नवीन जोशी
आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजकल भारतीय राजनीति और सत्ता के केंद्र में है. उसकी राजनैतिक इकाई, भारतीय जनता पार्टी सन 2014 के बाद से केंद्र और कई प्रांतों में सत्तारूढ़ है. भाजपा चाहे जितना इनकार करे, सत्य यही है कि उसकी लगाम संघ के हाथों में रहती है. अब यह छुपी बात नहीं कि भाजपा उसी का एजेण्डा लागू करने में लगी हुई है.
आज जनता का एक बड़ा वर्ग संघ का समर्थक-प्रशंसक है तो बहुत सारे लोग उससे आशंकित रहते हैं. आज़ादी के संग्राम में उसकी नकारात्मक भूमिका, गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हाथ, तिरंगे की बजाय भगवा ध्वज के सम्मान, हिंदू-राष्ट्र की स्थापना का उसका लक्ष्य, आदि पर खूब वाद-विवाद होता है. हाल के वर्षों में गांधी ही नहीं आम्बेडकर को भी ‘अपनाने’ और सत्ता की राजनीति के लिए दलितों-पिछड़ों का परम हितैषी बनने की उसकी रणनीति पर भी चर्चा होती है. सच यह है संघ के अधिसंख्य समर्थक उसके बारे में बहुत कम जानते हैं.
संघ का असली चेहरा क्या है? क्या उसने हाल के वर्षों में अपने को सचमुच बदला है? आम्बेडकर और बहुजन समाज को लेकर उसका मूल सोच क्या है? ऐसे और भी कई सवाल हैं जिनके बारे में संघ के बड़े समर्थक-प्रशंसक समूह को नहीं पता. जो उसे बताया गया है, वह कितना सत्य है, यह जानना हो तो भंवर मेघवंशी की किताब ‘मैं एक कारसेवक था’ पढ़नी चाहिए, क्योंकि यह एक ‘इनसाइडर’ का अपना देखा-समझा अनुभव है, जिसकी कड़वी सच्चाई ने मेघवंशी को संघ के शिकंजे से बाहर निकलकर शेष जीवन के लिए संघ से दो-दो हाथ करने का संकल्प दिलवाया.
भंवर मेघवंशी आज एक चर्चित नाम है. वे प्रमुख दलित विचारक, लेखक-पत्रकार-एक्टिविस्ट हैं जिन्होंने राजस्थान और उसके बाहर भी दलितों में सामाजिक-राजनैतिक चेतना जगाने से लेकर सामाजिक समानता, अस्मिता और गरिमा का मोर्चा सम्भाल रखा है. जैसा कि भूमिका में हिमांशु पण्ड्या ने लिखा है- “मैं एक कारसेवक था’ दलित चेतना को समझने और अंगीकार करने की गाथा है.
कक्षा छह का विद्यार्थी 13 वर्ष का भंवर आरएसएस की शाखा में भर्ती होता है. ‘नमस्ते सदावत्सले…’ प्रार्थना दोहराते हुए वह ‘व्यक्ति-निर्माण’ की कार्यशाला में ढलने लगता है. ‘विश्व के सबसे महान धर्म’ का गौरव-गान उसे इतना प्रभावित करता है कि वह ‘हिंदुओं के सैन्यकरण और सैनिकों के हिंदूकरण’ को तत्पर हो उठता है. वह ‘भाईसाहब लोगों’ द्वारा बताए गए ‘हिंदू समाज के खिलाफ रचे जा रहे षड्यंत्र’ से उत्तेजित होकर उनसे नफरत करने लगा जो ‘अनाज भारत का खाते हैं और गीत मक्का-मदीना और येरुशलम के गाते हैं’ . उन ‘मलेच्छों’ में बालक भंवर को देशद्रोही और आतंकवादी नज़र आने लगे. एक दिन वह सिर पर गेरुआ पट्टी बांधकर ‘सौगंध’ राम की खाते हुए’ कारसेवक के रूप में अयोध्या रवाना हो गया जहां ‘मलेच्छ विधर्मियों के चंगुल’ से रामजी को मुक्त करवाने के लिए उसके जैसे फड़कती बांहों वाले तमाम युवाओं की भीड़ बढ़ रही थी.
संघ का समर्पित स्वयंसेवक भंवर इतनी निष्ठा और सक्रियता से ‘हिंदू-राष्ट्र’ बनाने के संकल्प में शरीक होता है कि शीघ्र ही वह गणनायक से मुख्य शिक्षक और फिर कार्यवाह बनकर जिला कार्यालय का प्रमुख हो जाता है. संघ में भली-भांति दीक्षित होते हुए भंवर का ‘सवाल पूछने वाला मन’ अक्सर सिर उठाता रहता है हालांकि ‘संघ के सब लोगों के पास प्राचीन समय के उदाहरण और तैयार जवाब होते हैं.’ लेकिन एक वाकया ऐसा होता है कि भंवर को ‘काटो तो खून नहीं.’
अयोध्या और भीलवाड़ा में ‘शहीद’ हिंदू-युवाओं की अस्थि-कलश यात्रा भंवर के गांव पहुंची तो उसने यात्रा में शामिल लोगों से अपने घर भोजन करने का आग्रह किया. उनके लिए खीर-पूरी पकवाए गए थे. पहले तो संघ के पदाधिकारियों ने टाल-मटोल की, फिर एक ने हिंदू समाज की सामाजिक विषमता के बारे में प्यार से समझाते हुए भोजन पैक करके देने की सलाह दी, बाद में भंवर को पता चला कि उसके घर का भोजन संघ के पदाधिकारियों ने रास्ते में फेंक दिया. भंवर लिखते हैं ‘मेरे मन में सवाल उठा कि मैं एक अनुशासित स्वयंसेवक, जुनूनी कारसेवक, जिला कार्यालय प्रमुख. अगर मेरे साथ ही ऐसा छुआछूत तो मेरे अन्य समाज-बंधुओं के साथ कैसा दुर्व्यहार हो रहा होगा. उस दिन मैने पहली बार एक हिंदू से परे हटकर निम्न जति के व्यक्ति के नजरिए से सोचना शुरू किया… वह रात मेरे जीवन की सबसे लम्बी रात थी.’ इस प्रकरण पर भंवर ने जिस भी पदाधिकारी से सवाल किया किसी के पास अंतोषजनक उत्तर नहीं था, बल्कि वे इसे ‘छोटी सी बात’ कहकर कर टाल देते. तब भंवर को ने ‘महसूस किया कि संघ के लोगों ने सिर्फ मेरे घर का खाना ही नहीं फेंका, मुझे भी उठाकर दूर फेंक दिया है.’
इस अपमान से भंवर इतने हताश-निराश हो उठे कि ‘मैंने खुदकुशी के बारे में सोचा. मरने की कई तरकीबें सोची. एक रात घर में रखी चूहामार दवा खाने के साथ खा ली और सो गया.’ यह देश का सौभाग्य है कि भंवर बचा लिए गए और फिर खुद से ही पूछने लगे कि ‘मैं क्यों मर रहा था और किनके लिए मर रहा था? मेरे मर जाने से किसको फर्क पड़ने वाला था?’
यहां से भंवर के वैचारिक बदलाव की शुरुआत होती है. संघ के भीतर की अनेक सच्चाइयां अब उनके सामने खुलने लगीं. कार सेवा के लिए अयोध्या रवाना होते वक्त का वह सच कि ‘सारे बड़े लोग, उद्योगपति, संघ प्रचारक, विहिप नेता और भाजपाई लीडरान ट्रेन से उतर गए. रह गए हम जैसे जुनूनी दलित, आदिवासी तथा पिछड़े व गरीब वर्ग के युवा…. वे समझदार लोग सदैव हम जैसे जुनूनी लोगों को लड़ाई में आगे धकेलकर अपने-अपने दड़बों में लौट जाते हैं.’ यह भी कि संघ से ‘न केवल औरतें अलग रखी गईं, बल्किश्रमिक, दलित, आदिवासी, किसान लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, चित्रकार, इन सबको भी अलग-अलग संगठन बनाकर खपाया गया ताकि संघ का मूल स्वरूप इनसे प्रभावित न हो.’ एक बार भंवर ने ‘प्रचारक’ बनने की ठानी तो टरका दिया गया. तब वे गौर करते हैं कि ‘अब तक ज़्यादातर ब्राह्मण ही सरसंघचालक हुए हैं. संघ के उच्च स्तर पर दलित, आदिवासियों और पिछड़ों की उपस्थिति नगण्य है.’
तब भंवर तय करते हैं कि ‘मैं संघ को न केवल नकार दूंगा, बल्कि उनके द्वारा मेरे साथ किए गए जातिगत भेदभाव को भी सबके सामने उजागर करूंगा. इस दोगले हिंदुत्त्व और पाखण्डी हिंदू राष्ट्र कीअसलियत से सबको वाकिफ़ करवाना मेरा आगे का काम होगा….. मैंने अपनी व्यक्तिगत पीड़ाऔर अपमान को निजी दुश्मनी बनाने की बजाय सामाजिक समानता, अस्मिता एवं गरिमा की सामूहिक लड़ाई बनाना तय किया और एक प्रतिज्ञा की कि मैं हर प्रकार से संघ और संघ परिवार के समूहों तथा उनके दोगले विचारों को बोलकर, लिखकर और अपने क्रियाकलापों के जरिए मुखालफ़त करूंगा. यह जंग जारी रहेगी, आजीवन, अनवरत, मरते दम तक.’
तबसे आज तक भंवर मेघवंशी इस प्रतिज्ञा का पालन कर रहे हैं. उन्होंने अखबार निकाले, दलित-उत्पीड़न और साम्प्रदायिक दंगों के घटनास्थल का दौरा करके रिपोर्ट लिखी, जगह-जगह भाषण दिए, किताबें लिखीं और संघ परिवार की साजिशों की पोल खोलते हुए उसका का पुरजोर विरोध किया. आज भी उनकी लड़ाई जारी है. इस दौरान उन्हें दमन, दुष्प्रचार, आदि का सामना करना पड़ा. परिवार पर भी मुसीबतें आईं मगर परिवार उनके साथ खड़ा है, बल्कि उनकी अगली पीढ़ी उन्हीं बराबर उनके रास्ते पर चल रही है. पिता तो हर समय भरी बंदूक साथ रखते हैं.
‘मैं एक कारसेवक था’ को पढ़ना संघ की साम्प्रदायिक, फासीवादी गलियों से होते हुए आम्बेडकरवाद की ओर सचेत यात्रा से गुजरना है. यह यात्रा सिद्धांत बघारकर नहीं, गैर-बराबरी का दंश भोगते-जीते हुई है. इसलिए इसमें समाज का असली चेहरा विश्वसनीयता के साथ बेपर्दा हुआ है. सन 2000 के गुजरात नरसंहार का यह सच कितने लोग जानते-समझते हैं, जो भंवर ने अपने दौरे और बातचीत में देखा-महसूसा- ‘गुजरात नरसंहार में दलित एवं आदवासियों का बड़े पैमाने परदुरुपयोग किया गया. लूटपाट और मारपीट के दौरान मची अफरातफरी के दरमियान पुलिस की गोली का शिकार होने वाले इन्हीं वर्गों के लोग थे. मतलब उन ताकतों का खेल सफल रहा जो दलित, आदिवासी और मुस्लिम को आपस में लड़ मरते हुए देखना चाहती थीं. जिन्होंने लड़ाया वे सुरक्षित बने रहे…. आजकल दलित अपने आपको कट्टर हिंदू साबित करने के लिए दंगे-फसाद में सबसे आगे रहते हैं. इन्हें कौन समझाए कि ये जो धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, उनका 80 फीसदी तुम्हारे ही वर्ग से गया है… आज तक हुए फसादात में विहिप, बजरंग दल और संघ के बड़े नेता क्यों शहीद नहीं हुए?’ छोटे-छोटे अध्यायों में लेकिन स्पष्ट्ता से भंवर बताते हैं कि संघ के पदाधिकारी किस तरह युवाओं का ब्रेन वॉश करते और उन्हें दंगा करने तथा शस्त्र प्रशिक्षण देते हैं.
दंगाग्रस्त इलाकों और दलित-उत्पीड़न स्थलों का गहन दौरा करने बाद भंवर फासीवाद की स्पष्ट आहट सुनते हैं और उसके खिलाफ डटकर खड़े होते हैं. निष्कर्षत: वे कहते हैं- ‘वक्त निर्मम है लेकिन चुपचाप प्रतीक्षा करने या तटस्थ रहने से काम चलने वाला नहीं है. यही तो वक्त है हमारे विचार और व्यवहार की परीक्षा का जिसमें हमें खरा उतरना होगा अन्यथा इतिहास हमें और हमारी बौद्धिकता को भी अपराध की श्रेणी में डालेगा.’
भंवर मेघवंशी की 170 पेज की यह किताब अवश्य ही खूब पढ़ी-पढ़ाई जानी चाहिए. नवारुण प्रकाशन को धन्यवाद कि उन्होंने इस किताब को प्रकाशित कर संघ परिवार का मुखौटा उतारने में सहायता की है. पुस्तक मंगाने के लिए 9811577426 पर फोन या navarun.publication@gmail.com ईमेल करें.