हिमांशु जोशी
क्रांतिकारी बन सकने वाले प्रश्न पर ‘अज्ञेय’ की शेखर पाठक और शमशेर बिष्ट को कही पंक्तियां पुस्तक का विशेष आकर्षण हैं।
शमशेर सिंह बिष्ट के जीवन पर लिखी इस क़िताब का उद्देश्य लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए प्रयासरत लोगों को शमशेर की कहानी बताकर सही मार्ग दिखाना है।
लेखक ने इस क़िताब में शमशेर की बचपन से अंतिम दिनों तक की यात्रा को लिखा है। लेखक ने इस क़िताब को शमशेर के साथ बातचीत और उनको करीब से जानने वाले लोगों का साक्षात्कार कर लिखा है। इस किताब से किसी की जीवनी लिख रहा नया लेखक काफ़ी कुछ सीख सकता है।
शराबी पिता की वज़ह से घर में रहती अशांति के बीच अपना बचपन बिताते बालक शमशेर को ‘धर्मयुग’, ‘दिनमान’ जैसी पत्रिकाओं को पढ़ शांति मिलती थी।
‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में प्रकाशित एक लेख को पढ़ उन्होंने धूम्रपान छोड़ दिया था। इंटर में नाम की गलतफहमी से जेल में बैठाने और पुलिस द्वारा एक मोची को सताने की घटना ने शमशेर को शमशेर बनाया।
लेखक ने शमशेर के कॉलेज अध्यक्ष और फिर जेएनयू में उनके छह महीनों के सफ़र पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है। शमशेर में किताबों से दोस्ती की वज़ह से युवावस्था के दौरान ही ऐसे परिवर्तन आ गए थे कि वह नेताओं के पिछलग्गु न बन सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटेकर, प्रशांत भूषण, प्रो आनन्द कुमार, स्वामी अग्निवेश, योगेंद्र यादव के नज़दीकी बने।
सुन्दरलाल बहुगुणा की प्रेरणा से शुरू हुई अस्कोट-आराकोट यात्रा का शमशेर, शेखर पाठक, प्रताप शिखर और कुंवर प्रसून के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा यह जानकारी देती क़िताब आगे बढ़ती है।
शमशेर ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’, ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’, ‘उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी’ और ‘उत्तराखंड लोक वाहिनी’ संगठनों के साथ जुड़े रहे, इन संगठनों की कार्यप्रणाली के बारे में लेखक ने विस्तार से बताया गया है जिन्हें पढ़ पाठक उत्तराखंड की वास्तविक समस्याओं को भी समझते चले जाते हैं। साथ ही सुंदर लाल बहुगुणा की ‘दिनमान’ पत्रिका वाली रपट ‘जाग जाग जाग ज्वान’ का जिक्र किया गया है जो आज के युवाओं के लिए सीख है।
शमशेर ने कांग्रेस में शामिल होने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था और उसका कारण बताया था कि पहाड़ की समस्या दलगत राजनीति से हल नही होंगी क्योंकि वह पूंजीपतियों के इशारे पर ही चुनाव लड़ते हैं, उनके लिए ही काम करते हैं। उन्हें जनता के हित से कोई मतलब नही है। लेखक ने शमशेर की चुनाव में भागीदारी और उनमें मिली विफलता के बारे में बताया है पर पुस्तक का यह हिस्सा विस्तृत रूप से लिखा जाना चाहिए था, कोई जननायक होने के बाद भी जनता का वोट हासिल नही कर पाता यह शोध का विषय है।
इसके बाद शमशेर की पत्रकारिता को पन्ने भर में निपटा दिया गया है जो निराशा देती है क्योंकि किसी के व्यक्तित्व को उसके लिखे से अच्छी तरह समझा जा सकता है पर बाद में किताब के आख़िरी हिस्से में उनके महत्वपूर्ण आलेखों को स्थान दिया गया है।
शमशेर के विवाह में उत्तराखंड के जनकवि ‘गिर्दा’ का किरदार अहम था जिस पर पुस्तक में अच्छी तरह से प्रकाश डाला गया है। क्रांतिकारी बन सकने वाले प्रश्न पर ‘अज्ञेय’ की शेखर पाठक और शमशेर बिष्ट को कही पंक्तियां पुस्तक का विशेष आकर्षण हैं।
शमशेर की बीबीसी और किताबों से दोस्ती युवाओं के लिए समय के जुड़े रहने की सीख है और ‘अग्नि दीक्षा’ से शमशेर के जीवन पर जो प्रभाव पड़ा वह किसी के भी जीवन में किताबों की महत्वता बताता है। एक कविता को पढ़ शमशेर रोने लगे थे, पुस्तक में शामिल यह किस्सा शमशेर जैसे मज़बूत व्यक्तित्व के अंदर छिपी संवेदनशीलता को दर्शाता है।
‘बीमारी का सिलसिला’ पाठ शमशेर की कहानी के साथ-साथ प्रसूताओं की पहाड़ों में हो रही मौत और अन्य गम्भीर बीमारियों के इलाज के लिए उत्तराखंडवासियों के दिल्ली जाने की मजबूरी को भी सामने रखता है।
‘सम्मान एवं पुरस्कार’ पाठ एक आंदोलनकारी और राजनीतिक व्यक्ति के बीच अंतर स्पष्ट करता है।
किसी के ऊपर लिखने के लिए यह जानना जरूरी है कि उससे जुड़े लोगों की अमुक व्यक्ति के बारे में क्या राय है इसलिए शमशेर के व्यक्तित्व के विविध आयामों को समझाने के लिए लेखक ने उनसे जुड़े लोगों के विचारों को सामने रखा है। शेखर पाठक की बात से स्पष्ट है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का जीवन आसान नही होता, वह लिखते हैं कि यदि उनकी शिक्षिका पत्नी रेवती बिष्ट नही होती तो उनके परिवार को भी मुश्किल से रहना पड़ता।
खड़क सिंह खनी से लेखक की बातचीत में शमशेर पर मार्क्स, लेनिन और माओ के प्रभाव के बारे में पता चलता है। दिवंगत त्रेपन सिंह चौहान ने शमशेर का बुखार होने के बावजूद यात्रा करने का किस्सा बताया है जो शमशेर के समाज के प्रति समर्पण भाव को दिखाता है।
शमशेर के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में छपे आलेखों में से कुछ की झलक लेखक द्वारा पेश की गई है जो उनके विचारों को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं।
‘उत्तराखंड में आपदाओं का वास्तविक कारण’ आज के उत्तराखंड में बने मुश्किल हालातों की वजह स्पष्ट करता है। ‘आदिवासियों को लोकतंत्र से दूर धकेला जा रहा है’ आलेख में डॉ बनवारी लाल शर्मा का कथन आज की राजनीति पर सटीक बैठता है।
अंतिम पाठ में लेखक ने शमशेर के पीएचडी के शोध कार्य पर विस्तार से प्रकाश डाला है, पूरा शोध कार्य उत्तराखंड के लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए लिखा गया है। लेखक ने पुस्तक के अंत मे उपसंहार और ब्लैक एंड वाइट से होते हुए रंगीन चित्र लगाते शमशेर की जीवन यात्रा को संजोया गया है।
पुस्तक में एक बात जो सबसे ज्यादा अखरती है वह यह कि किसी पाठ को विस्तृत रूप दिया गया है तो किसी को जल्दी खत्म कर दिया है, लेखक इन्हें समान रूप से लिखते तो पुस्तक थोड़ी और प्रभावी बन सकती थी।
इसके बावजूद पुस्तक देश की नीतियों को गौर से देख और समझ रहे युवाओं को नई दृष्टि देने के अपने मूल उद्देश्य में सफल रही है।
लेखक- कपिलेश भोज
प्रकाशक- साहित्य उपक्रम
मूल्य- 250 रुपए