राजीव लोचन साह
उस वक्त लाला गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया ने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि बापू फिर कभी ताकुला आयेंगे। उन्होंने तो बस अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा के कारण ‘गांधी मन्दिर’ का निर्माण कर दिया, ताकि इस इमारत के बहाने वे हमेशा अपने आप को बापू के नजदीक महसूस कर सकें। न उस वक्त उन्होंने यह सोचा होगा कि बहुत मन लगा कर ‘गोविन्द नगर’ नाम की यह जो बस्ती वे बसा रहे हैं, जिसे उन्होंने नैनीताल से पानी के पाईप लाकर पानी की आपूर्ति से और टेलीफोन तथा फ्लश वाले आधुनिक शौचालयों से सुसज्जित कर दिया है, उसे गांधी जी के इन्हीं दौरों के कारण उन्हें कभी छोड़ना भी पड़ेगा।
मगर गांधी जी दुबारा ताकुला आये। इस बार वे पूरे पाँच दिन ताकुला रहे। मगर यह दौरा 1929 के दौरे की तरह ‘काम के साथ-साथ आराम’ वाला नहीं था। उन्हें इस बार बहुत से काम निपटाने थे और कुछ जरूरी नतीजों पर पहुँचना था। बहुत सी बातें उनके दिमाग में उमड़-घुमड़ रही थीं।
यह बहुत उत्तेजना और गहमागहमी वाला वक्त था। डांडी मार्च और नमक सत्याग्रह के दौर में ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाये गये दमन चक्र के क्रम में वे लगभग 9 माह यरवदा जेल में रह कर जनवरी अन्त में रिहा हुए थे। मार्च में गांधी इरविन समझौता भी हो चुका था। जैसा कि उन्होंने दीनबन्धु एण्ड्रूज को लिखे एक पत्र में जिक्र किया था, मार्च में ही हुए कांग्रेस के कराची सम्मेलन ने उन्हें बुरी तरह थका दिया था। मगर अपने स्वास्थ्य से अधिक वे राजनीति में बढ़ रही हिंसा और साम्प्रदायिकता से चिन्तित थे। वायसराय लॉर्ड इरविन के साथ हुआ समझौता ब्रिटिश शासन के निचले स्तर के अधिकारियों द्वारा अनमने और अधूरे ढंग से लागू किये जाने के कारण उनमें निराशा थी। यहाँ तक कि सितम्बर में लन्दन में प्रस्तावित दूसरी गोल मेज बैठक में भाग लेने जाने के औचित्य के बारे में उनके मन में शंका पैदा होने लगी थी। उस वक्त श्रीलंका गये हुए जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र में 18 मई के आसपास नैनीताल पहुँचने के अपने इरादे की जानकारी देते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा था कि हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं हुई तो लन्दन जाना नहीं हो सकेगा और आग्रह किया था कि तुम्हारे (पंडित नेहरू के) लौटने के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक होनी चाहिये।
ऐसे तनावपूर्ण वक्त में भी गांधी जी की मस्ती और हाजिरजवाबी उनका साथ नहीं छोड़ती थी। 13 मई को शिमला जाते हुए वहाँ की चुंगी पर कुछ समय के लिये उनकी कार रुकी और मौके का फायदा उठा कर एसोसियेटेड प्रेस का संवाददाता गाड़ी के फुटबोर्ड पर चढ़ गया और उनसे एक ‘स्टोरी’ की माँग करने लगा। हँसते हुए गांधी जी ने कहा, ‘‘आप मेरी कार में पड़े इन फूलों और फूलमालाओं के बारे में लिख सकते हैं।’’ गांधी जी भारत के गृह सचिव एच. डब्ल्यू. इमर्सन के निमंत्रण पर बातचीत के लिये भारत की उस वक्त की ग्रीष्मकालीन राजधानी, शिमला गये थे। 15 मई को उन्होंने लॉर्ड इरविन के स्थान पर आये नये वायसरॉय लार्ड विलिंगडन से भी लम्बी बातचीत की। बातचीत का मुख्य विषय गांधी-इरविन समझौते के लागू न हो पाने का ही था। एक पत्रकार ने जब उनसे पूछा कि क्या वे प्रान्तों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने के पक्ष में हैं और यदि हाँ तो कोई प्रान्त भारत से अलग होने के अपने अधिकार की बात करे तो ? गांधी जी का उत्तर था, ‘‘मैं पूरी तर्कशक्ति से उस (प्रान्त) से लड़ूँगा, मगर अपनी इच्छा शस्त्रों की ताकत से उस पर नहीं थोपूँगा।’’
18 मई 1931 को महात्मा गांधी दूसरी बार ताकुला पहुँचे। बरेली से वे ट्रेन द्वारा लालकुआँ तक आये। स्थानीय कांग्रेसियों द्वारा काठगोदाम में उनके भव्य स्वागत की तैयारियाँ की गई थीं। मगर चूँकि ट्रेन लालकुआँ में एक घंटे से अधिक समय रुकती थी, अतः उन्हें वहीं पर उतार कर कार द्वारा ताकुला ले आया गया। लालकुआँ में उनकी अगवानी करने वालों में पंडित गोविन्द बल्लभ पंत, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, वेंकटेश नारायण तिवारी और मोहन लाल गौतम के अतिरिक्त उनके मेजबान गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया भी थे। इस बार उनके रहने को लेकर कांग्रेसियों की स्थानीय स्वागत समिति के सामने पिछले बार की तरह कोई समस्या नहीं थी। संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर मैल्कम हेली, जिनसे बातचीत के लिये गांधी जी नैनीताल आये थे, ने उन्हें राजभवन में रहने का निमंत्रण दिया था। गुजरात के एक मिल मालिक सर गिरिजा शंकर तथा किदवई नामक एक अन्य उद्योगपति ने भी उनसे अपने साथ रहने का आग्रह किया था। मगर इन दो सालों में बापू और गोविन्द लाल जी में घनिष्ठता बढ़ गई थी और आपस में पत्राचार भी होने लगा था, अतः उन्होंने गोविन्द लाल जी के साथ ही रहना पसन्द किया।
गांधी जी के साथ इस दौरे पर कस्तूरबा, उनके पुत्र देवदास गांधी, महादेव देसाई, जमना लाल बजाज, मीरा बहन, सेठ दामोदर स्वरूप तथा पाँच अन्य लोग थे। इस बार उनके रहने की व्यवस्था उसी ‘गांधी मन्दिर’, जिसकी नींव का पत्थर उन्होंने दो वर्ष पूर्व रखा था, में की गई थी। सोमवार होने के कारण यह उनके मौनव्रत का भी दिन था। अतः बापू हल्द्वानी-नैनीताल मोटर रोड पर दोनों ओर कतारबद्ध खड़े कांग्रेस स्वयंसेवकों के अभिवादन को मंद-मंद मुस्कराते हुए स्वीकार कर ‘गांधी भवन’ पहुँचे।
इस बार बापू का प्रवास अपेक्षाकृत लम्बा था। अतः गोविन्द लाल जी को भी जी भर कर उनका आतिथ्य निभाने का मौका मिला। क्योंकि बापू फलाहार ही करते थे, अतः एक कर्मचारी की ड्यूटी लगी कि वह प्रति दिन रामगढ़, जो पैदल रास्ते से नैनीताल से बारह मील (लगभग बीस किमी.) होता है, से ताजे फल लेकर आये। एक थाली, जिसमें बापू ने फलाहार किया था और उसके बाद वह धोयी भी नहीं गयी, एक स्मृति चिन्ह के रूप में अब भी हमारे पास है। गाय के घी से बापू के पाँव के तलवों की मालिश किये जाने के बाद उसके निशान पड़ी एक चादर भी थी, जो अब नष्ट हो गई है। चाँदी की जिस कन्नी से 1929 में उन्होंने ‘गांधी मंदिर’ का शिलान्यास किया था, वह कन्नी तो अभी सुरक्षित है ही।
उन दिनों को याद करते हुए हमारी नानी, देबकी देवी, बतलाती थीं कि बापू प्रातः 4 बजे प्रार्थना करते थे। देवदार का वह पेड़ अभी भी सुरक्षित है, जिसके नीचे बैठ कर वे प्रार्थना करते थे। वे बतलाती थीं कि प्रार्थना में ‘रघुपति राघव राजाराम’ और ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये’ के अतिरिक्त गीता के कुछ श्लोक, यथा दूसरे अध्याय के ‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव’ आदि होते थे। (प्रसंगवश इस बार गांधी के डेढ सौ साल के अवसर पर मेरी बड़ी इच्छा थी कि 2 अक्टूबर को ताकुला में गांधी मंदिर के अहाते में देवदार के उसी पेड़ के नीचे गांधी जी की वह प्रार्थना करवाऊँ। सेवाग्राम में सुबह-शाम की प्रार्थनाओं में भाग ले चुकने के कारण कुछ अंदाजा भी था। नैनीताल के युवा, ऊर्जावान और गतिशील जिलाधिकारी सविन बंसल ने रुचि भी ली, मगर कतिपय कारणों यह विचार कार्यान्वित नहीं हो पाया।) 11 बजे फलाहार कर वे कुछ समय विश्राम करते थे। शाम 7 बजे उनका रात का भोजन होता था और फिर वे जल्दी ही सो जाया करते थे। उनका बाकी वक्त पढ़ने-लिखने तथा लोगों से मिलने मिलाने में लगता था।
19 मई को नैनीताल के नागरिकों द्वारा उन्हें एक अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया, जिसमें इस बात पर अफसोस व्यक्त करते हुए कि वे गांधी जी के महत् उद्देश्य के लिये कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दे पा रहे हैं, यह कामना की गई थी कि गांधी जी भारतवर्ष में स्वराज्य स्थापित करने का अपने उद्देश्य में सफल हो। अपने उत्तर में गांधी जी ने दो वर्ष पूर्व नैनीतालवासियों से खद्दर का उपयोग करने की अपील की याद दिलाई और कहा कि खद्दर का प्रयोग किये बगैर भारत को स्वराज नहीं मिल सकता।
20 मई को वे संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर मैल्कम हेली से मिलने राजभवन गये। जिस तरह शिमला भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी था, उसी तरह नैनीताल तब संयुक्त प्रान्त की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करता था। गवर्नर से मिलना ही दरअसल इस बार बापू के नैनीताल आने का कारण था। इसके लिये उन्होंने जमींदारों से भी बात की। पूरे उत्तरी भारत में और विशेषकर संयुक्त प्रान्त में किसान परेशान थे। फसल खराब हो गई थी और लगान देना उन्हें भारी पड़ रहा था। कई जगह उन्हें जमीनों से बेदखल किया जा रहा था। गांधी जी गवर्नर से मिल कर किसानों को राहत दिलवाना चाहते थे। उन्होंने जमींदारों के साथ भी एक बैठक की, जिसमें उन्हें किसानों के साथ नर्मी बरतने की राय देने के साथ ही एक चुटीला व्यंग करते हुए उन्होंने कहा कि आप लोग सोने की थाली में तभी खा सकते हैं, जब आपकी रैयत चाँदी की थाली में खाने की हैसियत रखती हो। जब किसान की जिन्दगी दुःख का एक अन्तहीन सिलसिला हो तो आप लोग ऐसी ऐयाशी कैसे कर सकते हैं।
गवर्नर के साथ बातचीत बहुत सफल तो नहीं रही, मगर किसानों का तनाव और असुरक्षा की भावना कुछ कम हुई। ताकुला प्रवास के अन्तिम दिन उन्होंने किसानों के नाम एक अपील जारी की, जिसमें उन्होंने कहा कि सामान्य वक्त में भी किसान के लिये लगान देना आसान नहीं होता और ऐसी खराब फसल में तो आपके कष्ट समझे जा सकते हैं। कांग्रेस आपकी समस्या का समाधान खोजने की कोशिश कर रही है और मैं इसी मकसद से गवर्नर से बात करने आया हूँ। जिन किसानों को लगान न दे पाने के लिये जमीन से बेदखल किया गया है, उन्हें बगैर पेनल्टी के उनकी जमीनें वापस दिलवायी जायेंगी। कुछ जमींदारों द्वारा किसानों पर जोर-जबर्दस्ती करने की शिकायतों के बारे में उनका कहना था कि कांग्रेस ऐसे जमींदारों को समझायेगी और जरूरी होने पर कानूनी लड़ाई भी लड़ेगी।
इससे पूर्व 21 मई को उन्होंने राजनीतिक पीड़ितों की एक सभा को भी सम्बाधित किया। इस सभा में सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही कि जब देश के नागरिकों की औसत आय 40 रुपये प्रति माह है तो किसी व्यक्ति के लिये 500 रु. प्रति माह से अधिक कमाना लूट के धन पर जीना है। ऐसे लोगों को अतिरिक्त पैसा देश को वापस देना चाहिये।
23 मई 1929 को बापू गांधी मंदिर और ताकुला को अलविदा कह कर मथुरा को रवाना हो गये, जहाँ से उन्हें बारडोली जाने के लिये फ्रंटियर मेल पकड़नी थी।
(जारी है)
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।