गिरिजा पांडे
महामारियों का मिजाज और फैलाव का तरीका हमेशा से अकल्पनीय रहा है। सामाजिक और जीव-उद्विकास की अब तक की कहानी भी यही बताती है कि एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद विषाणु का समाप्त होना असंभव है। यानि दुनियाँ में उसका अस्तित्व हमेशा बना रहेगा। अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा होने पर वह बार-बार फैल कर समाज को आतंकित करता रहेगा। हमारे ऐतिहासिक अनुभव भी हमें यही बतलाते रहे हैं।
दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि युद्धों ने हमेशा महामारियों को दूर-दूर तक फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई। युद्धग्रस्त क्षेत्र में सेनाओं के एक इलाके से दूसरे इलाके में आवागमन के साथ-साथ बड़ी संख्या में होने वाले नागरिक पलायन ने इन परिस्थितियों को और अधिक गंभीर बनाया जिस कारण बीमारी तेजी से फ़ैलती चली गई थी।
इधर रूस-उक्रेन युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों ने हालात एक बार फिर चिंताजनक बना डाले हैं। कोविड से बचाव के लिए मास्क पहनने, भीड़भाड़ से बचने और शारीरिक दूरी बनाए रखने की आवश्यकताओं के बीच युद्ध ग्रस्त इलाके में फँसे हताश नागरिकों के लगातार हो रहे पलायन ने असामान्य परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं। यूँ भी कुछ समय से पूर्व यूरोपीय देशों, खासकर रोमानिया, हंगरी, पोलैंड, आदि में मंडरा रहे ओमिक्रोम के संक्रमण के खतरे के बीच खबरें आ रही हैं कि इन देशों में अभी तक 10 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थियों के रूप में आ चुके हैं।
कोविड-19 महामारी को फैले आज 2 वर्ष हो चुके हैं और दुनिया में अब तक यह महामारी लगभग 60 लाख लोगों की जान ले चुकी है और खतरा अभी भी बरकरार है। हालांकि यह महामारी धीरे धीरे कमजोर पड़ रही है फिर भी यह कहना मुश्किल है कि कब यह पूरी तरह चली जाएगी।
खबरों से पता चलता है कि अभी भी दुनिया के कई हिस्सों में यह संक्रमण फैल रहा है। चीन में पिछले दो वर्षों में प्रतिदिन इस बीमारी की चपेट में आने वाले लोगो की औसत संख्या की तुलना में इधर प्रतिदिन संक्रमित होने वाले व्यक्तियों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ने लगी है।
महामारियों के संदर्भ में उत्तराखंड के इतिहास को देखने से पता चलता है कि पिछली शताब्दियों में यहाँ आई महामारियों का गाँवों में संक्रमण न केवल लंबे समय तक बने रहे, बल्कि बड़ी संख्या में लोगों को अपनी जान भी गँवानी पड़ी। 19वीं सदी के दूसरे दशक में मंदाकिनी घाटी में फैली प्लेग महामारी धीरे-धीरे लोगों के एक दूसरे के संपर्क में आने से घाटी के दूसरे गाँवों में फैलती चली गई।
उस समय के सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि मात्र 15 साल के भीतर (1837 में) प्लेग बधाण समेत पिंडर नदी के ऊंचाई वाले गाँवों में फैल गया था। दस वर्षों के भीतर (1847 तक) इस महामारी ने पश्चिमी रामगंगा के स्रोत की ओर के बड़े इलाकों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे।
गढ़वाल के तत्कालीन सीनियर असिस्टेंट कमिश्नर जान स्ट्रेची ने 1849 की अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया है कि 3 दशकों से कुमाऊँ और गढ़वाल में ये बीमारी बनी हुई है। बीमारी ने खासकर छपराकोट, चांदपुर परगनों के मरोड़ और दड़ोली गाँव में कहर बरपाया हुआ है और यह महामारी एक बार फिर पिंडर घाटी में अपना सिर उठाने लगी है।
1850 में डॉ रैने के नेतृत्व यहाँ भेजे गए जाँच दल ने अपनी प्रारम्भिक पड़ताल में पाया था कि इलाके के केवल नौं गाँवों में ही 113 लोग काल-कवलित हुए थे और यह महामारी गाहे-बगाहे अपना सर उठाती रही है। डॉ पीयर्सन और असिस्टेंट सीनियर सर्जन श्रीनाथ मुखर्जी की रिपोर्ट इस बात का जिक्र करती है कि सर्दी-जुखाम, सिरदर्द और उल्टी जैसे प्रारम्भिक लक्षणों वाली इस बीमारी को सामान्य बीमारी समझने की गलती कर रहे लोग पाँच से छः दिन के भीतर काल के ग्रास बन जा रहे थे।
1834 में इस महामारी से मारे गए लोगों की संख्या 633 थी और 1852 में मरने वालों की संख्या 567 (केवल 77 गाँवों में) पहुँच चुकी थी। 1859 में, महज सात वर्षों के भीतर, मरने वालों का आंकड़ा 1000 हो गया था। एक अन्य सर्वे में डॉ प्लेङ्क ने 277 लोगों के मारे जाने की सूचना दी थी। इसी तरह जून 1877 में कुमाऊँ कमिश्नर ने प्रांतीय सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इस अवधि में कुमाऊँ में 238 लोगों (105 पुरुष, 69 महिलाएँ और 64 बच्चे) और गढ़वाल में 297 लोगों (199 पुरुष, 73 महिलाएँ और 25 बच्चे) की मृत्यु हुई थी। 1888 में इस महामारी से नागपुर परगने में 5, देवलगढ़ में 16 और बधाण में 5 लोग काल-कवलित हुए।
1889-89 में इलाके से कोई मामला न आने पर ऐसा माना जाने लगा कि अब महामारी खत्म हो चुकी है, लेकिन उसके अगले ही वर्ष यह महामारी फिर प्रकट हो गई और बधाण परगने की कड़ाकोट पट्टी में इसने 6 लोगों की जान ले ली। इस तरह पूरी शताब्दी में गाँवों में अकेले प्लेग सरीखी महामारी का आतंक लगातार बना रहा।
संक्रमण कैसे फैल रहा था यह बताने के लिए महामारी को लेकर बनी रिपोर्ट के एक द्र्ष्टांत का उल्लेख वर्तमान संदर्भ में उचित होगा। अभिलेखों के अनुसार नाकुरी पट्टी के सुरकाली गाँव में बुखार से पीड़ित पुणगीर के हालचाल जानने वहाँ से पाँच मील दूर पड़ोस के गाँव से चचेरा भाई तेजगीर वहाँ आया और शाम ढलते पुंगर नदी पार वापस अपने गाँव लौट आया। इस दौरान मेल-मिलाप में लापरवाही के चलते वह स्वयं भी संक्रमित हो पड़ा और अंततः 3 दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई।
मृत्यु के कारण | 1867 | 1868 | 1869 | 1870 | 1871 | मृतकों की संख्या |
हैजा/कौलरा | 351 | 20 | – | 6 | – | 372 |
चेचक | 47 | 8 | 2 | 1 | 6 | 64 |
बुखार | 1722 | 1659 | 1992 | 2134 | 2551 | 10058 |
दस्त | – | – | 1237 | – | 2076 | 3313 |
चोट | – | – | – | – | 278 | 278 |
अन्य कारण | 2018 | 2915 | 1282 | 2679 | 503 | 9397 |
कुल मृत्यु | 4138 | 4602 | 4513 | 4820 | 5414 | 23487 |
(स्रोत: 1911 की सेंसस रिपोर्ट और ब्रिटिश अभिलेखों से संकलित )
असली चुनौतियाँ
महामारियों पर उपलब्ध औपनिवेशिक अधिकारियों और चिकित्सकों की उपरोक्त रिपोर्टें बताती हैं कि गाँवों के साफ-सुथरे और स्वस्थ वातावरण के बावजूद यह इलाके समय-समय पर भयानक बीमारी की चपेट में आते रहे। यही नहीं, महामारी के शिकार होने वालों में अधिकांश लोग गरीब नहीं बल्कि सम्पन्न परिवारों के थे।
पहाड़ों में बीमारियों के लंबे समय तक बने रहने को लेकर 1849 में स्ट्रेची और बाद के वर्षों में अधिकारियों द्वारा किए गए इशारे आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं इसलिए उससे सबक लिए जाने की जरूरत है। यहाँ पर 1946 में भारत में स्वास्थ्य को लेकर गठित की गई भोर समिति की रिपोर्ट का जिक्र करना उचित होगा। समिति ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि “हमें कस्बों में स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी परिस्थितियों को सुनिश्चित करना चाहिए। रहने के लिए घर, शुद्ध पेयजल और स्वछता, स्वस्थ जीवन की पहली शर्त है। बिना इसके हमारे कस्बे बीमारियों के कारखाने बने रहेंगे और चिकित्सा की कमी कभी न समाप्त होने वाली मांग को द्विगुणित करती रहेगी”। समिति ने यह भी कहा कि “समय से पूर्व संक्रामक रोगों और महामारियों की पहचान और निवारण के लिए प्रभावी व्यवस्थाएँ बनाई जानी चाहिए और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में इसे शीर्ष प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”
आज महामारी ने हमारे जीवन को कई मायनों में बदल डाला है। कोविड-19 जन्य परिस्थितियाँ मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। जैसे-जैसे यह महामारी कमजोर पड़ती जा रही है ‘केव सिंड्रोम’, ‘कोरोनाफ़ोबिया’ ‘कोविड स्ट्रैस’, ‘एडजेस्टमेंट डिसआर्डर’ और ‘एगोरफोबिया’ जैसी कई नई तरह की मानसिक समस्याएँ उत्पन्न होने लगी हैं। बीमारी और विषाणुओं को लेकर पारम्परिक समझ, अंधविश्वास और सामाजिक व्यवहार की जड़ता से लोगों को बाहर निकालना अत्यंत आवश्यक है। हमें यह सुनिश्चित करना ही होगा कि समाज में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने और उत्तरदायी समाज व्यवस्था बनाने के लिए उचित कदम बढ़ाये जाए, वरना महामारियाँ हमें इसी तरह लीलती रहेंगी। कोविड सरीखी महामारियों से लड़ने के लिए रणनीतिक और नीतिगत बदलाव लाया जाना जरूरी है। ऐसी महामारियों का सामना करने के लिए सरकारों को आपदा प्रबंधन कानून लागू करने और मृत्युदर (mortality) व रुग्णता(morbidity) केन्द्रित नजरिए से हटकर सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक चेतना के विमर्श को केंद्र में लाना होगा।
दरअसल हमें अपने लोगों के जीवन को सर्वोच्च प्राथमिकता देने वाले औपनिवेशिक शासकों की समझ पर अवश्य गौर करने और अतीत से सबक लेने का प्रयास करना चाहिए वरना महामारी से पहाड़ों को निजात दिला पाना चुनौती भरा काम होगा।