अगले चुनावों में क्या है उम्मीद की किरण पढ़िए विस्तार से
हिमांशु जोशी
उत्तराखंड में भुकानून, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य व्यवस्था और पर्यावरण से जुड़े जिन मुद्दों को चुनावी दंगल में महत्वपूर्ण माना जा रहा था। उन्हें बिना साधे भाजपा कैसे जनता का विश्वास पाने में कामयाब रही, यह बहुत से चुनावी विश्लेषकों को हैरान कर गया।
उत्तराखंड की राजनीति पर क़रीबी से नज़र रहने वाले प्रोफेसर एस पी सती के अनुसार कांग्रेस आधा चुनाव सीटों के बंटवारे के वक्त ही हार गई थी। पिछले पांच सालों से कांग्रेस संगठन का एक दूसरे से जुड़ाव नही रहा, वरिष्ठ नेता हरीश रावत जहां अपनी ही पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंदियों में उलझे रहे तो कांग्रेस आला कमान की तरफ से भेजे गए चुनाव प्रभारी दिल्ली के रहने वाले देवेंद्र यादव की एंट्री ने कांग्रेस की नैया पार लगने से पहले ही डुबा दी। उन पर प्रचार अभियान और टिकट बंटवारे में दखलंदाजी का आरोप लगता रहा। चुनाव नतीज़ों के बाद उत्तराखंड की प्रसिद्ध लोक गायिका सोनिया आनन्द रावत ने भी देवेंद्र यादव पर उत्तराखंड में कांग्रेस का बेड़ा ग़र्क करने का आरोप लगाया है।
कांग्रेस प्रदेश में अपना नारा ‘चार धाम चार काम’ जनता को ठीक से समझाने में नाकामयाब रही। पांच सीटों में टिकट बंटवारे में परिवारवाद की झलक भी देखने को मिली। ज़मीन पर काम करने वाले बहुत से नेताओ को टिकट नही दिया गया जैसे कोरोना काल में लोगों की मदद करने वाले देहरादून के अभिनव थापर को दरकिनार कर दिया गया। यमुनोत्री के संजय डोभाल ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत दर्ज कर कांग्रेस को उनकी ऐसी ही गलती का अहसास कराया।
देहरादून में अपनी चुनावी रैली के दौरान भाजपा के मुख्य चुनावी रणनीतिकार अमित शाह ने कांग्रेस के टिकट बंटवारे पर तीर चलाते हुए कहा था कि कांग्रेस ने राज्य आंदोलन के समय आरोपी रहे व्यक्ति को भी टिकट दिया। उन्होंने कांग्रेस के मुस्लिम यूनिवर्सिटी वाले बयान पर भी वार किया था।
प्रियंका गांधी की बात करें तो उनका खटीमा में दिया गया भाषण देखने में उसमें होमवर्क की कमी साफ झलक रही थी, उच्चारण गलत तो थे ही साथ-साथ वो उत्तराखंड की जनता के मूड को भांपने में भी नाकामयाब रही। उनका भाषण किसानों और रोज़गार पर केंद्रित था पर उत्तराखंड की जनता के मन में तो कुछ अलग ही चल रहा था।
राहुल गांधी के भाषणों का भी जनता पर कुछ खास असर नही हुआ, उनके भाषण ज्यादातर कृषि कानून तक ही सिमटे रहे जिसका असर सिर्फ़ उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों तक ही देखा गया था।
क्षेत्रीय दल यूकेडी की बात की जाए तो उसकी स्थिति उत्तराखंड बनने के बाद से खराब ही होती गई है। उससे जीते नेताओं ने बड़ी पार्टियों का दामन थाम जनता के बचे विश्वास को भी खत्म कर दिया। उत्तराखंड के चुनाव नतीज़ों से ये तो साफ है कि चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशियों के पास या तो बड़ी पार्टी का निशान होना चाहिए या फिर उनके पास थैली भर पैसा होना चाहिए।
हमेशा जनता के मुद्दे उठाने वाले इंद्रेश मैखुरी, अभिनव थापर और शांति प्रसाद भट्ट जैसे प्रत्याशियों को पहले तो चुनाव में टिकट बड़ी मुश्किल से मिलता है और यदि मिलता भी है तो उनको पड़ने वाले वोटों की संख्या बहुत कम होती है। इसके समाधान पर वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी कहते हैं कि इन आंदोलन करने वालों को साथ लाकर एक राजनीतिक मंच बनाना होगा जो आंदोलनों को राजनीतिक मुद्दा बना पाए।
उत्तर प्रदेश में भी कोरोना के बाद से कई लोगों के घरों की आर्थिक हालत खराब थी, महंगाई और बेरोज़गारी से गरीब तबका परेशान है। आवारा पशुओं से खेती का नाश हो रहा है और उन्हें भगाने के लिए परिवार के सदस्य बारी बारी से खेतों में जमे हुए थे। फिर भी लोग यह कहते रहे कि योगी ठीक है, जानवर हमने छोड़े हैं योगी ने नही। नतीज़े भी वही हुए, उत्तर प्रदेश में भी भाजपा फिर से सत्ता पर काबिज़ हुई।
सपा ने चुनाव लड़ने में अपनी पूरी ऊर्जा लगाई थी, टिकट बंटवारे में वह सही थे पर फिर भी उनकी हार हुई। सपा ने चुनाव की तैयारी चुनाव से दो-तीन महीने पहले से शुरू की थी तो बीजेपी काफी समय पहले से ही चुनाव तैयारी में लग गई। सपा के पास गांव वालों से संचार की कोई रणनीति नही थी जबकि बीजेपी जो कह रही थी वही शब्द गांव वाले भी बोलते थे। जैसे बीजेपी ने गरीबों राशन दिया, सपा वाले सत्ता में आते हैं तो गुंडागर्दी करते हैं जैसे सन्देश जन जन के बीच फैल चुके थे।
इसका मतलब बीजेपी के प्रचार तंत्र और उसमें खास तौर पर उनकी आईटी सेल का कोई तोड़ नही निकाल पाया। यह बात तो तय है कि जियो क्रांति का फायदा बीजेपी ने जमकर उठाया है। सपा, बसपा या कांग्रेस कोई भी पार्टी बीजेपी की तरह अपनी नीतियों को जनता के बीच नही पहुंचा सकी। गरीबों को राशन पहले भी बांटे जाते थे पर उसके झोलों में प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ मुख्यमंत्री की तस्वीर कभी नही देखी गई थी। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश दोनों जगह इस तरह के झोले देखे गए। मेट्रो भी योगी-मोदी के बहुत से विज्ञापनों से भरी देखी गई थी।
सपा ने जब तक अपना चुनाव प्रचार शुरू किया नतीजे तय हो चुके थे। बीजेपी ने अपना फोकस उन वोटरों पर रखा था जो बीजेपी के पारंपरिक वोटर कभी नही थे और सपा अपने पक्के वोटरों को ही पकड़ कर बैठे रही। पूरे देश भर में यही बात अन्य पार्टियों पर भी लागू होती है, विपक्षी दलों के सभी सदस्य जनता के उसी हिस्से से बात करते हैं जो उनकी बातों या विचारों से हां में हां मिलाता है। विपक्षी दल उन लोगों से बात नही करते या यूं कहें कि उन विचारों में घुसपैठ नही कर पाते जो उनसे संवाद करने की इच्छा नही रखते। भाजपा ने साधारण देश में अधिकांश व्यक्तियों के मन में जगह बना ली है, उन्होंने जनता के मन में एक लकीर सी खींच दी है जो अब भाजपा को अपना और दूसरों को पराया समझने लगी है।
आज आप गौर से देखेंगे तो बीजेपी ने इन तीनों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है। आप देखेंगे कि राष्ट्रवाद को भाजपा जमकर भुनाती है , धार्मिक विरासतों पर नाम बदल-बदल कर धीरे-धीरे कब्ज़ा जमाया जा रहा है और सांस्कृतिक विरासतों को संभालने या विकसित करने के नाम पर जनता को साथ मिला दिया जाता है। कांग्रेस व अन्य राजनीतिक दलों ने इन तीन मुद्दों को हमेशा से हल्के में लिया था पर भाजपा इन तीन मुद्दों पर ही केंद्रित रही ।
भाजपा के बेहतरीन होम वर्क को भी उनकी जीत का श्रेय जाता है। गुजरात में इस साल के अंत तक होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी भाजपा ने अभी एक महीने पहले से ही शुरू कर ली है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वहां चुनावी रैली निकाली थी। विपक्ष पार्टियों को अगर एकजुट होना है तो उन्हें संसद से बाहर निकल कर सड़क पर जनता से संवाद स्थापित करना होगा। यहां पर उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा का बयान महत्वपूर्ण हो जाता है कि ‘कांग्रेस अब सड़क पर आने वाली पार्टी नही रही।’ विपक्षी पार्टियों को ऐसी बातों पर भी गौर फरमाना होगा।
किसान आंदोलन जनता से संवाद स्थापित कर किला फ़तह करने का सबसे बड़ा उदाहरण रहा। ‘आप’ की पंजाब में जीत इसका उदाहरण है, हालांकि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के विपक्षी दल इससे पूरा लाभ नही ले सके पर फिर भी एक ज़मीन तो तैयार हुई ही है। हम कह सकते हैं कि जनता किसी बात को समझती है तो विकल्प की तरफ जरूर जाती है। गोदी मीडिया पर कई बार बात होती है कि मीडिया भी वोटरों को प्रभावित कर रही हैं लेकिन यहां यह बात गौर करने वाली है कि अभी वैकल्पिक मीडिया भी अच्छा काम कर रही है।
वैकल्पिक मीडिया के ज़रिए आपके पास सच और झूठ में अंतर करने की समझ बनती है।
किसान आंदोलन में हमने देखा कि आपसी संवाद की वजह से गोदी मीडिया की हार हुई थी,लोगों ने गोदी मीडिया को दरकिनार कर दिया था। वहीं वैकल्पिक मीडिया से जुड़े किसान आंदोलन को निष्पक्ष तरीके से कवर कर रहे साक्षी जोशी और अजीत जैसे पत्रकारों का किसानों द्वारा दिल खोल कर स्वागत किया गया।
One Comment
Krishnanand Sinha
No reason is given to go against the BJP, instead it eulogises the poll strategy of the ruling party.