डीटीई स्टाफ
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार
लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं, बीज बचाने की प्रेरणा कहां से मिली ? हालांकि, हर कोई इसका जवाब भी जानता है। बीज बचाने की प्रेरणा मनुष्य ने खुद से ही ली है। मनुष्य की चाहत होती है अपनी नस्ल को आगे बढ़ाने की। हम खुद ही तो प्रकृति के बीज हैं। अगर हम आज बीज को नहीं बचाएंगे तो कल हमारे बच्चों का पोषण कैसे होगा? अब तो सभी को यह पता है कि दुनिया में बड़ी लड़ाई बीजों को लेकर हो रही।
बीज पर कब्जा कर दुनिया पर कब्जा किया जा रहा है। “जोत जिसकी, बीज उनके ही” की मांग देश के कोने-कोने से उठ रही है। जो अपने आगे के लिए बीज बचाएगा, वही खेती के मामले में आत्मनिर्भर हो पाएगा। इसलिए, अपने खेत को और बच्चों के भविष्य को बचाने के लिए बीज बचाने की मुहिम शुरू की।
मैं अपनी सही उम्र नहीं बता सकती। हां, देसी बीजों को बचाते लंबा वक्त हो चला है। इन बीजों की बचत से मेरा परिवार भोजन और पोषण को लेकर सुरक्षित है। मेरे गांव का नाम हुमनापुर है जो तेलंगाना के मेडक जिले में पड़ता है। पिछले चार दशक से मैं अपने परिवार के संग दलहन और बाजरा की खेती करते आ रही हूं। खेती करने की शुरुआत के साथ ही बीज को लेकर समझ बनी। अगर, अपनी फसलों की गुणवत्ता को अपने तरीके से आगे की पीढ़ी के लिए बचाना है तो उसके लिए बीज बचाना जरूरी है।
आज के समय की बात की जाए तो मैं 90 से अधिक स्वदेशी फसलों के बीज का संरक्षण कर रही हूं। दलहन, तिलहन और बाजरे के बीजों को संरक्षित करने के लिए पड़ोसी संगारेड्डी जिले के पास्तापुर गांव में एक बीज बैंक में ले जाती हूं, जहां इन्हें संरक्षित किया जाता है। इनमें माॅनसून आधारित धान, मक्का, स्थानीय काले चने और लाल ज्वार आदि शामिल हैं। मेरा गांव ऐतिहासिक रूप से बीज-बचत के लिए ही जाना जाता है। गांव की इस प्रसिद्धि के पीछे है महिला किसानों की मेहनत। हम सब बीजों को संरक्षित करने के लिए 1: 2 अनुपात प्रणाली का पालन करते हैं। इसका मतलब होता है कि एक बीज अगले वर्ष उपयोग के लिए बचा लिया जाता है, जबकि दो बीज या तो दूसरे परिवारों को दे दिए जाते हैं या बेच दिया जाता है।
हमारी इस आनुपातिक प्रणाली का सबसे अधिक लाभ वास्तव में दलित परिवारों को हुआ है। इस प्रणाली के तहत उन्हें हम मुफ्त में बीज देते हैं ताकि वे अपनी फसल लगा सकें। इसके अलावा गांव के ऐसे परिवार जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, उन्हें भी इस प्रणाली का लाभ मिला है। मैं तो यहां तक कहती हूं कि इससे न केवल गरीब परिवारों के लिए बीज आसानी से मिलते हैं बल्कि उनके भोजन की सुरक्षा भी तय होती है।
पिछले दशकों से देख रही हूं कि पुरुष किसान मिश्रित फसल की जगह नगदी फसलें उगाने लगे हैं। लेकिन, महिला किसानों के लिए अब भी मिश्रित फसलें ही प्राथमिकता के रूप में बनी हुई हैं। धान और गन्ने जैसी नकदी फसलों के लिए उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी और पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती है, जबकि बाजरा और अन्य अनाज की स्वदेशी किस्में व्यापक सिंचाई की आवश्यकता के बिना लाल और काली मिट्टी में जीवित रह सकती हैं। इससे हमें खरीफ और रबी दोनों मौसम में खेती करने का मौका मिलता है।
वास्तव में देखा जाए तो वर्षों से देसी फसलों ने ही खेतों की भूमि के स्वास्थ्य और उर्वरता को बेहतर बनाने में मदद की है। यहां तक कि माॅनसून के दौरान उगने वाली हरी सब्जियों की 50 से अधिक प्रजातियां हैं जिन्हें आम तौर पर खरपतवार माना जाता है। लेकिन, ये सब्जियां स्वदेशी समुदायों को पर्याप्त पोषण देती हैं।