बहना मुनासिब समझेगी। और बह जाना तो दूर सालों साल जुम्बिश भी नहीं आने वाली इन टीलों पर। ऊपर वाला रहम करे, अगर कभी खुदा न खास्ता कुछ ऐसा वैसा हो भी गया तो इंजीनियरों और ठेकेदारों की कमी थोड़े ही है देवताओं की इस भूमि में। ग्रांट आयेगी, टेंडर निकलेंगे, न जाने कितनों का भला होगा। अब विकास कोई सितारों के उस पार बसने वाली चीज़ तो है नहीं। सीमेंट, सरिया, ईंटें, बजरी, टाइल्स, बार, रेस्टोरेंट, पैसे का निर्बाध फ्लो, अरे यही तो है विकास, यही तो है तरक्की। और कुछ विघ्नसंतोषी हैं कि इतने बोल्ड और नायाब प्रोजेक्ट की इब्तिदा के साथ ही लानत मानत भेजना शुरू कर देते हैं।
बड़े बुजुर्ग कह गये हैं कि लीक से हट कर चलने वाला ही शायर, सिंह और सपूत होता है। वो तो राजे-महाराजों का ज़माना था इसलिए सियासद्दानों का जिक्र नहीं हो सका वरना कहाँ शायर और सपूत (सिंह तो वैसे भी जानवर ठहरा) अकेले सियासद्दानों का जिक्र होता इस दोहे में, कुछ इस तरह-
लीक लीक कायर चले, लीक चलै नादान,
लीक छोड़ चलने लगे, बने सियासद्दान।
यकीनन, अपनी ही रौ में बही जा रही नदी का रुख रोके या बदले बिना और बगैर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों का सीना चाक किये, भला आपकी ताकत और औकात का इज़हार कैसे होगा। जंगलों में निहायत ही वाहियात और बेतरतीब तरीके से उग आये पेड़ों को काट कर ऐसी चिकनी सड़कों का बनाया जाना- जिनके किनारे मई-जून के महीनों में गुलमोहर के पेड़ लगाए जाते हैं- सबब बनता है उन सैकड़ों होटल, रिसॉर्ट्स और कॉटेज-बाज़ारों के निर्माण का जो हक़ीकत में इन सड़कों के किनारे लगे विकास का साइनबोर्ड हैं।
ये बात दीगर है कि पहाड़ों की बेतरतीब खुदाई से गिरने वाला मलबा नदियों के किनारे इकट्ठा होता रहेगा, और पर्यटक स्थलों की एक भरी पूरी खेप इस देवभूमि में नुमायाँ होने लगेगी।
पता नहीं क्योँ किसी शायर ने कभी कहा था-
हुकूमत की तवज्ज़ो चाहती है ये जली बस्ती,
अदालत पूछना चाहे तो मलबा बोल सकता है।
खुशकिस्मती है हमारी कि जम्हूरियत में मलबा, फिर भले ही वह पहाड़ो का हो या फिर सपनों और भरोसे का ही सही, हमेशा खामोश रहता है।