देवेश जोशी
प्रवास अर्थात अपने मुुल्क से दूर गैर मुल्क में बस जाना। ये गैर मुल्क अपने देश में भी हो सकता है और विदेश में भी। वल्र्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 3 प्रतिशत लोग विदेश में प्रवास करते हैं। प्रवास का प्रमुख कारण रोजी-रोटी ही है। एक और कारण बेहतर रहन-सहन की स्वाभाविक मानवीय इच्छा है। प्रवास को पलायन- समस्या के रूप में भी देखा जाता है और पहाड़ की सभी समस्याओं की जड़ अक्सर पलायन को भी बताया जाता है। पर ये पूरा सच नहीं है। सभी लोगों का प्रवास एक ही तराजू में तौलना उचित नहीं है।
प्रवास-पलायन के जरिए अगर मुल्क का नाम-धाम हो रहा हो, आर्थिक तरक्की का असर गाँव-मुुल्क भी महसूस कर रहा हो और दूर परदेस मेें वक्त-मौके पर एक ठिकाना मिल रहा हो तो ये बुरा कैसे हो सकता हैै। बुुरा प्रवास-पलायन का वो रूप है जिसमें प्रवास-पलायन का कारण बस देखादेखी होता है। पुरखों की अमानत खेत-खलिहान बेच-बाच कर पाँच बिस्वा ज़मीन हासिल करना ही जिंदगी का चरम लक्ष्य हो या परम संतोष का विषय हो। सच बात तो ये है कि प्रवास-पलायन जीवन का अनिवार्य हिस्सा है जिससे बचकर हम आज दुनिया के साथ कदम मिला कर चलने की कल्पना भी नहीं कर सकते।
सोचिए जरा कि नागपुर-बमोली के बदरी प्रवास-पलायन नहीं करते तो क्या फिजी देश की लेजिस्लेटिव काउंसिल के पहले हिंदुस्तानी सदस्य बन सकते थे और बद्री महाराज के नाम से विश्वप्रसिद्व हो सकते थे। मालदार घनानंद खण्डूड़ी अगर पाडुळि के मुकुंदी को अपने खर्चे पर इंग्लैण्ड नहीं भेजते तो क्या गढ़वाल को मुकुंदीलाल जैसा काबिल बैरिस्टर(पहला) और गढ़वाल चित्रकला शैली का उन्नायक मिल जाता।
गाँव-मुुल्क किसी ने भी खुशी से नहीं छोड़ा। छोडा़ होता तो सात समोदर पार छौं जाणू ब्वै जैसा करुण-मार्मिक गीत नहीं रचा जाता। गढ़वाल रेजीमेंट के संस्थापक सूबेदार बलभद्र नेगी तो फौज में भर्ती होने भी पाकिस्तान स्थित एबटाबाद गया था। सैन्य दस्तावेजों में दर्ज़ है कि पहले-पहल ब्रिटिश सेना में भर्ती होने वालों में अधिकतर वो साहसी-विद्रोही युवा थे जो घर-परिवार की रजामंदी से नहीं बल्कि भाग कर जाते थे भाबर-तराई होकर भर्ती कैंपों में, फौजी छावनियों में। बाद में मसल जैसी भी बन गयी कि पहाड़ियों का भाग, भाग कर ही जागता है। तत्कालीन गढ़वाल की विकट परिस्थितियों के बाबजूद सेना में सबसे पहले रैंक हासिल करने वाले गढ़वालियों में झांझड़ पौड़ी के विद्याधर जुयाल ब्रिगेडियर, चमोली-कोटद्वार के भारत सिंह वर्मा मेजर जनरल, ग्वाड़-गोपेश्वर के मकड़ सिंह कुंवर सुबेदार मेजर बने। कफाड़तीर-चमोली के दरवान सिंह नेगी ने पहले विश्वयुद्ध में शौर्य के लिए पहला और मंज्यूड़-चम्बा के गबर सिंह नेगी ने दूसरा विक्टोरिया क्राॅस हासिल किया। रायबहादुर का पहला खिताब डुंगर नागपुर के पातीराम परमार को मिला।
शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों का नितांत अभाव, भागने का प्रमुख कारण था। एक अन्य कारण परदेश की विकसित जीवनशैली के प्रति आकर्षण भी था। जिस जमाने में गढ़वाल में सिर्फ पौड़ी में कांसखेत और चमोली में नागनाथ में ही मिडिल स्कूल थे उस जमाने में जिसने भी घर-गाँव छोड़ा, दूर जा करके पढ़ने-लिखने की हिम्मत करी वो सब आधुनिक गढ़वाल के लिए वंदनीय हैं। हमको याद होना चाहिए गढ़वाल के पहले इंटंªैस पास दालढुंग बडियारगढ़ के आत्माराम गैरोला थे, डांग के गोविंदराम घिल्डियाल पहले ग्रेजुएट डिप्टी कलक्टर और अनसूया प्रसाद घिल्डियाल पहले बी0एस-सी0 थे जो जज़ भी बने, कफलसैंण के तारादत्त गैरोला पहले एम0ए0 थे, कोटी के गणेशप्रसाद उनियाल पहले पी-एच0डी0 थे, गडोली पौड़ी के डी0ए0चैफीन पहले बी0ए0,एल0टी0 थे जो पहले हेडमास्टर भी बने। गडोरा, चमोली के दुर्गाप्रसाद डबराल पहले एमबीबीएस डाॅक्टर बने। पाली पौड़ी के पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल तो गढ़वाल ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हिन्दी के पहले डी0लिट्0 थे। जयहरिखाल के भक्तदर्शन पहले उपकुलपति (कानपुर वि0वि0) बने, अमकोटी पौड़ी के विश्वम्भर दत्त भट्ट पहले शिक्षा निदेशक (दिल्ली) बने। प्रशासनिक सेवा क्षेत्र में देखें तो कोल्ली सतपुली के जयकृत सिंह नेगी पहले
आई0सी0एस0,कमिश्नर और ठाकुर सिंह नेगी आई0जी0पुलिस बने, झांझड़ पौड़ी के विदुधर जुयाल पहले आई0ए0एस0 और चक्रधर जुयाल पहले डिप्टी सुपरिंटेंडेंट पुलिस बने, डबरालस्यूं के हरगोविंद डबराल पहले पी0सी0एस0 बने, दालढुंग बडियारगढ़ के बैजराम गैरोला पहले तहसीलदार बने। कोठार पौड़ी के महिमानन्द बहुगुणा पहले डिस्ट्रिक्ट फाॅरेस्ट आॅफिसर और खोला-श्रीनगर के मित्रानंद घिल्डियाल पहले रेंजर बने। डोभ पौढ़ी के नरोŸाम डोभाल पहले डिप्टी पोस्टमास्टर जनरल और नैथाणा के मथुुराप्रसाद नैथाणी पहले इंजीनियर बने।
सामाजिक क्षेत्र में नंदप्रयाग के गढ़केशरी अनसूयाप्रसाद बहुुगुुणा पहले जनप्रिय नेता, कांडी उदयपुर के जगमोहन सिंह नेगी राज्य के पहले कैबीनेट मंत्री और बुघाणी के हेमवतीनंदन बहुगुणा पहले मुख्यमंत्री बने।
कला-संस्कृति-खेल के क्षेत्र में डाॅ.हरि वैष्णव पहले क्लाॅसिकल डांसर, डाॅ0रणबीर सिंह बिष्ट पहले अंतरराष्ट्रीय चित्रकार और आर्ट काॅलेज के पहले प्राचार्य, चंदन सिंह पहले आॅलम्पिक खिलाड़ी (फुटबाॅल) हुए।
बालसुलभ जिज्ञासा में एक बार मैंने एक सवाल अपने पिताजी से भी पूछा था कि जब आप 200 किमी दूर हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए ऋषिकेश गए थे तो दादाजी आपको महीने में कितनी पाॅकेटमनी देते थे। जवाब सुनकर मेरी भी कभी पाॅकेटमनी मांगने की हिम्मत नहीं हो सकी। जवाब था कि मैंने सदाब्रत खाकर हाईस्कूल और ट्यूशन पढ़ाकर इण्टरमीडिएट किया था। परदेश जाते समय पिताजी बोले थे कि घर का भी खयाल रखना।
आज के समय में घर-गाँव से दूर प्रवास से सम्बंधित सभी जानकारी एक क्लिक पर मिल जाती हैं। ऐसे में प्रवास को कौन रोक सकता है। नई पीढ़ी़ के युवा उत्साही हैं, उनके सपने बड़े होते हैं और एक हद तक उनमें जुनून भी होता है। वो हर बंधन तोड़ कर घर से बाहर जाना चाहते हैं।
प्रवास उनके लिए एडवेंचर भी है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में पहले विश्वयुद्ध के समय के एक गीत में ऐसे ही एक युवा को लोग कितना समझाते हैं कि गुमानू फौज़ में भर्ती मत होना। ये भी कि तेरी सुन्दर तिबार है, बड़े बैलों की जोडी़ है। पर गुमानू ने कहां मानना था। उसने कहा कि मरना हो या बचना मैं तो पलटन में भर्ती जरूर होउंगा।
नए-नए विवाह की प्रीत भी उसे रोक न सकी। वो भर्ती हुआ, लाम मे गया और बहादुरी से लड़ कर शहीद हो गया। एक दूसरे युवा को भी डराया गया कि सात समोदर पार खून से पनचक्कियां चलायी जाती हैं, खंदकों में संगीन-खुखरियों की लड़ाई होती है। दूसरे गाँव के शहीद सिपाहियों के किस्से भी सुनाये गए पर उसने कहा कि तुम सब देखते रहना मैं लाम जीत कर आऊंगा और देवी के मंदिर में छत्र चढ़ाउंगा।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या जरूरत। सभी जानते हैं कि देशी-विदेशी होटल-आतिथ्य क्षेत्र में आज भिलंगना-प्रतापनगर के निवासियों का जो वर्चस्व है उसका कारण भी उनका प्रवास के प्रति बेहिचक होना और नई जगहों, नए माहौल में अपने को ढालने का जज़्बा भी है। इसका असर ये है कि घनसाळी की बैंक-ब्रांच प्रदेश की सबसे समृद्ध ब्रांच में गिनी जाती है।
शिक्षा और सूचना के प्रताप से आज हम ये भी समझने लग गए हैं कि देश-दुनिया के सभी इलाकों में सब चीजें एक जैसी नहीं होती हैं। बिहारी-नेपाली कुशल लेबर-मिस्त्री होते हैं, पंजाबी ताकत और तकनीकी के एडवेंचर्स कार्य, शौक से करते हैं, गुजराती-मारवाड़ियों में बिजनेस का पैदायशी हुनर होता है और बंगाली साहित्य-संगीत के प्रति स्वाभाविक अनुरागी होते हैं।
समाज में एक आदर्श संतुलन के वास्ते प्रवास अपरिहार्य है। हमारे पहाड़ में नाई और कसाई लगभग नहीं हैं या जो हैं भी उन्होंने भी ये काम अब छोड़ दिया है। पर जरूरत तो अब भी इन दोनों काम करने वालों की है ही। पंजाब के मूल निवासियों की रुचि कभी भी स्कूल-संचालन में नहीं रही।
फलस्वरूप उत्तराखण्ड के लोग वहाँ कितने ही स्कूलों का सफल संचालन कर रहे हैं। एक जमाने में पहाड़ से नौकर-चैकीदार के रूप में भी हमारे लोग प्रवासी होते थे। उनमें से भी कई उसी प्रतिष्ठान के मालिक भी बने जहाँ वो कभी नौकर-चैकीदार थे। फिर भी इस तरह के प्रवास को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। ये खुशी की बात भी है कि अब इस तरह का प्रवास लगभग समाप्त हो गया है। आज की तारीख में भुला या दाज्युु को मतलब नौकर नहीं रह गया। अब ये दोनों सम्मानित और उत्तराखण्ड के दोनों अंचलों के संस्कृतिबोधक शब्द हैं।
प्रवासियों को एक ही आशीष और उनसे एक ही अपील है। ये आशीष-अपील उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध कवि, संगीतज्ञ और लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगीजी ने् बेटी को विदाई के गीत में दी थी जो विस्तारित और व्यापक होकर आज हर प्रवासी तक गाँव-मुुल्क से प्रेषित हो रहा है – खूब फलि फूली, मैत्यूं न भूली।