इस्लाम हुसैन
नाम में ही सब कुछ रखा है, लेकिन आप कहीं नहीं होंगे।
क्या आप भूरा दत को जानते हो ?
अरे भूरा दत्त, साकिन नई बस्ती।
नहीं जानते ?
वल्दियत से जान लोगे ?
भूरादत वल्द मु शकूर साकिन नई बस्ती ।
अरे फिर भी नहीं जान पाए? चकरा गए ना!
आप जान ही नहीं सकते, क्योंकि यह प्राणी जिसका नाम चुनाव सूची में भूरादत दर्ज है, वह वो नही हैं जो लिखा है, उसका नाम वो है जिसे लिए भारत सरकार का चुनाव आयोग और सरकारी सिस्टम नहीं जानता। और इस जैसे लाखों भूलों और गलतियों के आधार पर ही नागरिकता संशोधन का भारत नाट्यम चलाया और दिखाया जा रहा है। जिसपर सब नाचने के लिए बाध्य किए जा रहे हैं।
एन आर सी और नागरिकता के मुद्दे पर हो रहे हंगामें के बीच अनेक विचार आते रहे, एक विचार यह था कि क्या होगा देख लेंगे, लेकिन जब अगली पीढ़ी का ख्याल आता तो उलझन होती, कागज वागज देखने का अब मन नहीं करता,
इस विवाद के बीच पहले मेरा एक बच्चा, जो आज की परिभाषा में एक विख्यात विश्व विद्यालय में (ग्रेजुएशन के बाद आगे एमटेक) उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहा है, वह आया हुआ था, और नागरिकता कानून को लेकर बहुत गुस्से में था, आमतौर पर वह अपनी पढ़ाई के अलावा मामलों में खामोश रहता है, लेकिन इस मामले को लेकर बेचैन था।
बातचीत में उसने बताया कि आधार कार्ड में गलत नामों का इंदराज का रेट 5-8% है, और चूंकि आधार को नागरिकों की पहचान से जोड़ने का प्रोपगंडा खूब हुआ था इसलिए अधिकांश नागरिकों ने अपने आधार कार्ड बनवा लिए हैं, यदि उसमें उनके नाम गलत इंदराज हुए होंगे तो वो कहां जाएंगे – डिटेन्शन सेन्टर, अभी तक जो आसाम का अनुभव है उसके देखकर यही लगता है, जहां बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनके डाक्यूमेंन्टस के नाम में अन्तर था।
मैं एकदम चकरा गया, और मुझे 25-30 साल पहले वोटर सूची और वोटर आईडी में दर्ज हुए नाम का प्रकरण याद आ गया। लेख के आरम्भ में मेरे सवाल का यही आधार था,
क्या आप भूरा दत को जानते हो ?
अरे भूरा दत्त, साकिन नई बस्ती।
नहीं जानते ?
वल्दियत से जान लोगे ?
भूरादत वल्द मु शकूर साकिन नई बस्ती ।
अरे फिर भी नहीं जान पाए?
यदि आप के पास 25-30 साल पहले वाली वोटर सूची होती तो आप नई बस्ती में मकान नम्बर मिलने के बाद भी उस व्यक्ति को नहीं ढंग पाते, मकान में पहुंच भी जाते तो तो आपको अपने पर और सरकारी अमले की नालायकी पर खीज और गुस्सा आता।
क्यों आप जिस पुरुष भूरा दत को सूची के अनुसार खोजोगे वह पुरुष न होकर स्त्री है, और उसके नाम के आधार पर जो उसके हिन्दू धर्म का अनुमान लगाया होगा (जो दर्ज होता है) तो वह वास्तविकता मुसलमान है। यह वाकया मेरे परिवार के साथ हुआ, इस कारण/से हंसी, मजाक, गुस्सा और झंझट खूब हुआ।
चुनाव आयुक्त शेषन के कारण जब वोटर आईडी बनाने की मुहिम शुरू हुई तो एक सरकारी कारिन्दा हमारे परिवार की सूची बनाने आ गया उसने अपने रजिस्टर में परिवार के सदस्यों का नाम दर्ज कर लिया, जिसमें एक भारी चूक हो गई, नाम लिखने में परिवार के अन्य सदस्यों के नाम में भी गलती की पर अम्मा जी के साथ बहुत ज्यादती हो गई, सूची बनने के बाद जो चुनाव हुए तो अम्माजी और अब्बा जी दोनों वोट डालने गए अब्बाजी का नाम मिल गया पर अम्मा का नाम गायब, अम्माजी के नाम मुरादन बेगम की जगह वहां कोई भूरा दत्त विराजमान थे, उसपर तुर्रा यह कि उसकी वल्दियत अब्बा जी के नाम मुहम्मद शकूर थी।
चुनाव की भीड़ में मेरे अम्मा अब्बा हंसी मजाक का हिस्सा बन गए, अम्माजी जरा गुस्से वाली हैं, वह बबाल कर देंती मगर अब्बाजी उन्हें खामोश कराकर घर ले आए। जब मुझे यह सारा काण्ड पता चला तो मैं भी बहुत गुस्से में आ गया, मैने इसकी जो खोज खबर ली तो वह मुझे चुनाव आयोग और उसके अमले की मूढ़ता का सबसे बड़ा उदाहरण लगी।
हुआ यों की जो सज्जन हमारे घर चुनाव सूची बनाने आए वह हिन्दी लिपि और भाषा में अनाड़ी थे और मुस्लिम नामों से अनजान थे, उन्होने जल्दबाजी में अम्मा के पूरे नाम मुरादन बेगम की जगह आधा और गलत वर्तनी का- ‘मूरादन’ लिख दिया. उस एक बड़ी गलती यह कर दी कि नाम के पहले अक्षर ‘म’ पर शिरो रेखा नही लगाई। जिससे म के स्थान पर भ का बोध आ गया। उन महाराज का नाम के अन्त में लिखा शब्द ‘न’ भी स्पष्ट नहीं था कि वह ‘न’ है या कि ‘त’ है। तो यह पहली गलती आगे जाकर भूरादन और ‘भूरादत’ हो गई और अन्त मैं कोई ज्यादा ही स्मार्ट क्लर्क रहा होगा उसने नाम पूरा कर दिया भूरादत्त पुत्र मुहम्मद शकूर, अब इस्लाम हुसैन यह सर पकड़ कर बैठे कि अब्बा की यह नई औलाद भूरादत्त कहां से आया, और आ भी गया तो अम्मा कहां चलीं गईं।
यह आपको मज़ाक लग सकता है लेकिन इस पूरे काण्ड में अच्छी खासी बहस हुई, और झंझट हुआ मैं सम्बन्धित सरकारी अमले से उलझ गया, वह अपनी गलती मानने को तैयार न थे, उनका छोटे से लेकर बड़ा तक का अमला कुढ़मगजों की जमात निकला।
मेरे बच्चे ने तो आधारकार्ड की गलती होने का औसत 8% बताया, मगर वोटर आईडी में यह औसत इससे कहीं अधिक है। मैने हल्द्वानी नगर क्षेत्र की मिलीजुली आबादी के एक मतदान केन्द्र की लगभग 2100 मतदाता सूची का जो अवलोकन किया उसे देखकर यही लगता है कि एन आर सी लगने पर देश के नागरिक एक बड़े संकट में फंसे वाले हैं। इसमें मतदाताओं के नाम में गलती का प्रतिशत 14-18% है।
तो कुछ देशप्रेमी जो लगातार राष्ट्रीय स्तर पर एन आर सी का समर्थन कर रहे हैं उन्हें बताता चलें कि आसाम का अनुभव बताता है कि वहां 3 करोड़ आबादी में से 40 लाख लोग नागरिकता रजिस्टर से बाहर हो गए थे, पुनः वेरीफिकेशन में जिनकी संख्या बाद में 19 लाख रह गयी थी, (इस अवधि में लोगों को कितनी मानसिक पीड़ा होगी इसकी कल्पना करना मुश्किल है। )
इस आधार पर पूरे देश की कैसे कम 20 प्रतिशत जनसंख्या अर्थात (20-30 करोड़), बुरी तरह पीड़ित होगी। जिसमें सभी धर्मः और जाति के लोग शामिल होंगें, ऐसा नही कि कोई धर्म विशेष के लोग ही परेशान होंगे। और जो जितना गरीब होगा, और सुदूर क्षेत्र का निवासी होगा वह उतना ही पीड़ित होगा। जरा कल्पना करें कि पर्वतीय या बीहड़ इलाका में रहने वालों को जिला या ब्लाक मुख्यालय में एन आर सी में नाम जुड़वाने के लिए कितने चक्कर लगाने पड़ेंगें। और यदि नहीं हुआ तो कितनी ज़लालत झेलनी पड़ेगा।
यह उन लोगों से पूछिए जिन्हें किसी सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए अनिवार्य रूप से बैंक खाता खोलने के लिए अनेक बार अपने घर से बैंक शाखा तक 20-20 किमी पैदल चक्कर लगाने पड़े थे, क्योंकि हमारा अनुभव है कि बैंक के साहब गरीबों का बैंक खाता तक एक ही दिन में आसानी से नहीं खोलते। और यह तो एन आर सी जैसी भारी भरकम प्रक्रिया है साहब।
उत्तराखंड के संदर्भ में जानलें कि कम से कम 10 लाख लोग बुरी तरह पीड़ित होगें।
इससे पहले यह ज़रूर जिनमें कि अभी भी हमारे देश में वास्तविक साक्षरता और आंकड़ों की साक्षरता में बड़ा अन्तर है और तीन दशक पहले जब वोटर आईडी शुरु की की गई थी तो और भी बुरा हाल था। जो पढ़े लिखे और अध्यापन जैसे व्यवसाय में हैं उनकी भाषा वर्तनी की शुद्ध है इस पर भी सवाल है, मतदाता या आधार कार्ड बनाने वाले सभी धर्मों/भाषाओं की गूढ़ता/बातों/रस्मों और प्रतीकों को जानते हों यह जरूरी नहीं यही कारण है कि प्रमाणपत्रों और दस्तावेजों में लिखे नाम फिर जागरुकता का अभाव हर काल में रहा है, यहां तो पढ़े लिखे भी बात समझने के लिए तैयार नहीं होते,
हिन्दी में नाम की अशुद्धियों के अतिरिक्त अंग्रेज़ी में दिए नाम में और भी गलतियां देखी गई है, मतदाता सूची में और अन्य दस्तावेजों में ब, भ, स श, अ, ह त, थ, आधा त, र, स श न, ह, के प्रयोग की भयंकर अशुद्धियां शामिल हैं। नाम में गलत शब्द के प्रयोग से धर्म का बोध तक बदलता देखा गया है, मुस्लिम नाम कफील के हिन्दू नाम कपिल बनने में देर नहीं लगती, इसी तरह मुस्लिम नाम निशात, बदलते बदलते निशाद हो जाता है। कतील नाम कातिल हो जाए कह नहीं सकते। गुरमित ही गुरुप्रीत है यह सिद्ध करना आसान नहीं होगा।
पर्वतीय क्षेत्रों में ‘त्र’ अक्षर से अनेक नाम खूब प्रचलित हैं,
त्रिभुवन, त्रिलोक, त्रिलोचन, त्रिपुरारि,आदि आदि यह शब्द कम से कम तीन अन्य तरह से दस्तावेजों में मिलता है, जैसे, तिरलोक, तिलोक, तिरिलोक/तिरीलोक,। इसी तरह आधे अक्षरों से युक्त शब्दों के एक से अधिक रूप हैं। देवेन्द्र,देवेन्द्रा, देविन्दर,देवेन्दर, चन्द्र कब और कैसे चन्दन हो जाए या चन्द्रा हो जाए कहा नहीं जा सकता। इसी तरह एक मुस्लिम नाम ‘इश़्हाक़’ मतदाता सूची/दस्तावेजों मैं कैसे कैसे लिखा गया है इसकी बानगी देखिए, ईशाक, इशाक, इश़ाक, इशहाक, इश्हाक, ईश़हाक, ईश़्हाक,
इसी तरह ईश्वर शब्द भी अनेक रूपों में दस्तावेजों में मिल जाएगा।
परेशानी यह है कि वर्तमान समय में कम्प्यूटर की मूल भाषा अंग्रेजी होने के कारण आपरेटर कैसे लिखता है, जो कि आपके मूल दस्तावेज से भिन्न है, अच्छे अच्छे पढ़े लोग नहीं जान पाते हैं, अशिक्षित और कम जानकारों के लिए यह सब बहुत ही मुश्किल है।
हिन्दी से रोमन या अंग्रेजीकरण करने का कोई मानक तय नहीं है, (यदि होगा तो उसकी जानकारी नहीं है और न व्यवहार में ऐसा हो सकता है) हिन्दी व्याकरण वर्तनी की अशुद्धियों और भूलों को सुधारने का न तो कोई नियम हैं और न उसे सुधारने की कोई स्वतः प्रक्रिया ही अस्तित्व में है।
दस्तावेजों में गलतियों से फौजियों/फौजी परिवारों को सर्विस के दौरान और रिटायरमेन्ट के बाद अपने बच्चों के नाम में फर्क से होने वाली परेशानी से भटकते देखा है। बैंक एकाउंट से लेकर स्कूल में दाखिल तक में परेशानी आती है। ऐसे में यदि दादा, नाना के मूल नामों में अन्तर आया तो एन आर सी में नागरिकता सिद्ध करना आसान नहीं होगा, आसाम में ऐसे लोगों का बहुत बड़ा प्रतिशत है।
एक सार्वजनिक कम्पनी में प्लेसमेंट और ट्रेनिंग का कार्य देखते हुए और बाद में संस्थागत कार्य करते हुए नामों में बहुत गलतियां मिली, हिन्दी और अंग्रेजी के नाम में बहुत अन्तर से बखेड़े होते हुए देखे हैं। जिसके कारण लोगों के बहुत काम अटके, वह या तो नहीं हुए या फिर देर से हुए, नवराष्ट्रवाद के काल में ऐसा भी हुआ कि बच्चों के स्कूलों में एडमीशन और परीक्षाओं में प्रवेश में भी आधार कार्ड के और दूसरे दस्तावेजों में दर्ज नामों के अन्तर के कारण परेशानी और झंझट हुए।
हिन्दी से रोमन या अंग्रेजीकरण करने का कोई मानक तय नहीं है, (यदि होगा तो उसकी जानकारी नहीं है और न व्यवहार में ऐसा हो सकता है) हिन्दी व्याकरण वर्तनी की अशुद्धियों और भूलों को सुधारने का न तो कोई नियम हैं और न उसे सुधारने की कोई स्वतः प्रक्रिया ही अस्तित्व में है।
हमारे समय में हिन्दी वर्णमाला के साथ बारहखड़ी एक आवश्यक अभ्यास था ताकि शब्द लिखने में और वाक्य विन्यास आसानी हो, अब ऐसा नहीं होता। बात मजाक में की जाती है कि हिन्दी में बीए, एमए करने वाला 10 पंक्तियां शुद्ध नहीं लिख सकता, यही हाल अंग्रेजी का भी है।
ऐसी स्थिति में यदि एन आर सी समर्थक भी जब अपने या अपने परिवार के सदस्यों के नामों को सही करने के लिए लाइन लगाएंगे तो कितना श्रम उर्जा और धन की बर्बादी होगी इसको सोचकर सिहरन होती है। आसाम का अनुभव है कि वहां लोग चार साल तक लोग पगला गए थे, हर परिवार का हजारों रूपया अनावश्यक इसमें लगा था। 16000 करोड़ रूपया यदि सरकारी पैसा खर्च हुआ है तो वह भी देश का पैसा बर्बाद हुआ है, एक अध्ययन के अनुसार एक आसामी का एन आर सी रजिस्टर में अपना नाम दर्ज/वेरीफाई कराने में औसतन 19000 रुपये खर्च हुआ है।
कल्पना करें कि पूरे देश में कितनी बड़ी बर्बादी होने जा रही है। इस स्थिति की गंभीरता को इस तरह समझें कि किन्हीं लोगों के पिता/बुजुर्गों के नाम भूमि आदि के दस्तावेजों में रामू, दीनू, नथुवा, बलवन्ता लिखा है जबकि उनके दस्तावेजों में क्रमशः राम सिंह या रामलाल, रामप्रसाद, दीनानाथ, दीनदयाल, और बलवन्त सिंह है तो उन्हें बहुत कुछ सिद्ध करना पड़ सकता है। उदाहरणार्थ रामू क्या वास्तव में तुम्हारे बाप/बुजुर्ग थे। यह जान लें कि अभी तक दस्तावेजों तक में अशुद्ध या देशज/घरेलू नामों का प्रयोग खूब हुआ है और होता रहा है, अशिक्षित बुजुर्गों द्वारा दस्तावेजों में खूब घरेलू नामों का प्रयोग होता था, स्कूल में दाखिल के समय यह नाम कुछ का कुछ हो जाता था। वैसे यह बिगड़ भी जाता था।
जिन लोगों ने अपने पिता के नाम दस्तावेजों में आधे अधूरे व देशज नामों से जरा भी अलग रखें हैं, या स्कूल में मास्साहबों ने “सुधार” दिए हैं, ठेंगा सिंह आपी वादरायण में ठाकुर सिंह हो सकते लेकिन दस्तावेज में दोनों एक ही हैं यह सिद्ध करना मुश्किल हो जाएगा ऐसे लोग जान लें कि उनपर बड़ी आफत आने वाली है, यह नाम रमुवा, भिमुवा, जसुली, परूली से लेकर छिद्दा, छिद्दू और ननकू तक हो सकते हैं।
क्योंकि जैसे आजकल के बहुत से मां बापों तक को यह पता नहीं होता उनका मुन्ना मुन्ना पिंकी गुड्डी, दस्तावेजों में क्या हैं। वैसे अब पप्पू कार्की और गुड्डी अधिकारी भी होते हैं। ऐसे में सौ साल पहले की स्थिति की कल्पना करें। ध्यान रहे, स्कूल जानेवाले और हाईस्कूल तक पहुँचने वाले बहुत से बच्चे अभी भी खानदान में पहले पहले होते हैं, यानी की उनके मां बाप और बुजुर्गों ने इससे पहले स्कूल का मुंह नहीं देखा होगा।
अब जरा एक और तकनीकी पक्ष देखें एन आर सी प्रक्रिया में हर भारतीय की नागरिकता संदिग्ध मान ली जाएगी, आपको लाईन लगाकर यह सिद्ध करना होगा कि आपका जन्म 1972 से पहले भारत में हुआ है और ह यहीं रहते थे, यदि उसके बाद हुआ है तो आपके माता पिता/दादा दादी का जन्म उस अवधि से पूर्व भारत में हुआ था और वह यहां रह रहे थे। जिसके लिए आपके पास ऐसा दस्तावेज होना चाहिए।
यह बात समझलें कि नाम लिखित में सही होना चाहिए और उस नाम से आपका या आपके पिता या माता का नाम मिलना चाहिए, या सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए।
इस समय यह भूल जाएं कि भारत में बड़ी संख्या में अशिक्षित,भूमिहीन, आदिवासी, घुमक्कड़ खानाबदोश, बिना मकान के इधर उधर या खुले आसमान के नीचे फुटपाथ में रहकर गुजरबसर वाले करोड़ों लोग हैं जिनके पास अपना या अपने बुजुर्गों के जन्म का कोई प्रमाण नहीं होता।
यदि बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं कि उनके पास अपने बुजुर्गों के जनम की लिखित सनद है तो “वह भी” समझ लें कि उसमें से 25% पर आफत आने वाली है क्योंकि भूमि/ आदि के दस्तावेजों में 25% अशुद्धियां तो मिलनी हैं, यदि किसी के बुजुर्ग के नाम में अशुद्धि मिली तो बुजुर्ग का नाम तो ठीक होने से रहा उसे ही अपने और अपने बच्चों के नाम उसी तरह शुद्व कराने पड़ेंगें, सामान्य रूप से से समझ लें कि कि यदि आपके बुजुर्ग का नाम जो कुछ है वैसा ही आपके दस्तावेजों में होना चाहिए।
आप अपने बच्चों या अपने आधार कार्ड का नाम सुधारना चाहते हैं तो अब इसका आसान नहीं है, आधारकार्ड में नाम सुधार की प्रक्रिया बहुत कड़ी और सीमित कर दी गई है, पिछले वर्ष तक यह हर सेन्टर पर आसानी से हो जाया करती थी। फिर आप अभी अपना या बच्चों के नामोंमें सुधार जैसे तैसे कर भी लें (जो अब आसान नहीं हैं) तो अपने दादा नाना का नाम कैसे ठीक करेंगे ?
यह जान लें कि इस प्रक्रिया में पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद और पूर्व मुख्यमंत्री अनवरत तैमूरव कारगिल का हीरो फौजी सनाउल्ला ही नहीं परेशान हुआ है, लाखों शर्मा, वर्मा और सुन्दर, चन्दर भी परेशान हुए हैं।