उमेश तिवारी विश्वास
कुछ खटकता तो है पहलू में मिरे रह रह कर
अब ख़ुदा जाने तिरी याद है या दिल मेरा।
(जिगर मुरादाबादी)
इस दस्तक को सुनकर आख़िर एक शख्स बरास्ते आसमान, सड़क और फ़िर पैदल चल पड़ता है अपने देश, अपने गांव-अपनी माटी की जानिब। वहां अब कोई नहीं रहता, बस खंडहर हैं, और है कविताओं की सदा।
ललित मोहन जोशी, लेखक, पत्रकार और बी बी सी हिंदी सेवा में प्रस्तोता रहे कुमाऊं के इस सपूत के साथ शायद यही सब हुआ होगा। शायद वह अपने लंदन प्रवास के दौरान ऐसी ही दस्तक महसूस करते रहे होंगे। चेतना और अवचेतन में बसे कुछ चेहरे, कुछ कविताएं हौले से घर की याद दिलाते वापस लौटने की उमुक दे गई होंगी। इस वापसी का एक प्रमाण, अवश्य ही उनकी निर्मिति ‘अंगवाल’ है। कुमाऊनी कविता की यात्रा के पड़ावों पर फ़िल्मकार के अपने संस्मरणों में बिलाती डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘अंगवाल’, जिसकी स्क्रीनिंग कल 7 फ़रवरी ’24 को उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी हल्द्वानी के सभागार में की गई, अपने आप में एक सुंदर कविता सी प्रस्तुति रही।
एक डॉक्यूमेंट्री की सीमा होगी कि वह विषय से जुड़ी कितनी सामग्री समेट पाती है। वहीं तकनीकी नज़रिये से देखें तो एक फ़ीचर और डॉक्यूमेंट्री के बीच फॉर्म का मसला भी दरपेश आना लाज़िमी है। इस जगह आकर आप ‘अंगवाल’ की आलोचना में कह सकते हैं कि बहुत कुछ छूट गया, कुमाऊनी कविता के कुछ महत्वपूर्ण नाम जैसे शेरदा अनपढ़ या गिर्दा का मात्र उल्लेख हो पाया, मथुरा दत्त मठपाल और हीरा सिंह राणा आदि कवियों का ज़िक्र तक न हुआ। कुमाउनी कविता की यात्रा के जानकारों के बहुत संयत और प्रामाणिक वक्तव्यों के बीच कुछ अनावश्यक टिप्पणियों पर भी आपका ध्यान जाता है। परंतु फ़िल्म के अंत में ज़ेहन में कुछ रहता है तो; एक कसक, उजड़े गाँवों की तस्वीर, घाटी-पहाड़ और बादल।
अंगवाल जब ‘कविताओं पर डॉक्यूमेंट्री’ के जिल्द से बाहर निकलती है तो आपको पहाड़ों, नदियों, घाटियों, रास्तों में बिखरी कविताओं से मिलवाती है। तब कवियों के नाम वादी के संगीत में घुल जाते हैं और कविता राज करती है। अब, वह घर पहुँचने को उतावले ललित की चाल में, भाग्यवान कहलाती शहीद की माँ के रुदन में, हथेलियों के बीच सहलाये जा रहे चाय के गिलासों में, गूल के बहाव और घट की रगड़ में मुखर होती है।
फ़िल्म का छायांकन बेहतरीन है और संगीत कथ्य के सर्वथा अनुरूप। संपादन कसा हुआ और निर्देशन बेहद सूझ-बूझ भरा। पलायन त्रासदी के बिम्ब रूप में राजेन्द्र बोरा (गिरी जी) की खंडहर की खिड़की से उभरती सन्यासी की छवि, गाती दिवा भट्ट की आंखों की उदासी, उजड़े घर के बरामदे से घाटी को देखते ललित की छवियां हांट करती हैं।
विकल्प, स्मित, नितेश जैसे प्रतिभाशाली युवाओं को एक संवेदनशील निर्देशक के साथ काम करने का अवसर मिला है, भविष्य में जिसका लाभ उत्तराखंड को मिलना चाहिए। मैं फ़िल्म को ‘अंगवाव’ कहूंगा..वॉव !