जयसिंह रावत
कहते हैं, भगवान के दर पर कोई ऊंच-नीच नहीं होता। उसके लिये गरीब और अमीर दोनों ही बराबर होते हैं। उसके दरबार के प्रोटोकॉल में प्रधानमंत्री के लिये रेड कारपेट और मतदाता के लिये नंगे पांव पहुंचना शामिल नहीं है। भगवान के लिये भाजपा, कांग्रेस या फिर किसी भी दल में कोई भेद नहीं होता। यह केवल सनातन धर्म का ही नहीं बल्कि यह मान्यता विश्व के लगभग सभी धर्मों की है। उदाहरण के लिये हमंे कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। एक बार भारत के प्रमुख राजनेताओं में से एक और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री को अकाल तख्त के आदेश पर स्वर्ण मंदिर के दरवाजे पर श्रद्धालुओं के जूते साफ करने पड़े थे। वहां बड़े-बड़ों को भी बर्तन धोने होते हैं। लेकिन भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक देवभूमि उत्तराखण्ड में स्थित केदारनाथ में परमपिता परेमश्वर का दर्शन ही बदल गया है। यहां किसको भगवान के दर्शन करने हैं और किसको नहीं, यह पण्डे पुजारी तय करने लगे हैं। यहां अब रेड कारपेट तीर्थ यात्रा शुरू हो गयी। खास भक्त के पावों और पिछवाड़े में कहीं धूल न लग जाय, इसलिये अति विशिष्ट व्यवस्था भी की जाने लगी है। यही नहीं अब भगवान शिव के इस हिमालयी मंदिर पर केवल पार्टी विशेष का झण्डा और बैनर लगाया जाना ही बाकी रह गया है।
आखिर त्रिवेन्द्र को ही क्यों रोका गया?
पहली नवम्बर को उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत दर्शनार्थ केदारनाथ जाते हैं तो उन्हें न केवल पण्डे पुजारियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ता है और उन्हें दर्शन किये बिना ही बैरंग लौटा दिया जाता है, बल्कि अपमानित भी किया जाता है। जबकि दो दिन बाद कैबिनेट मंत्री सुबोध उनियाल केदारनाथ जाते हैं तो वही पण्डे पुजारी उनका स्वागत करते हैं। जबकि चार धाम देवस्थानम् बोर्ड की हिमायत करने वालों में सुबोध सबसे रहे हैं। यही नहीं त्रिवेन्द्र को एक तरह से केदारनाथ से खदेड़ ही दिया गया था और चार दिन बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिये सारी परम्पराएं तोड़ने के साथ ही उनके लिये रेड कारपेट बिछा दी जाती है। जबकि डबल इंजन की सरकार वाले उत्तराखण्ड में ऐसा कोई कानून नहीं बन सकता जो कि मोदी-शाह को मंजूर न हो। प्रधानमंत्री को स्थिति की पूरी जानकारी है। चारों धामों के पण्डे-पुरोहित पहले ही बंजर दिमाग की उपज चारधाम देवस्थानम् बोर्ड के खिलाफ अपनी प्रतिकृया प्रधानमंत्री तक पहुंचा चुके थे। मोदी जी ने अपने भाषण में भी बोर्ड का उल्लेख करने के बजाय वह बोर्ड से ध्यान हटाने के लिये तीर्थ-पुरोहितों की सुख सुविधाएं गिनाने लगे। जाहिर है कि मोदी जी भी इस बोर्ड के समर्थन में ही हैं।
उपासना की परम्पराओं में राजनीति का स्थान नहीं
परम्परा सामाजिक विरासत का वह अभौतिक अंग है जो हमारे व्यवहार के स्वीकृत तरीकों का द्योतक है, और जिसकी निरन्तरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण की प्रक्रिया द्वारा बनी रहती है। परंपरा का अर्थ उन संपूर्ण विचारों, आदतों तथा प्रथाओं का योग है जो जन साधारण से संबंधित है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी संप्रेषित होता है। परम्पराएं देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बनती हैं। इसलिये एक ही धर्म के धर्मसथलों में अलग-अलग परम्पराएं होती हैं। मसलन उज्जैन स्थित महाकाल में जलाभिषेक की जगह शराब से महाकाल का अभिषेक किये जाने की परम्परा है। महाकाल भी शिव अवतार काल भैरव का स्थान माना गया है। लेकिन केदारनाथ आदि ज्योर्तिलिंगों की उपासना के समय शराब वर्जित है। परम्पराएं गलत या सही हो सकती हैं मगर उनके पीछे श्रद्धालुओं की आस्था होती है, इसलिये उन्हें सामान्यतः छेड़ा नहीं जाता है। जैसे कि केरल के सबरीमाला में महिलाओं के लिये कुछ बंदिशें हैं जिनका समर्थन भाजपा नेत्रियां भी करती रही हैं। जहां तक परम्पराओं का सवाल है तो अपनी सुविधा और राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार उनका समर्थन या विरोध नहीं किया जा सकता।
गर्भगृह में मोदी जी का फिल्मांकन कर तोड़ दी युगों पुरानी परम्परा
परम्परानुसार केदारनाथ या उत्तराखण्ड हिमालय के चारों धामों के गर्भगृह में फोटोग्राफी या फिल्म शूटिंग की मनाही है। लेकिन भारत के सर्वोच्च नेता नरेन्द्र मोदी ने केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में अपनी पूजा की शूटिंग करा कर उस परम्परा को तोड़ दिया। गर्भगृह ही क्यों? वहां सभामण्डप की तस्बीरें भी नहीं खींची जा सकती। अगर ऐसी परम्परा नही ंतो अन्दर नन्दी की पीठ माने जाने वाले असली पूजा के स्थल की पहले भी फोटो सार्वजनिक हो गयी होती और लोग केदारनाथ जाने के बजाय अपने ही घरों से उस शिव प्रतीक की पूजा किया करते। मोदी जी ने 2019 में लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण के प्रचार अभियान के बंद होने से पहले भी कदेारनाथ में बनायी गयी विशेष गुफानुमा स्थान पर कई घण्टे तपस्या की थी जिसकी बाकायदा पूरी शूटिंग कराई गयी थी। उस तपस्या के दौरान जो कमीवेशी रह गयी थी वह मोदी जी ने केदारनाथ के गर्भगृह में फिल्मों की तरह पूरी शूटिंग टीम उतार कर पूरी कर दी।
केदारनाथ के गर्भगृह ही नहीं बल्कि सभामण्डप में भी फोटाग्राफी या फिल्मिुग नहीं हो सकती। लेकिन मोदी जी के लिये हिन्दुओं के इस अति पवित्र धाम के गर्भगृह को फिल्मों के स्टूडियो की तरह तरह शूटिंगस्थल बना दिया गया। हर कोई जान सकता है कि शूटिंग या वीडियोग्राफी के भारी भरकम कैमरों को लटकाने वाले या अन्य उप उपकरणों पर चमड़ा लगा होता है। इस प्रकार देखा जाय तो मोदी जी के साथ ही केदारनाथ के पवित्र गर्भगृह में चमड़े का सामान भी पहुंच ही गया। मोदी जी जब अपनी मां के पास आर्शिवाद लेने जाते हैं या उनके हाथों खाना खाने की तस्बीर खिंचाते हैं तो उसमें किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिये लेकिन केदारनाथ के गर्भगृह में इस तरह की शूटिंग तो करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था के साथ मजाक जरूर है।
भक्त और भक्त के बीच इतना भेदभाव क्यों?
भगवान के लिये प्रधानमंत्री या कोई भी मतदाता एक जैसा ही होता है। लेकिन मोदी जी के लिये हैलीपैड से लेकर गर्भगृह तक रेड कारपेट बिछी हुयी थी। ऐसा भी वक्त था कि जब लोग जानबूझ कर अपनी यात्रा को कष्टमय बनाते थे, शरीर को अति कष्ट देने वाली कठिन से कठिन साधना करते थे। लेकिन हमारे भगवान के यहां एक आदमी से लेकर दूसरे आदमी तक का प्रोटोकॉल बदल गया है। ऐसा लग रहा था मानो मोदी जी केदारनाथ में श्रद्धालु के तौर पर नहीं बल्कि साक्षात केदारनाथ के अतिथि के तौर पर वहां गये थे। चेहरे पर और बॉडी लेग्वेज बिल्कुल किसी सम्राट की जैसी। जबकि सम्राट भी ईस्टदेव के सामने एक गरीब नवाज की तरह पेश आते थे।
केदारनाथ का आंगन राजनीति भाषणों के लिये समर्पित हुआ
भगवान की निगाह भाजपा या कांग्रेस, सभी एक समान होते हैं। केदारनाथ को किसी भी राजनीतिक दल से कोई वास्ता नहीं है। लेकिन मोदी जी ने दूसरी बार केदारनाथ का उपयोग राजनीतिक भाषण के लिये कर नयी परम्परा की शुरुआत कर दी है। ऐसा लग रहा था कि भगवान केदारनाथ ने भाजपा ज्वाइन कर ली है। भगवान के दर पर पापी से पापी भी झूठ नहीं बोलता। लेकिन राजनीतिक भाषण में चाहे कोई भी नेता हो झूठ से बच नहीं सकता। भगवान के दरबार में स्वयं को सच्चा और सबसे योग्य घोषित करना भी भगवान को धोखा देने के समान ही है। मोदी जी ने कोशिश तो की कि इस अवसर पर विरोधियों पर गंदगी न डाली जाय। लेकिन उन्होंने ऐसी कुछ घोषणाएं एवं दावे अवश्य किये जो कि सच से परे थे। केदारनाथ की चौपाल लाल किले की प्राचीर नहीं जहां पर आप अपना ही बखान कर सकें।
मोदी जी के परिचित साधुओें के लिये बना पुल बेहद खतरनाक
गरुड़ चट्टी स्थित मोदी जी के कुछ परिचित साधुओं के लिये केदारनाथ पहुंचने के लिये करोड़ों रुपये की लगात से एक ऐसा पुल बना दिया गया जो कि एवलांच के मुहाने पर है और कभी भी एवलांच की चपेट में आकर क्षतिग्रस्त हो सकता है। उससे जनहानि भी हो सकती है। मोदी जी ने उस नवनिर्मित पुलं पर भी अपनी फोटो खिंचवाई। इस पुल का आम श्रद्धालुओं से कोई वास्ता नही है। इस स्थान पर 1991 में एवलांच तबाही मचा चुका है। उस समय गढ़वाल मण्डल विकास निगम का बंगला और माइक्रो हाइडिल का पावर हाउस बह गया था। अब भी पुल का भविष्य उज्जवल नहीं है और जनहानि का आमंत्रित कर रहा है।
देवस्थानम बोर्ड की जगर मंदिर समिति एक्ट में सुधार होना था
इसमें दो राय नहीं कि सन् 1930 के दशक के बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के एक्ट में समय की मांग के अनुसार सुधार किया जाना अति आवश्यक था। लोग आस्था को दरकिनार कर बदरीनाथ की अरबों की सम्पत्ति को खुर्दबुर्द कर चुके हैं। हर साल वहां अरबों रुपयों की कमाई होती है मगर यात्रियों के लिये कोई सुविधा नहीं की जाती। लेकिन कानून में सुधार स्थानीय इतिहास और भूगोल के अनुसार होना चाहिये था। त्रिवेन्द्र सरकार ने जो चारधाम देवस्थानम् बोर्ड बनाया वह निहायत वह ऐसे बंजर या अनाड़ी दिमाग की उपज है जिसे उत्तराखण्ड के इतिहास और भूगोल की जानकारी नहीं थी।
विरोध और स्वागत का दुहरा माप दण्ड क्यों?
केदारनाथ के पण्डा पुरोहित शुरू में आचार्य शिव प्रसाद ममगाई का विरोध कर रहे थे। विरोध भी इसलिये कि इस चारधाम बोर्ड के गठन में आचार्य ममगाईं का भी हाथ रहा। लेकिन जब आचार्य जी केदारनाथ गये तो उनके स्वागत में न केवल स्वास्ति वाचन हुआ बल्कि शिवार्चन भी हुआ। लेकिन जब त्रिवेन्द्र रावत केदारनाथ जाने का प्रयास करते हैं तो उनको अपमानित कर भगा दिया जाता है। आखिर यह दुहरापन भगवान के द्वार पर क्यों? वैसे भी केदारनाथ के दर्शन करने से रोकने का अधिकार किसी को नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत किसी को इस तरह रोकना उसके मौलिक अधिकारों का हनन है।