विनोद पाण्डे
उत्तराखण्ड की वन्यजीव सलाहकार परिषद ने 24 नवम्बर को शिवालिक एलीफेंट रिजर्व की अधिसूचना को रद्द कर दिया है। ये एलीफेंट रिजर्व देहरादून, लैंसडाॅन, हल्द्वानी, रामनगर, के अलावा काॅर्बेट नेशनल पार्क और राजाजी के हिस्सों को लेकर सन् 2002 में भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय ने अधिसूचित किया था। जिन वन प्रभागों के हिस्सों को इस रिजर्व में शामिल किया गया था, उन सभी इलाकों में हाथी की मौजूदगी रहती थी।
इस रिजर्व का कुल क्षेत्रफल 5000 वर्ग किमी0 है। रिजर्व का विशेष दर्जा खत्म करने का प्रभाव यह होगा कि इन सभी इलाकों में अब किसी भी गैर वानिकी काम के लिए वन्यजीव अधिनियम के अंर्तगत दिक्कतें नहीं आयेंगी। ऐसा करने से जाॅली ग्रांट हवाई अड्डे के प्रस्तावित विस्तार का रास्ता एक कदम आगे बढ़ गया है। प्रदेश की वन्य जीव सलाहकार परिषद के कदम पर प्रदेश के वन्यजीव प्रतिपालक जबर सिंह सुहाग ने जो टिप्पणी की वह भी बहुत आपत्तिजनक है।
उन्होंने कहा कि आज आप हाथी के नाम पर विरोध कर रहे हैं कल तितली के नाम पर विरोध होगा। क्या इसी तरह हम विकास के कामों को अवरूद्ध करते रहेंगे? उनके कहने का साफ अर्थ है जहां भी विकास के नाम पर वन भूमि की जरूरत पड़ेगी तो उसे बेरोकटोक दिया जायेगा। इसलिए वन विभाग और वन्यजीव सलाहकार परिषद के इस अप्रत्याशित कदम से कई प्रश्न उठ खडे़ हुए हैं।
जंगलों के बारे में यह धारणा है कि वन विभाग या सरकार इनकी मालिक है। पर वास्तविकता यह है कि जंगल क्योंकि आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व के लिए उतने ही जरूरी हैं जितने हमारे। इसलिए इन जंगलों पर उन पीढ़ियों का भी अधिकार है जो शायद अभी इस धरती पर जन्मी भी नहीं हैं। इसलिए सरकार और वन विभाग इन जंगलों केवल रखवाले हैं मालिक नहीं। इससे भी महत्वपूर्ण स्थिति वन्यजीवों की सुरक्षा कि लिए बने कानून जिसका नाम वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की है। इस कानून को बनाया ही वन्यजीवों के संरक्षण के लिए है और इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी के लिए इसी कानून में एक मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक या चीफ वाइल्ड लाइफ वाईन को सौंपी गई है।
इसलिए इस पद पर बैठे अधिकारी की जिम्मेदारी है कि वे भरसक यह कोशिश करे कि वन्यजीवों की सुरक्षा के साथ कोई समझौता न किया जाय। पर दुर्भाग्यवश वे इस प्रसंग में जो विरोध होता है उसके विपक्ष में तर्क दे रहे हैं। इसलिए इस सरकार और मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक के इस कदम की व्यापक निंदा हो रही है। एलीफेंट रिजर्व की अधिसूचना को रद्द करने का प्रभाव केवल जौलीग्रांट के हवाई अड्डे के विस्तार पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि शारदा नदी से लेकर नंधौर, गौला, कोसी, गंगा आदि नदियों के रेता-बजरी के खनन पर भी पड़ेगा क्योंकि इन नदियों के कई इलाके हाथी के विचरने वाले इलाके हैं जिन्हें हाथी गलियार (एलीफेंट कोरिडोर) घोषित किया गया है जिसके कारण खनन पर प्रतिबंध है। अतः यह पर्यावरण संरक्षण के विरूद्ध एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश है।
वन्यजीव सलाहकार परिषद के इस कदम के कई तकनीकी पक्ष भी हैं। पहला कि मौजूदा वन्यजीव सलाहकार परिषद का कार्यकाल पहले ही समाप्त हो चुका है, इसलिए उसे इस तरह के दीर्घकालीन निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। दूसरा वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 में इस परिषद को जो कतृव्य व अधिकार दिये हैं उसमें कहीं भी किसी अधिसूचना को रद्द करने के संबध में नहीं है। तीसरा इस परिषद को बनाया ही इसीलिए गया है कि वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए विशेषज्ञों की राय मिल सके क्योंकि इसमें कई विशेषज्ञों को गैर सरकारी सदस्य के रूप में शामिल किया जाता है। वे बिना वैज्ञानिक आधार की सलाह कैसे दे सकते हैं।
यह भी एक प्रश्न है कि केन्द्र सरकार की जारी अधिसूचना को कैसे कोई राज्य सरकार की संस्था रद्द कर सकती है? इसलिए साफ जाहिर होता है कि इसके सदस्यों ने अपने कतृव्यों के विरूद्ध कार्य किया है। यह भी विचारणीय है कि सन् 2002 में केन्द्र सरकार ने इस अधिसूचना को जारी करने का कारण “हाथी व उसके प्राकृतवास की सुरक्षा करना एवं मानव व हाथी के बीच संघर्ष को कम करना” था। इसलिए इस बात पर सरकार व परिषद को तथ्यों के साथ स्पष्ट करना ही होगा कि सन् 2002 से 2020 के बीच इन अधिसूचित इलाकों में ऐसा क्या बदलाव आया है कि अब इस प्रकार के विशेष संरक्षण की जरूरत नहीं रही? या कैसे इस अधिसूचना को रद्द करने से हाथियों का बेहतर संरक्षण होगा?
सरकार के इन अदूरदर्शी प्रयासों के पीछे कारण यह है कि प्रदेश सरकार जाॅलीग्रांट हवाई अड्डा जिसका रनवे अभी 2140 मी0 है उसे 2765 मी0 करना चाहती है। इसके लिए 243हैक्टर जमीन की जरूरत है। क्योंकि जाॅलीग्रांट हवाई अड्डे का एक हिस्सा जंगल से जुड़ा है इसलिए जंगल की जमीन को लेना सबसे आसान समझा गया। क्यांेकि अब जंगलों पर हो रहे किसी भी अधिग्रहण का आमतौर पर कोई जनविरोध नहीं होता है अगर कहीं होता भी है तो मीडिया उस खबर को दबाने या उस आंदोलन के विरोध में माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है, इसलिए सरकार के लिए वन भूमि हस्तान्तरण बहुत ही आसान हो गया है।
हवाई अड्डे के विस्तार को लेकर सरकार ने जो तर्क दिये हैं उनमें हमेशा की तरह हैं कि सीमाआंे की रक्षा करने के लिए, प्राकृतिक आपदाओं से तुरंत निबटने के लिए और पर्यटन विशेषकर चारधाम पर्यटन के लिए यह विस्तार जरूरी है। इस संबध में सरकार के इन तर्कों को मान भी लिया जाय तो इस बात पर सरकार के पास कोई तर्क नहीं होगा कि इस वन भूमि अधिग्रहण के प्रस्ताव को केन्द्र सरकार ने यह कह कर लौटा दिया था कि इस अधिग्रहण के लिए वैकल्पिक जमीन देख कर पुर्नविचार किया जाय। इस विस्तार के विरूद्ध स्थानीय रूप से नागरिक पहले से ही आंदोलनरत हैं और कई बार धरना व प्रदर्शन कर चुके हैं।
वे लोग से विस्तार के लिए करीब 10 हजार पेड़ काटे जाने से उद्वेलित हैं। हालांकि इस पेड़ों की सूची में पतले पौधों व जमीनी वनस्पतियों की गिनती नहीं होती है। उनकी भी गिनती की जाय तो यहां का वानस्पतिक नुकसान लाखों में होगा। जिसकी भरपायी कभी नहीं हो पायेगी।
इस पूरे प्रकरण का एक गंभीर पहलू यह भी है कि एलीफेंट रिजर्व जिसे अभी तक कानूनी मान्यता नहीं मिल पायी है के संबध में केन्द्र सरकार का वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इसे कानूनी दर्जा देने के लिए पिछले कुछ समय से गंभीर प्रयास शुरू कर रखे हैं। जाहिर है कि अगर एलीफेंट रिजर्व को कानूनी दर्जा मिल गया तो फिर उसे हटाना सरकार के लिए असंभव हो जायेगा। इसलिए भी लगता है कि प्रदेश सरकार जल्दीबाजी में यह सब कर लेना चाहती है। इसलिए सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि जनता में इसका विरोध हो रहा है और पर्यावरण व जीवविविधता की दृष्टि से यह कदम घातक है तो सरकार इसे किसके इशारे पर या किसके दबाब में कर रही है?