भारत के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े ने मंगलवार दोपहर को एनआईए के सामने सरेंडर कर दिया.
इन दोनों की गिरफ़्तारी पर एमनेस्टी इंडिया ने कहा है कि कोविड-19 महामारी के समय में भी असहमति की आवाज़ को दबाया जा रहा है. एमनेस्टी इंडिया ने अपने बयान में कहा है, “महामारी के समय में भारत सरकार उन लोगों को निशाना बना रही है जो सरकार के आलोचक हैं.”
आत्मसमर्पण करने से पहले आनंद तेलतुंबड़े ने अंग्रेज़ी में एक खुला खत लिखा है, उसका संपादित हिंदी अनुवाद पढ़ें-
“मुझे पता है कि बीजेपी-आरएएस के सुनियोजित शोर और उनकी सेवक मीडिया के दौर में मेरी यह चिट्ठी कहीं खो जाएगी लेकिन मुझे लगता है कि आपसे बात करनी चाहिए, मुझे मालूम नहीं है कि मुझे आपसे बात करने का दूसरा मौका मिले या न मिले.
अगस्त 2018 में जब पुलिस ने गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट के फैकेल्टी हाउसिंग परिसर के मेरे घर पर छापा मारा उसके बाद से मेरी दुनिया पूरी तरह लड़खड़ा गई है. मेरे साथ ऐसी चीज़ें होने लगीं हैं जिनके बारे में मैंने दुस्वप्न में भी नहीं सोचा था.
हालांकि मुझे पता था कि मेरे व्याख्यानों के आयोजकों से पुलिस मेरे बारे में पूछताछ करके उन्हें डराती है. मुझे लगा कि वे मेरे भाई और मुझे लेकर शायद गफ़लत में हैं, मेरा वह भाई जो वर्षों पहले हमारे परिवार से अलग हो गया था. जिन दिनों मैं आईआईटी खड़गपुर में पढ़ा रहा था, बीएसएनएल के एक अधिकारी ने मुझे फ़ोन करके अपना परिचय दिया, और बताया कि मेरा फ़ोन टैप किया जा रहा है. मैंने उसका शुक्रिया अदा किया, लेकिन इसके बाद मैंने कुछ नहीं किया, अपना सिम भी नहीं बदला.
इस तरह की घुसपैठ से मैं थोड़ा परेशान हुआ लेकिन मैंने खुद को समझाया कि पुलिस को शायद समझ में आ जाए कि मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ और मेरे व्यवहार में कुछ भी ग़ैरकानूनी नहीं है. पुलिस आम तौर पर जनता के अधिकारों की बात करने वालों को नापसंद करती है क्योंकि वे पुलिस के रवैए पर सवाल उठाते हैं. मैंने कल्पना की कि मेरे साथ ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि मैं उसी बिरादरी का हूँ. मैंने अपने आपको एक बार फिर समझाया कि मैं इस भूमिका में ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता ये बात वो लोग समझ जाएँगे क्योंकि मैं अपनी पूर्णकालिक नौकरी में बहुत व्यसत हूँ.
लेकिन मेरे इंस्टीट्यूट ने निदेशक ने जब सुबह-सुबह फ़ोन करके मुझे बताया कि पुलिस ने परिसर पर छापा मारा है और वे मुझे ढूँढ रहे हैं, तब कुछ सेकेंड के लिए मैं बिल्कुल अवाक रह गया. कुछ ही घंटे पहले दफ़्तर के काम से मैं मुंबई पहुँचा था और मेरी पत्नी पहले से ही आई हुई थी. उसी दिन कई और लोगों के घरों पर छापे और गिरफ़्तारी की खबर के बारे में पता चला तो मैं सदमे में आ गया, मुझे लगा कि मैं किस्मत से बाल-बाल बच गया हूँ.
पुलिस को यह पता था कि मैं कहाँ हूँ और वे मुझे गिरफ़्तार कर सकते थे, लेकिन यह वही बता सकते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया. उन्होंने सिक्यूरिटी गार्ड से जबरन डुप्लीकेट चाभी लेकर हमारा घर खोला, वीडियो बनाया और घर पर दोबारा ताला लगा दिया. यहीं से हमारी मुसीबतों का दौर शुरू हुआ.
वकीलों की सलाह के बाद मेरी पत्नी अगली फ़्लाइट से गोवा पहुँचीं और उन्होंने बिचोलिम थाने में शिकायत दर्ज कराई कि हमारा घर हमारी गैर-मौजूदगी में पुलिस ने खोला है इसलिए अगर उन्होंने वहाँ कुछ प्लांट कर दिया हो तो हम उसके लिए ज़िम्मेदार नहीं होंगे. उन्होंने अपने नंबर भी दिए ताकि तफ़्तीश के लिए पुलिस हमें फ़ोन कर सके.
माओवादी कहानी की शुरूआत से ही पुलिस अजीब तरीके से प्रेस कॉन्फ्रेंस करने लगी. साफ़ तौर पर इसका मकसद मेरे और गिरफ़्तार किए गए दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ जनता में पूर्वाग्रह को बढ़ावा देना था, इसमें मीडिया मददगार की भूमिका निभा रहा था.
31 अगस्त 2018 को पुलिस ने ऐसे ही एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में एक चिट्ठी पढ़ी, जिसके बारे में बताया गया कि उसे गिरफ़्तार किए गए एक व्यक्ति के कंप्यूटर से बरामद किया गया है, इस चिट्ठी को मेरे ख़िलाफ़ सबूत के तौर पर पेश किया गया. इस चिट्ठी में अस्त-व्यस्त ढंग से एक एकेडेमिक कॉन्फ्रेंस की जानकारी डाली गई थी जिसमें मैंने हिस्सा लिया था, यह जानकारी अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेरिस की वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध थी.
शुरू में तो मैं इस पर हँसा लेकिन बाद में मैंने उस पुलिस अधिकारी के ख़िलाफ़ सिविल और क्रिमिनल मानहानि का मुक़दमा करने का फ़ैसला किया, और मैंने 5 सितंबर 2018 को महाराष्ट्र सरकार को प्रक्रिया के तहत एक चिट्ठी भी लिखी. आज तक महाराष्ट्र सरकार का कोई जवाब नहीं मिला है. जब हाइकोर्ट ने फटकार लगाई तब जाकर पुलिस के प्रेस कॉन्फ्रेंस होने बंद हुए.
जब पुणे पुलिस ने मुझे ग़ैर-कानूनी तरीके से गिरफ़्तार किया, उस वक्त मुझे सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण हासिल था, हिंदुत्व के साइबर गिरोह ने मेरे विकीमीडिया पेज से छेड़छाड़ की. यह एक पब्लिक पेज है और मुझे वर्षों तक इसके बारे में जानकारी नहीं थी. पहले तो उन्होंने मेरे बारे में लिखी सारी बातें मिटा डालीं, फिर लिखा गया, “इसका एक माओवादी भाई है, इसके घर पर छापा मारा गया था, इसे माओवादियों के साथ संबंधों की वजह से गिरफ़्तार किया गया है.” वगैरह…
कुछ छात्रों ने मुझे बाद में बताया कि जब भी उन्होंने मेरे पेज को ठीक करने की कोशिश की या पेज को एडिट करना चाहा, गिरोह दोबारा आ जाता था और सब कुछ डिलीट करके अपमानजनक चीज़ें डाल देता था. आख़िरकार, विकीमीडिया को बीच में आना पड़ा, और मेरा पेज उनके कुछ नेगेटिव कमेंटों के साथ किसी तरह स्टेबलाइज़ हुआ.
इसके बाद मीडिया में हमलों की शुरूआत हुई, आरएसएस से जुड़े नक्सल मामलों के कथित विशेषज्ञों ने हर तरह की अनर्गल बातें कीं. इंडिया ब्रॉडकास्टिंग फ़ाउंडेशन से भी मैंने चैनलों के ख़िलाफ़ शिकायत की लेकिन एक मामूली जवाब तक नहीं मिला.
इसके बाद अक्तूबर 2019 में पेगासस जुड़ी ख़बर सामने आई कि सरकार ने मेरे फ़ोन में एक खतरनाक इसराइली स्पाइवेयर डाल दिया था. इस पर मीडिया में थोड़ी देर के लिए तो हंगामा हुआ लेकिन यह गंभीर मामला भी अपनी मौत मर गया. मैं एक साधारण आदमी हूँ जो अपनी रोटी ईमानदारी से कमाता है और अपनी जानकारी से लोगों की हरसंभव मदद अपनी लेखनी के ज़रिए करने की कोशिश करता है.
मेरा पाँच दशकों का बेदाग रिकॉर्ड है, मैंने कॉर्पोरेट दुनिया में, एक शिक्षक, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी के तौर पर अलग-अलग भूमिकाओं में देश की सेवा की है. मेरे लेखन की लंबी सूची है जिसमें 30 से अधिक किताबें हैं, ढेर सारे शोध पत्र, लेख, कॉलम और इंटरव्यू हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुए हैं. उन सबमें हिंसा या विध्वंस का कोई समर्थन आपको नहीं मिलेगा.
लेकिन मेरे जीवन के अंतिम सालों में बहुत ही दमनकारी यूएपीए कानून के तहत मुझ पर गंभीर अपराध के आरोप लगाए जा रहे हैं. मेरे जैसा कोई भी व्यक्ति सरकारी प्रोपगैंडा और सरकार-सेवक मीडिया का मुक़ाबला नहीं कर सकता. इस मामले के विवरण इंटरनेट पर बिखरे पड़े हैं, और वे इस बात के लिए काफ़ी हैं कि कोई भी यह समझ सकता है कि यह फर्ज़ी और आपराधिक ढंग से मनगढंत मामला है. एआईएफ़आरटीई की वेबसाइट पर इस मुक़दमे का सारांश पढ़ा जा सकता है.
आपके लिए मैं उसे यहाँ रख रहा हूँ. पुलिस ने पाँच पत्रों के आधार पर यह केस तैयार किया है, ये पत्र गिरफ़्तार किए गए दो लोगों के कंप्यूटरों से बरामद किए गए थे, इस तरह के कुल 13 पत्रों की बरामदगी की बात कही गई थी. मेरे पास से कुछ बरामद नहीं किया गया. पत्रों में “आनंद” लिखा है जो भारत में एक बहुत ही आम नाम है लेकिन पुलिस बिना किसी शक या सवाल के उस आनंद की पहचान मेरे बतौर कर रही है.
इन पत्रों के स्वरूप और उनकी सामग्री चाहे कुछ भी हो, इसे जानकार खारिज कर चुके हैं, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के एक जस्टिस भी इसमें शामिल हैं. पूरी न्यायपालिका में वे अकेले व्यक्ति हैं जिन्होंने सबूतों के प्रकार पर ग़ौर किया. इन पत्रों में ऐसी कोई बात नहीं लिखी है जिसे किसी भी तरह से किसी मामूली अपराध से भी जोड़ा जा सके. लेकिन दमनकारी यूएपीए कानून की आड़ में ये सब कुछ कर रहे हैं जो बचाव का कोई रास्ता नहीं देता, मैं जेल भेजा जा रहा हूँ.
केस को आप इस तरह समझ सकते हैं. अचानक एक पुलिस दल आपके घर आता है, बिना कोई वारंट दिखाए आपके पूरे घर को बिखेरकर रख देता है. अंत में आपको गिरफ़्तार करके एक पुलिस लॉकअप में रखा जाता है. कोर्ट में वे कहते हैं कि एक चोरी के मामले (या कोई और मामला) की जाँच के दौरान, फलाँ शहर (भारत का कोई भी शहर) में एक कंप्यूटर या पेन ड्राइव फलाँ व्यक्ति (कोई भी नाम) से मिला. इसमें किसी प्रतिबंधित संगठन के किसी सदस्य की लिखी हुई चिट्ठियाँ मिली हैं जिसमें अमुक नाम है, और पुलिस के हिसाब से वह अमुक व्यक्ति आप ही हैं, कोई और नहीं. वे आपको एक गहरी साज़िश के भागीदार की तरह पेश करेंगे.
अचानक आप पाएँगे कि आपकी पूरी दुनिया उलट-पुलट हो गई है. आपकी नौकरी चली गई है, परिवार का घर छिन गया है, मीडिया आपको बदनाम कर रही है और आप इस सबको रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकते. पुलिस अदालत को राज़ी करने के लिए सीलबंद लिफ़ाफ़े पेश करेगी कि आपके ख़िलाफ़ पहली नज़र में मामला बनता है इसलिए गिरफ़्तार करके आपसे पूछताछ की अनुमति दी जाए. जज यह दलील नहीं सुनेंगे कि कोई सबूत नहीं है, वे कहेंगे कि सुनवाई में देखा जाएगा. कस्टोडियल पूछताछ के बाद आपको जेल भेज दिया जाएगा.
आप ज़मानत की अर्ज़ी लगाएँगे और अदालतें उसे रद्द कर देंगी. इस तरह के मामलों में ऐतिहासिक तौर पर डेटा यही दिखाता है कि व्यक्ति को ज़मानत मिलने या दोषमुक्त साबित होने में 4 से 10 साल तक का समय लगता है. और ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है. ‘राष्ट्र’ के नाम पर ऐसा दमनकारी कानून लागू करके बेकसूर लोगों से उनकी नागरिक स्वतंत्रता और सभी संवैधानिक अधिकार छीन लेने को वैधानिक मान्यता मिल जाती है.
अंध राष्ट्रवाद को राजनीतिक वर्ग ने हथियार बना लिया है और उसके ज़रिए लोगों का ध्रुवीकरण करके प्रतिरोध को ख़त्म किया जा रहा है. इस सामूहिक उन्माद में तर्क को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी गई है, शब्दों के अर्थ उलट गए हैं, देश को बर्बाद करने वाले देशभक्त और निस्वार्थ सेवा करने वाले देशद्रोही बना दिए गए हैं. मैं अपने भारत को बर्बाद होते हुए देख रहा हूँ. मैं बहुत क्षीण आशा के साथ इस संकट के समय में आप सबको लिख रहा हूँ.
मैं एनआईए की कस्टडी में जा रहा हूँ. मैं नहीं जानता कि आपसे दोबारा कब बात कर पाऊँगा. मैं उम्मीद करता हूँ कि आप बोलेंगे, और अपनी बारी आने से पहले बोलेंगे”.
आनंद तेलतुंबड़े
बीबीसी हिंदी से साभार