प्रमोद साह
भारत छोड़ो आंदोलन 9 अगस्त 1942 !
राष्ट्रीयता स्वतंत्रता आंदोलन संघर्ष में गांधी अपना तीसरा बड़ा आंदोलन शुरू करने की तैयारी में थे , उनकी स्मृति में प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों की वादाखिलाफी की स्मृति ताजा थी , जब युद्ध अवधि में अंग्रेजों ने भारतीयों का सहयोग चाहा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बढ़-चढ़कर सहयोग किया ,लेकिन युद्ध समाप्ति के बाद स्वशासन के आश्वासन पर दोहरा शासन और रौल्ट एक्ट जैसे काले कानून भारतीयों को मिले, इस बार द्वितीय विश्वयुद्ध में महात्मा गांधी अंग्रेजों के झांसे में नहीं थे , युद्ध अवधि में ही देश के बड़े हिस्सों में युद्ध के विरोध का आंदोलन कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जारी रखा था ।
इस बार भी अंग्रेजों ने भारतीयों को स्वशासन का आश्वासन दिया था ।जिस उद्देश्य से 22 मार्च 1942 को क्रिप्स मिशन भारत आया ।लेकिन क्रिप्स ने जिस प्रकार का प्रस्ताव तैयार कर सार्वजनिक किया उसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को जबरदस्त ताकत दी।
क्रिप्स मिशन ,लेबर पार्टी के दबाव में स्वशासन की संभावना तलाशने भारत भेजा गया था , लेकिन चर्चिल के षड्यंत्र ने इसकी संस्तुतियों को युद्ध के उपरांत सिर्फ चुनाव और औपनिवेशिक शासन तक ही सीमित कर दिया जिसे स्वीकार करने के लिए अब भारतीय जनमानस हरगिज़ तैयार नहीं था ।
महात्मा गांधी ने इसे ठुकराते हुए “दिवालिया बैंक का आगामी चेक” तक कह दिया । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस क्रिप्स प्रस्ताव के विरोध में उमड़े जन – आक्रोश को राष्ट्रव्यापी बड़ा आंदोलन बनाने की तैयारी कर चुकी थी । 14 जुलाई 1942 को कांग्रेस के वर्धा सम्मेलन में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था । और पूरे देश में इसके अनुसार तैयारियां प्रारंभ हुई ,सरकार ने भी अपना खुफिया तंत्र पुख्ता कर लिया, पूरे राष्ट्र में आंदोलनकारियों को सूचीबद्ध कर लिया गया था ।
8 अगस्त को कांग्रेस का विशेष अधिवेशन मुम्बई में बुलाया गया जिसमें पहले से ही तैयार युसूफ मेहर अली का नारा ” अंग्रेजों भारत छोड़ो ” स्वीकार किया गया और 9 अगस्त से ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हर प्रकार का सत्याग्रह पूरी ताकत से शुरू करने का आह्वन किया गया , महात्मा गांधी ने बड़े जोश खरोश से राष्ट्र का आवाहन करते हुए कहा कि अब हमारे पास “करने और मरने “के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं है ।
उनके इस वाक्य ने पूरे देश में ” करो या मरो” का संदेश पहुंचा दिया ।इस एक आवह्न से पूरे राष्ट्र में स्वत: स्फूर्त जागृति का संचार हुआ, हालांकि ब्रिटिश सरकार की भी पूर्व तैयारी थी कि उन्होंने इस आंदोलन के आवाह्न के कुछ ही घंटों के अंदर सिर्फ डॉ राजेंद्र प्रसाद को छोड़कर महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरू गोविंद बल्लभ पंत सरदार पटेल आदि न केवल कांग्रेस की पूरी कार्यसमिति बल्कि पूरे देश में चिन्हित चुनिंदा चेहरों को रात भर में ही गिरफ्तार कर लिया ।
9 अगस्त की प्रातः भारत की जनता बेचैन थी उनके आगे कोई स्पष्ट राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं था उसका यह लाभ हुआ की देश को युवा और उत्साही नेतृत्व प्राप्त हुआ इस अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर जयप्रकाश नारायण , लाल बहादुर शास्त्री , अरूणाआसफ अली जैसा परिपक्व और युवा नेतृत्व उभरा । .
लाल बहादुर शास्त्री ने अपने आह्वान में कहा मरना नहीं मारना है , हालांकि कांग्रेस के सभी बड़े नेता आंदोलन को अनुशासन और अहिंसा के दायरे में रखना चाहते थे । लेकिन उनकी एक मुस्त गिरफ्तारी ने और महात्मा गांधी के भावनात्मक उद्वेग के संबोधन “करो या मरो ” ने अहिंसा के मूल सिद्धांत को इस बार पीछे कर दिया ,देश में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई रेल पटरियां उखाड़ी गई सरकारी संपत्ति का बडा नुकसान हुआ देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ ही दिनों में स्वतंत्र और समानांतर लोक सरकारों की आंदोलनकारियों ने स्थापना कर डाली , पश्चिम में सातारा और पूर्व में मेदनीपुर आंदोलनकारियों द्वारा स्थापित सरकार के मॉडल बन गए , उत्तरप्रदेश में बलिया में भी बहुत दिनों तक स्वतंत्र व समानांतर सरकार रही ।
कुल मिलाकर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन भारत की आजादी का एक निर्णायक आंदोलन साबित हुआ ,इस आंदोलन के पीछे जहां कांग्रेस की तैयारी थी वही अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में चीन जापान ऑस्ट्रेलिया भी भारत की आजादी के लिए दबाव बना रहे थे । साथ ही सुभाष चंद्र बोस देश से बाहर जाकर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने की मुहिम में जुटे हुए थे । उसका भी असर इस आंदोलन में देखा गया।
गिरफ्तारियां :
आंदोलन कि ब्यापकता इस बात से समझी जा सकती है कि इस आंदोलन में 940 आंदोलनकारी मारे गए, 1630 घायल हुए, 60229 आंदोलनकारी सीधे तौर पर गिरफ्तार हुए , वही 18हजार चिन्हित राजनीतिक नेतृत्व को नजरबंद कर दिया गया ।
दुविधा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने भारतीय राजनीति के एक विरोधाभासी संयोग को भी जन्म दिया, यह संयोग ही है कि 1925 में ही भारतीय राजनीति की धारा में अवतरित दो विरोधाभासी विचारधाराएं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अलग-अलग कारणों से भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध में एक मत रहे, कम्युनिस्ट जहां इस बात का तर्क दे रहे थे ,कि युद्ध में इंग्लैंड का विरोध जर्मनी और इटली की फासीवादी ताकतों को बडावा देना है, आर.एस .एस अंग्रेजो के सहयोग के बहाने अपनी बड़ी भूमिका की तलाश में थी . लेकिन इन दोनों ही दलो के जमीनी कार्यकर्ता राष्ट्रीय नेतृत्व के फैसले से सहमत नहीं थे । बड़ी संख्या में उनके द्वारा भी आंदोलन में भागीदारी की गई , हालांकि आंदोलन की समाप्ति के बाद आंदोलन अवधि में संघ के सहयोग की ब्रिटिश सरकार द्वारा सराहना की गई , यह एक पीड़ादायक तथ्य है ।
उत्तराखंड में भारत छोड़ो आंदोलन : उत्तराखंड में भारत छोड़ो आंदोलन राष्ट्र के अन्य हिस्सों के अनुपात में कम तीव्र नहीं था ।बल्कि इस आंदोलन का समय उत्तराखंड में मूल आंदोलन से बहुत पहले प्रारंभ हो जाता है . भारतीयों की इच्छा के विरुद्ध द्वितीय विश्व युद्ध में भागीदारी के फैसले का सैनिक बाहुल उत्तराखंड में व्यापक विरोध हुआ , 24 नवंबर 1940 को फैसले के विरोध में गोविंद बल्लभ पंत हल्द्वानी में गिरफ्तारी दे चुके थे । जिसकी बड़ी व्यापक प्रतिक्रिया हुई 6 दिसंबर को बागेश्वर में हरगोविंद पंत आदि आंदोलनकारियों ने गिरफ्तारी दी 12 फरवरी 1941 को बररो पट्टी सोमेश्वर में 50 गिरफ्तारियां हुई तो अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के गड नंदप्रयाग चमोली में 118 गिरफ्तारियां हुई .. अगस्त 1942 के बहुत पहले से उत्तराखंड आंदोलन के लिए तैयार हो चुका था ।
महिला भागीदारी इस बार महिलाएं भी बड़ी संख्या में शिरकत कर रही थी . इसमें सबसे पहले गिरफ्तारी देने वाली विशना देवी साह , नैनीताल में कुंती देवी वर्मा ,भागीरथी देवी साह, कोटाबाग में भवानी देवी जोशी , सरस्वती देवी ,मालती देवी , हल्द्वानी में शोभावती मित्तल, भागीरथी देवी , काशीपुर में यशोधरा देवी आदि प्रमुख थे कुमाऊं क्षेत्र में महिलाओं की बड़ी भागीदारी के पीछे सरला बहन की सक्रियता महत्वपूर्ण है ।
गढ़वाल में भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी हुई ,यहां नेतृत्व अनुस्या प्रसाद बहुगुणा के हाथों में था . छावण सिंह नेगी , शिवराज सिंह चौहान, पुरुषोत्तम बगवाड़ी, कोतवाल सिंह नेगी ,कुर्मानंद डिमरी, मेहरबान सिंह नेगी ,राम प्रसाद नौटियाल आदि सैकड़ों की संख्या में आंदोलनकारी सक्रिय थे .
भारत छोड़ो आंदोलन में 5 सितम्बर को खुमाड सल्ट में सशस्त्र ग्रामीण विद्रोह जिसे कुमाऊं की बारदोली कहा जाता है , यहां पर 43 बंदूकें और 48 हथकड़ियां लूट ली गई । चार आंदोलनकारी शहीद हुए ,
इसके साथ ही सालम का विद्रोह भी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहा (इस पर अलग से बात करेंगे) ।
1942 के आंदोलन में 9 अगस्त को ही अल्मोड़ा में बड़ी सभाएं हुई 10 अगस्त को अल्मोड़ा शहर पूरी तरह बंद रहा ,इस विद्रोह की आवाज के एवज में पूरे अल्मोडा शहर पर ₹6हजार का सामूहिक जुर्माना किया गया । चनौदा का गांधी आश्रम जोकि आंदोलन का प्रमुख केंद्र था ।इस पर ₹35 हजार का जुर्माना किया गया , इस वक्त तक देहरादून भी बहुत सक्रिय हो गया था यहां छात्रों ने गिरफ्तारियां दी लेकिन उनके स्पष्ट विवरण नहीं है ।
1942 के आंदोलन का बड़ा हिस्सा भूमिगत होकर भी चलाया गया था ।जिसमें द्वाराहाट के रहने वाले मदन मोहन उपाध्याय जिनके ऊपर एक हजार रुपए का इनाम भी था ।सर्वाधिक महत्वपूर्ण हुए इन्होंने मुंबई में गुप्त रेडियो ट्रांसमिशन का भी संचालन किया । इनके अतिरिक्त श्याम लाल वर्मा हरि कृष्ण पांडे आदि दर्जनों नवयुवक भूमिगत रहकर आंदोलन को दिशा देते रहे । हमें अपने इन वीर सेनानियों पर गर्व है कि हम देश की आजादी के संघर्ष में पीछे नहीं रहे । आज 9 अगस्त अपने आजादी के संघर्ष और उनके बलिदान के महत्व को समझने का दिन है ।
वीर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का भावपूर्ण स्मरण एंव नमन् ।