श्री लक्ष्मी भण्डार, अल्मोड़ा के संस्थापकों में से एक, कुमाउनी रामलीला एवं बैठी होली के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाले शिवचरण पाण्डे का 15 मार्च को 87 वर्ष की अवस्था में देहान्त हो गया। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि देते हुए हम उनका दो साल पहले ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित यह लेख यहाँ पर प्रस्तुत कर रहे हैं। -सम्पादक
शिवचरण पांडे
जब कभी पर्वतीय संस्कृति की चर्चा होती है, विशेषकर कुमाऊनी संस्कृति की, तो स्वतः ही यहां की बैठकी होली गायन का संदर्भ मानस पर उभरने लगता हैं। होली गायन की परम्परा कुमाऊँ में बहुत प्राचीन काल से रही है। यह कहना बड़ा कठिन है कि प्रारम्भिक अवस्था में इसका स्वरूप क्या था। परन्तु यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुमाऊं की यह विधा अपने आप में एक लम्बा इतिहास समेटे हुए है। इसकी गूंज हमें चन्द राजाओं के शासन काल से सुनाई देती है। एक होली धमार गीत की यह अंतिम पंक्ति ‘‘तुम राजा महाराजा प्रद्युम्नशाह, मेरी करो प्रतिपाल, लाल होली खेल रहे हैं’’ इस बात का स्पष्ट आभास देती है कि तत्कालीन राजा-महाराजाओं के दरबार में होली गायन की यह विधा विद्यमान थी, चाहे आम जनमानस में इसका इतना प्रचार-प्रसार न इुआ हो। एक और धमार-गीत की यह अंतिम पंक्ति ‘‘तुम राजा महाराजा प्रद्युम्नशाह, मैं भी तो चेरी उमंग काहे को रिस खाय रही’‘ इसी विश्वास की पुष्टि करती है कि चन्द शासन काल में यह विधा मौजूद थी। इसी तरह की कुछ अन्य गीतों की पंक्तियां इसके विकास क्रम की ओर संकेत करती हैं, जैसे ‘‘केशरबाग लगाया, मजा बादशाह ने पाया’‘ फिर इसी गीत की आगे की पंक्ति ‘‘इतने में आ गई पूबियों की पलटन, गोरे ने बिगुल बजाया‘’ स्पष्ट रूप से मुगल एवं अंग्रेजी शासन काल में भी इसकी उपस्थिति को प्रमाणित करती है।
इसी तरह इस गीत की बानगी देखिये-‘‘हो मुबारक मंजरी फूलों भरी, ऐसी होली खेलें जनाब अली, बारादरी में रंग बनो है, कुंजन बीच मची होरी।’‘ इतना ही नहीं सुर सम्राट तानसेन भी होली-गीतों में छाये हुए हैं- जैसे ‘‘मियां तानसेन आज खेंले होली तुम्हरे दरबार। सप्त सुरन को रंग बनो है और अलाप तान की फुहार।’‘ कुमाउनी के आदि कवि गुमानी द्वारा रचित होली-गीत भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि कुमाऊं में होली गायन की समृद्ध परम्परा सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी थी। हो सकता है कि चन्द राजाओं के शासन काल से पूर्व भी कुमाऊं में होली गायन की परम्परा रही हो (जिसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है), पर इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमारी यह वरदान स्वरूप अनमोल धरोहर आज से 300 वर्ष पूर्व कुमाऊं में अपना स्थान बना चुकी थी। तब चाहे इसका प्रचलन वर्तमान की तरह व्यापक न रहा हो और यह केवल राजदरबारों तक ही सीमित रही हो। इतना अवश्य है कि इसकी जडं़े यहां के जनमानस में अपना स्थान बना चुकी थी। समय के साथ-साथ यह विधा शनैः-शनैः पुष्पित और पल्लवित होती चली गई और इसका वर्तमान स्वरूप कुमाऊनी संस्कृति की एक विशिष्ट पहचान बन चुकी है। हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि कुमाउनी रामलीला और होली-गायन की परम्परा का जन्म और प्रचार-प्रसार सारे कुमाऊं में अल्मोड़ा से ही हुआ और इसी कारण इसे इस सम्पूर्ण क्षेत्र की सांस्कृतिक राजधानी बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। पूर्व में अल्मोड़ा ही कुमाऊं का पर्याय था, क्योंकि आज के पिथौरागढ़, बागेश्वर और चम्पावत जनपद तब अल्मोड़ा के ही भू-भाग थे और कमाबेश यही स्थिति नैनीताल-ऊधमसिंह नगर की थी।
ऐसा कहा जाता है कि उन्सीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बैठकी होली गायन का श्रीगणेश अल्मोड़ा में मल्ली बाजार स्थित हनुमान जी के मंदिर से हुआ। इस स्थान ने तत्कालीन कई सुप्रसिद्ध कलाकारों और होली रसिकों को जन्म दिया, जिनमें प्रमुख थे गांगीलाल वर्मा (गांगी थोक), शिवलाल वर्मा, मोहन लाल साह, चन्द्र सिंह नयाल आदि। हनुमान मंदिर के अलावा गांगी थोक जी के आवास में भी होली की बैठकें जमती थीं, जहां गणिक रामप्यारी जैसी विशिष्ट कलाकार, जो कि ठुमरी, टप्पा, गजल गायकी में सिद्धहस्त थी, को भी सुनने और उनसे कुछ सीखने का अवसर जिज्ञासु रसिकों को मिलता था। इन्हीं दिनों कुछ मुसलमान गायक भी अल्मोड़ा आते रहे। इसमें विशेष रूप से उस्ताद हुसैन का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है, जिन्हांने होली गायकी को एक व्यवस्थित, या कहें कि एक उप-शास्त्रीय स्वरूप प्रदान किया और उन्हीं के द्वारा चांचर ताल की भी रचना की गई, जिसका प्रयोग बैठकी होली गायन में किया जाता है।
अल्मोड़ा में उन दिनों ब्रज की रास मण्डलियों और नौटंकी दलों की भी खूब धूम रहा करती थी। उनकी स्वर लहरियों में भी अल्मोडा डूबता-उतराता रहता था। इन सबने मिलकर यहां की बैठकी होली गायन को एक ऐसा स्वरूप प्रदान किया जिसका और सानी नहीं रहा। कुमाउनी बैठकी होली की गायन शैली इसे एक अलग पहचान देती है। इसने यहां के जन-जन को इस कदर प्रभावित किया कि इसकी नियमित बैठकें घर-घर होने लगीं। उन दिनों विशेष रूप से शिवदत्त जी मुखतियार, वेदप्रकाश बंसल, जगत सिंह बिष्ट, मोतीराम सनवाल (वैद्य) के आवासों में होने वाली बैठकें अपनी विशिष्ट छाप छोड़ जाती थीं। इसी अवधि में हुक्का क्लब ने भी बैठकी होली गायन की परम्परा को अपनाया, जो पिछले 80-85 वर्षो से आज तक निर्बाध रूप से चली आ रही है।
70 के दशक में अल्प अवधि के लिये इसमें व्यवधान आया पर इसके पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज हुक्का क्लब की बैठकी होली अपनी विशिष्टता, मर्यादा और अनुशासन के लिये सभी क्षेत्रों में जानी जाती है। यहां के होली गायकों ने अन्यत्र भी होली बैठको में भाग लेकर इसके प्रचार-प्रसार में महत्पूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। अपने प्रारम्भिक काल में जिन होली गायकों ने हुक्का क्लब की होली बैठकों को जमाया उनमें प्रमुख थे-शिवलाल वर्मा गांगी थोक, हरदत्त शास्त्री, देवीदत्त उप्रेती, चन्द्रलाल वर्मा (कवि), प्रेमलाल साह (पिरीसाह) जवाहरलाल साह, जगमोहन लाल साह, मोतीराम साह ‘चकुड़ायत‘, गोबिन्द लाल साह (चड़ी), फणदत्त जी, हीरालाल वर्मा (जीबू सेठ), चन्द्रसिंह नयाल, भवान सिंह (नकटी), रामदत्त तिवारी, बचीलाल वर्मा (बची बाबू), कृष्णानन्द भट्ट जी आदि (सभी स्वर्गीय)। जीबू सेठ ने तो होली गाते-गाते ही अपने प्राण त्याग दिये थे। होली के दिनों में रामदत्त तिवारी, गफ्फार उस्ताद, रमन मास्टर, रामसिंह मोहनसिंह, देवीलाल वर्मा (सभी स्वर्गीय) जैसे तबला वादकों की संगत हुआ करत थी, इन होली बैठकों में। ईश्वरीलाल साह जी का सितार, परसी साह, चिरंजी साह, जुगल रईश, वेदप्रकाश बंसल गोबिन्द सिंह, जगत सिंह जी का वायलिन और स्व. मोतीराम जोशी और बिज्जी बाबू का मंजीरा वादन चाहे बीते दिनों की स्मृति बनकर रह गया हो, पर इन सभी दिवंगत कलाकारों के आशीर्वाद से आज की पीढ़ी एक नये उत्साह से हुक्का क्लब की परम्परा को पूरी निष्ठा के साथ निभाती चली आ रही है।
आज अपनी इस अलौकिक परम्परा की अलख को निरंतर जगाये हुए हैं- शिव चरण पाण्डे, श्याम लाल साह, शंकरलाल साह, प्रभात कुमार साह, कंचन कुमार तिवारी, शिवराज साह, दिनेश चन्द्र पाण्डे, धरणीधार पाण्डे, गोपाल कृष्ण त्रिपाठी, राजन सिंह बिष्ट, मनीष पाण्डे, चन्दन आर्या, महन्त त्रिभुवन गिरी महाराज, महेश चन्द्र तिवारी, अश्विनी कुमार तिवारी, मोहनचन्द्र पाण्डे आदि। इन कलाकारों के अतिरिक्त जिन कलाकारों ने हुक्का क्लब की बैठकों को अपने गायन से सजाया संवारा है, वे प्रतिभाएं हैं सर्वश्री देवकीनन्दन जोशी, निर्मल पंत, अनिल सनवाल, जितेन्द्र मिश्र, अमरनाथ भट्ट, रमेश मिश्रा, कमलेश कर्नाटक आदि। इसी क्रम में हम संस्था के उन दिवंगत कलाकरों को भी नहीं भूल पाएंगे जो असमय ही हमारा साथ छोड़ कर स्वर्ग सिधार गये हैं-यथा लक्ष्मीलाल साह बैंकर्स, एल.डी.पाण्डे, राजेन्द्र लाल साह, पूरन चन्द्र तिवारी, रवीन्द्रलाल साह, जगदीशलाल साह ‘भाई‘ और रमेशलाल साह।
हुक्का क्लब, बैठकी होली गायन की सभी मर्यादाओं एवं परम्परागत दिशा निर्देशों का अक्षरशः पालन करते हुए इस अनमोल धरोहर के संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार के दायित्व का पूर्व ईमानदारी एवं लगन के साथ निर्वाह करता चला आ रहा है। प्रति वर्ष परम्परानुसार बैठकी होली गायन की शुरुआत पूष माह के प्रथम रविवार से होती है, जो निरन्तर छलड़ी तक चलती है। यह अवधि लगभग तीन माह की होती है। पहले दिन से ही गुड़ की भेली तोड़कर सभी उपस्थित कलाकरों व श्रोताओं में इसका वितरण किया जाता है, जो छलड़ी तक चलता रहता है। बीच-बीच में कभी-कभी या विशेष अवसरों पर जैसे वसन्त या शिवरात्रि को या फिर रंगभरी एकदशी से छलड़ी तक विशेष बैठकों का आयोजन किया जाता है, जो सुबह तक चलती है। इन बैठकों में स्थानीय कलाकारों के अतिरिक्त बाहर से भी गायकों का आमंत्रित किया जाता है। अन्य दिनों में सायंकालीन बैठकें आयोजित की जाती हैं। कुमाउनी बैठकी होली गायन की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें उपस्थित कोई भी मुख्य गायक द्वारा उठाई गई होली को स्वच्छन्द रूप से गा सकता है और अनुभव कर सकता है कि वह भी बैठक का एक अभिन्न अंग हैं। यह इसलिए सम्भव हो पाता है कि होली गीत शास्त्रीय-रागों पर आधारित होते हुए भी शास्त्रीय बन्धनों से मुक्त होते हैं।
कुमाउनी होलियां लगभग सभी शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं। हर बैठक की शुरुआत राग श्याम कल्याण या काफी से की जाती है और क्रमवार जंगला-काफी, खमाच, सहाना, झिझोटी, विहाग, देश जैजैवन्ती, परज और भैरव तक पहुंचते-पहुंचते सुबह कब हुई पता ही नहीं चलता। दिन को आयोजित होने वाली बैठकों में मुख्य रूप से राग पीलू, सारंग, भीमपलासी, मारवा, मुल्तानी, भूपाली आदि रागों पर आधारित होलियों का गायन किया जाता है। तबले पर सभी होली गीतों में चांचर ताल को ही बजाया जाता है। गाने की बढ़त सितारखानी और तीन-ताल से की जाती है और कहरुवे तक पहुंचती है। गायक जब गीत की अन्तरा से स्थाई पर आता है तो फिर ताल विलम्बित होकर चांचर में आ जाती है। कुछ होली गीत रूपक, तीन-ताल और झपताल में भी गाए जाते हैं।
होली गायन की यह चर्चा तक तक अधूरी ही रहेगी यदि हम सुविख्यात होली गायक स्व. ताराप्रसाद पाण्डे जी का सादर स्मरण नहीं कर लेते, जिनकी ख्याति होली-गायकी के क्षेत्र में एक नक्षत्र की भांति सदैव चमकती रहेगी। इस विधा को संरक्षित रखने में स्व. ब्रजेन्द्र लाल साह, स्व. मोहन उप्रेती और स्व. बसन्त लाल वर्मा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
पूष माह के प्रथम रविवार से बसंत तक निर्वाण और भक्ति प्रधान होलियों का ही गायन किया जाता है। वसंत पंचमी से शिवरात्रि तक रंग भरी होलियां गाई जाती हैं और शिवरात्रि से छलड़ी तक श्रृंगार रस से ओत-प्रोत रंगीन गीतों का ही बोलबाला रहता है। टीके के दिन होली के विदाई-गीतो का गायन किया जाता है और भजनों के माध्यम से भी होली को विदाई दी जाती है।
वर्तमान में कुमाउनी बैठकी होली के भविष्य के सम्बन्ध में कोई चिन्ता करने की आवश्कता प्रतीत नहीं होती। जब तक इस भूमण्डल में संगीत का अस्तित्व रहेगा, यह विधा भी अक्षुण्ण रहेगी। वस्तुतः उतार-चढ़ाव तो जीवन के हर क्षेत्र में आते रहते हैं ओर इससे होली गायन भी अछूता नहीं है। होली त्योहार तो हम सब में इस कदर रचा-बसा हुआ है कि हम स्वयं को इससे न तो अलग कर पाएंगे और न ही अलग होना चाहेंगे। आवश्यकता है इससे प्रति सकारात्मक सोच को बनाये रखने की। तभी हम कह सकते है कि बैठकी होली गायन का भविष्य सुरक्षित है। जैसे-जैसे होली पर्व की तिथियां निकट आने लगती हैं, उसी गति से कुमाऊं में स्थान-स्थान पर आयोजित की जाने वाली बैठकें इस बात का प्रमाण देती हैं कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर अपनी पहचान सदैव बनाये रखेगी और जब तक जीवन है यह भी जीवित रहेगी।