राजशेखर पन्त
अल्मोड़ा के निकट जंगल में लगी भयानक आग को बुझाने के प्रयास में चार व्यक्ति अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं; तीर्थयात्रा मार्ग पर यात्री-वाहन आये दिन खाई में गिर जाते हैं; किसी परीक्षा में असफल होने पर छात्र अवसाद में आकर आत्महत्या कर लेते हैं; किसी युवती की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो जाती है -इस तरह के समाचारों का सिलसिला वास्तव में अंतहीन है।
कभी कोई किसी को सरेआम थप्पड़ जड़ देता है; रसूख वाले नौकरशाह/अधिकारी आये दिन अपने मातहतों को, आम आदमी को बेइज़्ज़त करते रहते हैं; पानी के लिए तूतू-मैंमैं होती रहती है, संबंधित सरकारी विभाग के पम्प्स अक्सर फुंके रहते है; आम बस्तियों से उखाड़ कर बिजली विभाग के कर्मचारियों द्वारा ट्रांसफार्मर ऐसी जगह पर लगा दिया जाता है जहाँ पैसे और हनक वालों ने अपने आशियाने बनाये हैं … वगैरा वगैरा -कुछ कॉमन सा लग रहा है आपको इन सब खबरों, हमारे आसपास अक्सर घट रहे इन वाकयों में?
सरसरी निगाह से देखें तो यह सब नेगेटिव खबरें हैं, जिनकी अब हमें आदत पड़ चुकी है। बेशक़, अगर आप संवेदनशील हैं तो ये सब आपको परेशान कर सकता है, एक नपुंसक सा गुस्सा भर सकता है आपके अंदर… बस इतना ही… इससे आगे कुछ नहीं होता। ज़िंदगी अपनी रफ्तार से बढ़ती चली जाती है। जो अवांछित है, नेगेटिव है, वह घटता रहता है और भुला दिया जाता है।
मुझे महसूस होता है कि इस तरह के ‘हादसों’ के पीछे हमारा आत्मकेंद्रित होता आचरण और हमारी व्यक्तिवादी तथा व्यक्तिपरक सोच है। कुछ कर सकने की स्थिति में होने पर जब आप कुछ करते हैं तो इस (करने) के केंद्र में भी प्रायः आप ही होते हैं, आपका भविष्य, आपकी महत्वाकांशाएँ, आपका स्वार्थ और अहंकार होता है।
जंगल की आग बुझाने के प्रयास में हुई दर्दनाक मौतों को टाला जा सकता था, यदि आग बुझाने वाले कर्मचारियों को अपने बचाव से जुड़ा आवश्यक साजोसामान उपलब्ध कराया गया होता। यदि समय रहते आग को न लगने देने या नियंत्रित करने की दिशा में, जिम्मेदार स्थानीय रहवासियों को विश्वास में लेकर कोई दीर्घकालिक योजना बना ली गयी होती; जंगल और उसके पड़ोस में रहने वाले इंसानों के रिश्ते को ठीक से समझा गया होता। इस दुराग्रह के चलते कि स्थानीय निवासी ही जंगल के सबसे बड़े दुश्मन हैं: या फिर राजधानी के किसी फाइव स्टार होटल के कॉन्फ्रेंस रूम में बैठ कर यह दोहराने से कि “फायर इज एन इंटीग्रल पार्ट ऑफ फॉरेस्ट इकोलॉजी” -बस इसी तरह के हादसे होते रहेंगे। वर्षा होगी, आग एक बार फिर बुझ जाएगी, मानसून जंगलों में फैली कालिख को धो देगा और इसके साथ ही आग की भेंट चढ़े चार आम लोगों की मौत की कहानी भी कहीं बिला जायेगी। न हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधियों के पास और नां ही उन अधिकांश नौकरशाहों के पास इतनी संवेदना बची है कि वो इस सड़-गल चुके सिस्टम की बदबू को महसूस कर सकें। उनका काम अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए स्वयं को, कुछ चुने हुए लोगों/संस्थाओं, जनप्रतिनिधियों तथा किसी दल विशेष के कथित कार्यकर्ताओं और समाजसेवियों को फायदा पहुंचाना मात्र रह गया है। आग बुझाने के लिए ‘अब’ चॉपर से पानी का छिड़काव किया जा रहा है… ‘अब’ जब कि चार लोग मर चुके हैं।
बद्रीनाथ-केदारनाथ को एक पर्यटक स्थल की तरह परोसने के पीछे भी यही सोच है। पारंपरिक तीर्थाटन पर कायदे से लगाया गया पर्यटन का तड़का सरकार और ठेकेदार दोनों के लिए फायदे का सौदा है। (यहाँ में ‘ठेकेदार’ शब्द का प्रयोग इस व्यंजना के व्यापक अर्थों में कर रहा हूँ।) पर्यटकों की अनियंत्रित भीड़ में तीर्थयात्रियों को ढूंढ निकालने की क़वायद आपको चौंका सकती है। कभी शाम के वक्त बद्रीनाथ में बने सरकारी टूरिस्ट रैस्टहाउस में ठहर कर आसपास फैले बाज़ार का चक्कर लगा लीजिएगा, आप स्वयं समझ जाएंगे। मैंने वाकई ऐसा किया था, और उस शाम का अनुभव आज भी बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है। मध्य हिमालयी क्षेत्र में बहुत से ऐसे उपेक्षित स्टेशन्स हैं, बहुत से ऐसे पारंपरिक मेले, आयोजन, प्रकृति में घटने वाले कौतुक है, इतिहास, कला, स्थापत्य और संस्कृति की ऐसी विरासत है जिसे पर्यटन से जोड़ कर इस क्षेत्र की आर्थिकी और पर्यावरण दोनों को बढ़ावा ही नहीं दिया जा सकता बल्कि चारधाम यात्रा को नियंत्रित करने की स्थिति में होने वाले प्रत्यक्ष नुकसान की भरपाई के साथ साथ पर्यटन से होने वाले फायदों का विकेंद्रीकरण भी किया जा सकता है। पर पहला विकल्प शायद इसलिये चुना गया होगा क्योँकि यह आसान था, ज्यादा फायदेमंद था, दूसरे विकल्प की तरह इसमें ज्यादा विज़न की, ज्यादा सोचने समझने, एक नए टारगेट ग्रूप को डेवलप करने की, टारगेट करने की, प्लानिंग करने की जरूरत ही नहीं थी। धर्म और पर्यटन के घाल-मेल को बेचना- भुनाना आज के माहौल में हर तरह से फायदे का सौदा तो है ही। थोड़ा सोचियेगा, तस्वीर बहुत साफ़ है।
किशोर छात्रों का अवसाद में आना, आत्महत्या करना, युवक-युवतियों की रहस्यमय मौतें और ऐसी ही अन्य दुर्घटनाएं भी वास्तव में व्यक्तिगत और सामूहिक महत्वाकांक्षाओं की ही परिणति हैं। पेरेंट्स निर्णय ले रहे हैं कि उनके बच्चे नीट की तैयारी करें, आइआइटी क्रैक करें या यूपीएससी निकालें। एक भरा-पूरा बाज़ार खड़ा हो गया है इन बेलगाम महत्वाकांक्षाओं के चलते, जिसमें पेरेंट्स और कोचिंग इंस्टीच्यूट चलाने वालों से लेकर पलायन के लिए नशा बेचने और पेपर लीक करने वाले- सब शामिल हैं, और बराबर के गुनहगार हैं। पेरेंट्स बच्चे पर ‘इन्वेस्ट’ कर आत्मसंतुष्टि, रुतबा और अपने मिडिल क्लास परिवेश से मुक्ति खरीदना चाहते हैं और कोचिंग, ड्रग माफिया तथा पेपर लीक करने वालों का गठजोड़, जिसे सिर्फ पैसों से मतलब है, पेरेंट्स की महत्वाकांक्षाओं की कीमत वसूलता है, उन्हें कन्विंस करता है कि सफलता हासिल करने के शॉर्टकट्स भी हैं। बहुत जल्दी, बहुत तेजी से सब कुछ हासिल कर लेने की चाह, भीड़ से एकाएक अलग दिखने की कोशिश- सापों का जहर बेचने से लेकर ऐसे अंधे मोड़ के मुहाने पर ला खड़ा करने तक, जिसमें घुसने के बाद लौटना संभव नहीं हो पाता -कुछ भी कर सकती है।
रही बात थप्पड़ की, तो किसी को आप प्रायः यूं ही कम से कम पब्लिकली नहीं मारते। आपका अचेतन मस्तिष्क बहुत पहले से इस बात का पूरा अनुमान लगा चुका होता है कि इससे आपको क्या फायदा होने जा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि धर्म, खान-पान, वेश-भूषा इत्यादि की आड़ लेकर आप सार्वजनिक मंच से किसी को बड़े-छोटे या अच्छे-बुरे होने का सर्टिफिकेट नहीं दे सकते, आपको नहीं देना चाहिए। पर आप ऐसा करते हैं, बार-बार करते हैं। ऐसे ही जब आप अपने मातहत को अपमानित करते हैं, सार्वजनिक परिसंपत्तियों या सुविधाओं के निर्माण/रख-रखाव की जिम्मेदारी मिलने पर भ्रष्टाचार करते हैं। किसी दफ्तर में कार्यरत होने की स्थिति में सीधे-सादे और सरल तरीके से हो जाने वाले काम के लिए आये व्यक्ति से कहते हैं, “कल आना” या “ये तो बड़ा मुश्किल है” तो आप ऐसा इसलिए कर रहे होते हैं क्योँकि आप ऐसा करने की स्थिति में हैं। भ्रष्ट इरादों से इतर यह व्यवहार आपके अहं को भी संतुष्ट करता है।
ये कुछ उदाहरण मैंने अपने आसपास से ही उठाये हैं। मैं समझता हूं कि आप या मुझ जैसा एक आम आदमी इस घटनाओं के घटित होने की प्रक्रिया में प्रायः एक किरदार की तरह शामिल होता है। यह नियति है उसकी। हालाँकि वह समझता है कि जो हो रहा है वह गलत है, नहीं होना चाहिये। पर विसंगति यह है कि वह प्रायः इस तरह के आचरण को खाद-पानी देने का कारण बन जाता है। अगर 500 रुपये दे कर हम हेलमेट न पहनने की वजह से होने वाले चालान से बच सकते हैं तो ऐसा करने पर हमें कोई ग्लानि या अपराधबोध नहीं होता। हम इसे ‘प्रैक्टिकल’ होना समझते हैं। असल में बहाव अपनी दिशा सुविधानुसार स्वयं ही तय करता है। वो जो इसके आघात से टूट जाते हैं, इसमें बहने के लिए बाध्य होते हैं। और बहाव के सामने अधिकांश चीजें -मकान, पेड़, दीवार, पुल इत्यादि बहुत देर तक टिक नहीं पाते।
किसी राजनैतिक दल या विचारधारा के प्रति मेरा विशेष आग्रह कभी नहीं रहा है। एक तटस्थ दृष्टा की तरह जब कभी भी वर्तमान राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य को समझने की कोशिश करता हूं तो लगता है सभी दल विकास, उन्नति, राष्ट्रहित, दलित-पिछड़े, अल्पसंख्यक समुदाय इत्यादि विषयों से जुड़ी बातें भले ही करते हों पर उनकी प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया को उनके पूर्वाग्रह, उनका अहंकार, स्वयं अपने और अपनी पार्टी के अस्तित्व को बनाये-बचाये रखने और और उसके फलने-फूलने का इंतज़ाम करने की उनकी जद्दोज़हद ही कंडिशन करती है।
एक रूपक के माध्यम से समझने-समझाने का प्रयास करूं तो जंगल सिर्फ अल्मोड़ा का ही नहीं जल रहा है, व्यवस्था के अरण्य को भी लपटों ने घेर लिया है। और अब, जब की बहुत कुछ इस बेकाबू हुए दावानल की भेंट चढ़ चुका है हाकिमों का हैलीकॉप्टर राष्ट्रवाद की बारिश कर इस आग को बुझाने में मशगूल है। आप और मुझ जैसे आम लोग उड़ते हुए चॉपर से की जाने वाली दिव्य बरसात की रील बना कर इंस्टाग्राम में हैशटेग के साथ डाल रहे हैं।
जलते हुए जंगल का इससे खूबसूरत बसंत और भला क्या होगा।
फोटो इंटरनेट से साभार