भुवन चंद्र पंत
बोलियां ही परिष्कृत रूप में भाषा बनकर उभरती हैं । कोई बोली या भाषा का जन्म अनायास नहीं होता, बल्कि एक लम्बे सतत् विकास क्रम के बाद एक बोली या भाषा अस्तित्व में आती है । अगर हमारे समाज से एक भाषा या बोली विलुप्त हो रही है तो इसका मतलब है कि हम हजारों-हजार साल से अर्जित अपनी बौद्धिक सम्पदा कोहम खो रहे हैं । मॉ के दूध के साथ हृदयंगम होने वाले अपनी मॉ के बोलों को जब हम शैशवावस्था में आत्मसात् करते हैं तो बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उसे हम सहज रूप से सीख जाते हैं । लेकिन वही मॉ-बाप यदि अपने बच्चे को तथाकथित आधुनिक बनाने के ललक के पीछे शिशु द्वारा अनायास ही पानी शब्द को सुनकर उसे बच्चे द्वारा पानी दोहराने पर ’वाटर’ बोलने की हिदायत देते और ईजा-बाबू को ’मौम’ व ’डैड’ कहने को मजबूर करते हैं, यहीं से दुदबोली का ह्रास होना शुरू हो जाता है । इसमें दोष उस अबोध शिशु का कतई नहीं होता बल्कि दोषी हैं वे महत्वाकांक्षी मॉ-बाप का है, जो जानबूझकर उसे न केवल अपनी दुदबोली से वंचित कर रहे हैं , बल्कि उसके भाषाज्ञान को भी संकुचित करने का कुत्सित कार्य कर , बच्चे के साथ बौद्धिक अपराध कर रहे हैं ।
पहाड़ में पलायन अपने साथ एक और समस्या लेकर आया है, वह है दुदबोली का धीरे-धीरे विलुप्तीकरण । पहाड़ के गांवों से पलायन कर नगरों व महानगरों में बसने वाले युवा दम्पत्ति अपनी बोली की गठरी यहीं छोड़कर, जब मैंदानों में रहने लगते हैं, तो बच्चों के लिए उनकी नजर में अपनी बोली की कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती । स्वयं अपनी दुदबोली में जब वे आपस में ही नहीं बोलेंगे तो बच्चों के सीखने की अपेक्षा करना एकदम बेईमानी होगी । इस तरह की प्रवृत्ति विशेष रूप से समाज के उस वर्ग में अधिक देखने को मिलती है जो स्वयं तो अभावों के बीच जिये, लेकिन आज थोड़ी तरक्की पा ली तो अपने बच्चों को दुदबोली बोलना उनको पिछड़ेपन की निशानी लगने लगता है । दुदबोली के विलुप्तीकरण के पीछे बीच का वर्ग ज्यादा जिम्मेदार है, जो नगरों व महानगरों को पलायन कर चुका है , न वह बुलन्दियों को छू सका और न अपने समाज,अपने परिवेश के बीच रहने पर उसे सुकून है । कल्पनालोक में विचरण करने वाले ऐसे ही लोग लोकभाषा को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं जब कि इसके विपरीत निम्न वर्गीय ग्रामीण समाज तथा सम्पन्न बौद्धिक वर्ग में लोकभाषा के प्रति अपनत्व अब भी बरकरार है ।
यूनेस्को के ’ एटलस आफ द वर्ल्डस् लैंग्वेजेज इन डेंजर ’ के मुताबिक अकेले उत्तराखण्ड में गढ़वाली, कुमाउनी और रोंगपो सहित दस बोलियां खतरे में हैं । पिठौरागढ़ की दो बोलियां तोल्चा और रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। वहीं उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को अब मात्र 12 हजार लोग बोलते हैं । पिठौरागढ़ की दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड़ और देहरादून की जौनसारी बोलियां खत्म होने के कगार पर हैं।
कुमाउनी बोली के साथ यह स्थिति तब है, जब मनोभावों की अभिव्यक्ति में यह दुनियां की एक ऐसी बोली है, जिसमें हर गन्ध, ध्वनि व स्वाद के लिए अलग-अलग शब्द गढ़े गये हैं और एक ही शब्द के स्वरों के हृस्व एवं दीर्घ उच्चारण से अर्थ भिन्न हो जाता है ।
कुमाउनी बोली के संरक्षण की जब बात आती है , तो मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि यहॉ के साह परिवारों ने अपनी बोली को आज भी जो सम्मान दिया है, उनके इस योगदान को नकारा नहीं जा सकता । साह परिवारों में आज भी परस्पर संवाद में अपनी बोली को ही तरजीह दी जाती है और आज की पीढ़ी में भी इन परिवारों के बच्चे अपनी बोली से उतना ही प्यार करते हैं । हालांकि शहरी वातावरण तथा शिक्षित परिवारों के बीच विकसित इस बोली में अंग्रेजी के शब्द तथा कहीं कही हिन्दी के शब्दों का कुमाउनीकरण भी सहज रूप में देखा जा सकता है और वह कर्णप्रिय भी लगता है । सच तो ये है कि भाषा व बोली को किसी दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता , अगर इसमें देशज व विदेशी शब्दों का भी समावेश हो तो यह भाषा को कमजोर नहीं बल्कि विस्तार ही देता है ।
अपनी बोली के प्रति लगाव ही वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के डॉ0 नागेश कुमार साह को साहित्य की ओर खींच लाया । भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक से सेवानिवृत्त डॉ0साह ने हाल ही में ’’कुमाऊॅनी शब्द सम्पदा’’ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की है , जिसमें लगभग 4000 कुमाउनी शब्दों का कुमाउनी-हिन्दी- अंग्रेजी शब्द कोष तैयार किया है । इसमें कई शब्द ऐसे भी आपको सीखने को मिलेंगे जो ठेठ कुमाउनी होने के बावजूद आपको भी सुनने को ही न मिले हों । जैसे- उड़भुडि (विमूढ़), उण्यात (अधःपतन), उघतियाट (हुड़दंग),उस्ंयांन (छोटा बच्चा), उत्क्याई (प्रेरित) आदि । ये शब्द उदाहरण स्वरूप केवल उ वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्द हैं, ऐसे कई अनसुने कुमाउनी शब्द आपको प्रत्येक वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दों में इस पुस्तक में पढ़ने को मिलेंगेे ।
इसी तरह घ्राण (सूॅघना) यानि गन्ध से संबंधित शब्दों का संग्रह भी पुस्तक में किया गया है । जैसे किड़ैन, खौसेन, गोबरैन, चुरैन आदि 22 शब्दों को ही लिया गया है, जब कि कुमाउनी में गन्ध से संबंधित शब्दों का भी विपुल भण्डार है, जिस चीज की गन्ध उससे संबंधित अलग शब्द । आशा है पुस्तक की द्वितीय आवृत्ति में लेखक इसमें और अधिक ऐसे शब्दों का समावेश करेंगे । इसी तरह मनोभावों को व्यक्त करने के लिए मिशाल के तौर पर 24 शब्दों का उल्लेख हिन्दी अर्थ सहित है , जब कि मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कुमाउनी बोली में ऐसे शब्द हैं, जिनका हिन्दी अथवा दूसरी भाषा में कोई सटीक शब्द ही नहीं मिलता । जैसे कुमाउनी का ’खवाई’ एक ऐसा ही शब्द है ।
कुमाउनी बिम्बों के आधार पर लोकोक्तियों की भी इस कुमाउनी बोली में प्रचुरता है । प्रायः हर संवाद को बल देने अथवा पुख्ता करने के लिए लोकोक्तियों का ही सहारा लिया जाता है । ऐसे ही लोकजीवन में प्रचलित कुल 134 लोकोक्तियों को पुस्तक में स्थान दिया गया है , इस सूची को विस्तार देने की भी काफी संभावना है ।
एकाक्षरी शब्दों के माध्यम से गम्भीर भावों को व्यक्त करने की सामर्थ्य कुमाउनी भाषा में गजब की है । उसमें भी एक ही वर्ण के हृस्व व दीर्घ स्वर के उच्चारण के साथ भाव बदलना इसकी खूबसूरती को और भी बढ़ा देता है । ’द’ और पै ऐसे ही एकाक्षरी शब्द हैं , जो हृस्व रूप में अलग भाव व्यक्त करते हैं जब कि स्वरान्त का दीर्घ उच्चारण ’ दऽऽ’ ’पैऽऽ’ उसमें अधिक गम्भीरता ला देता है ।
युग्म शब्दों का प्रयोग हिन्दी तथा दूसरी भाषाओं में भी बराबर होता है , जैसे ‘रोटी-सोटी’, ’चाय व्हाय’ । लेखक ने कुमाउनी में प्रयुक्त होने वाले शब्द युग्मों का भी पुस्तक में समावेश किया है । गाली यद्यपि सभ्य समाज में अच्छी नहीं मानी जाती लेकिन हैं तो वे भी हमारी बोली व संस्कृति क हिस्सा ही । जब बात कुमाउनी गालियों की आती हैं तो यहॉ गालियां किसी को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के उद्देश्य से ही नहीं दी जाती,बल्कि कुमाउनी गालियांे में भी लाक्षणिक आधार पर प्यार व वात्सल्य का भाव झलकता है । ’रनकरा ’ एक वीभत्स गाली भी है और जब वहीं गाली ईजा अपने प्यारे बेटे को ’ द रनकराऽऽ’ बोलती है, तो उसमें उसका प्यार ही छलकता है । अच्छा होता, यदि कुछ कुमाउनी सुघड़ गालियों को भी पुस्तक में सम्मिलित किया जाता ।
लेखक च्योंकि वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के हैं , फिर भी साहित्य में उनकी रूचि को दिल से सराहा जाना चाहिये, कम से कम कुमाउनी बोली के प्रति लगाव और उसे आने वाली पीढ़ी के लिए पुस्तक के रूप में परोसना श्लाघनीय प्रयास है । विज्ञान को रुचिकर बनाने के लिए जिसप्रकार साहित्य कसनवेष जरूरी है ठीक उसी प्रकार साहित्य को विज्ञान के सहारे तर्कसंगत स्वरूप दिया जा सकता है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पुस्तक में छोटी-मोटी त्रुटियां अवश्य दिखेंगी । यथा- ’कुमाउनी’ को ’कुमाऊॅनी’ और आभार के प्रारम्भिक पृष्ठ पर ’स्मरण’ कराया की जगह ’विस्मृत’ कराया । इसके साथ ही यदि हृस्व और दीर्घ स्वरों को संाकेतिक चिह्नों के माध्यम से लिखा जाता तो गैर कुमाउनी को भी उन शब्दों के अर्थभेद को समझने में आसानी होती । यथा- आम(आम का फल) और आम् (दादी या नानी) ,आद् (अदरक) और आऽद (नमी), काखि(गोद) और काऽखि(चाची) , चाण् (चना) और चाऽण (देखना) आदि । पाठकों को इन छोटी-मोटी भूलो को नजरअन्दाज कर आगामी आवृत्ति में सुधार की अपेक्षा करनी चाहिये ।
सौभाग्य से यदि पाठकों में अपनी बोली के प्रति भविष्य में अनुराग पैदा हो और वो सीखना चाहें तो पुस्तक से बहुत कुछ सीख व समझ सकते हैं और जिस गति से अपनी बोली के प्रति लोगों का मोह भंग हो रहा है ,बदकिस्मती से यदि इसके बोलने वालों की संख्या घटते गयी तो यह एक सन्दर्भ पुस्तक तो बन ही सकती है । लेखक के इस पवित्र उद्देश्य को साधुवाद तो दिया ही जाना चाहिये कि आम पाठकों तक पुस्तक की पहुंच सुलभ हो, इसके लिए उन्होंने पुस्तक को किसी प्रकाशक के माध्यम से बिक्री के बजाय न्यूनतम लागत मूल्य पर स्वयं ही पाठकों तक भेजने का बीड़ा उठाया है ।
सोशल मीडिया के आने से निश्चय ही कुमाउनी बोली के प्रचार-प्रसार में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है, चाहे वह लोकगीतों के माध्यम से हो अथवा विभिन्न कुमाउनी समूहों द्वारा वाद-संवाद के माध्यम से । लेकिन ये भी सच है कि केवल सोशल मीडिया या पुस्तकों के माध्यम से किसी बोली को चिरंजीवी नहीं बनाया जा सकता, जब तक कि आम बोलचाल में इसे प्रयोग में न लाया जाय ।
निश्चय ही ’’ कुमाऊॅनी शब्द सम्पदा’’ ( पुस्तक का शीर्षक यथारूप ही लिखा गया है) पुस्तक कुमाउनी बोली के लिए एक संग्रहणीय पुस्तक है ।
पुस्तक का नाम – कुमाऊॅनी शब्द सम्पदा
लेखक- डॉ0 नागेश कुमार साह , पूर्व प्रधान वैज्ञानिक, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्
प्रकाशक- न्यू आस्था प्रकाशन , लखनऊ
पृष्ठ संख्या- 148
पुस्तक का मूल्य 150 रूपये पार्सल व्यय सहित
( पुस्तक लेखक के मोबाइल नं. 9450077665 पर सम्पर्क कर प्राप्त की जा सकती है)