राजीव लोचन साह
18 मार्च को मुजफ्फरनगर के अपर जिला एवं सत्र न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पी.ए.सी. के दो जवानों, मिलाप सिंह एवं वीरेन्द्र प्रताप को आजीवन कारावास की सजा दी। इन पर वर्ष 1994 में मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा में उत्तराखंड आन्दोलनकारी महिलाओं के साथ दुराचार का आरोप था। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार लगभग डेढ़ दर्जन आरोपियों के भाग्य का निर्णय होना अभी शेष है। चार अभियुक्तों की इस बीच मृत्यु हो चुकी है।
समझ में नहीं आ रहा है कि 30 साल बाद आये इस निर्णय पर खुश हुआ जाये या कि अफसोस किया जाये। 1994 के शरद के वे तूफानी दिन याद आ गये, जब एक पृथक राज्य की माँग के लिये उत्तराखंड की सम्पूर्ण जनता पूरी ताकत के साथ सड़कों पर थी। मगर दो अक्टूबर को दिल्ली के राजघाट पर प्रदर्शन के लिये जाते हुए आन्दोलनकारियों पर उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार द्वारा जो वहशियाना अत्याचार किये गये, उससे जनता के पूरे उत्साह पर पानी फिर गया। ऐसा नहीं कि पृथक राज्य के लिये जनता के संकल्प में कोई कमी आयी हो, मगर आन्दोलन की ऊर्जा छीजने लगी। सबसे ज्यादा निराशा तो कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों के व्यवहार से हुई, जिन्होंने आजादी के बाद की इस सबसे शर्मनाक घटना पर खुल कर अपना विरोध तक नहीं जताया। हम आन्दोलनकारी उन दिनों इतने हताश थे कि सोचते थे कि क्या यह देश हमारा ही है, हमें यहाँ रहना चाहिये जहाँ की केन्द्र सरकार और हमारे साथी देशवासी हमारे दर्द को महसूस तक नहीं कर पा रहे हैं? मुझे लगता है कि उपवास में डटे सोनम वांगचुक और उनके साथ आन्दोलन में मुब्तिला लद्दाख की जनता केन्द्र सरकार की बेरुखी से आज ऐसा ही महसूस कर रहे होंगे।
वह तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय का न्यायमूर्ति रवि एस. धवन का 9 फरवरी 1996 का ऐतिहासिक फैसला था, जिसने उत्तराखंडवासियों के घावों पर थोड़ा मलहम लगाया था। इस फैसले में कहा गया था, ‘‘यह अदालत संविधान के भीतर अपनी सीमाओं के कारण आन्दोलन की मूल वस्तु, पृथक राज्य तो प्रदान नहीं कर सकती, किन्तु अदालत ने शिद्दत से उन्हें यथासंभव उस दुःख से उबारने का प्रयास किया है, जो उन्हें एक व्यक्ति एवं वर्ग/समूह के रूप में मानवाधिकारों की अवमानना एवं संवैधानिक अपकारों के कारण भोगना पड़ा है।’’ इस निर्णय में न केवल पीड़ितों के लिये, बल्कि पूरे उत्तराखंड के लिये मुआवजे की व्यवस्था की गई थी। दुर्भाग्य से सर्वोच्च न्यायालय ने 13 मई 1999 के अपने एक निर्णय से इस बेहद महत्वपूर्ण निर्णय को पलट दिया।
हम उन दिनों कहा करते थे कि मुजफ्फरनगर कांड के अपराधियों को दंडित नहीं किया गया तो पृथक उत्तराखंड राज्य का बनना या न बनना बेमतलब है। हम शहीद उधमसिंह को भी याद करते थे, जिन्होंने जलियाँवाला बाग का बदला 21 साल के बाद ब्रिटेन के कैक्सटन हॉल में जनरल डायर की हत्या कर लिया था। मगर न सिर्फ तत्कालीन अविभाजित उ.प्र. की सरकार ने बल्कि उत्तराखंड राज्य का गठन हो जाने के बाद यहाँ की भाजपा और कांग्रेस सरकारों ने भी अपराधियों को दंडित करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। वह भी तब, जबकि तमाम आन्दोलनकारी संगठन, जिनमें उत्तराखंड महिला मंच की भूमिका मुख्य थी, लगातार सरकार से आग्रह करते रहे, उस पर दबाव बनाते रहे कि आरोपियों को जल्द से जल्द सजा दिलवायी जाये। बीच में वर्ष 2003 में तो एक बार ऐसा भी हुआ कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक आरोपी, मुजफ्फरनगर के तत्कालीन जिलाधिकारी अनन्त कुमार सिंह, जो अपने वक्तव्य कि ‘यदि कोई औरत अकेले गन्ने के खेत में जायेगी तो उस पर बलात्कार तो होगा ही’, के लिये चर्चित हुए थे, को दोषमुक्त कर दिया। इस पर उत्तराखंड में एक बार फिर जबर्दस्त गुस्सा पैदा हुआ और राज्य आन्दोलनकारियों ने घोषणा की कि वे अदालत के भीतर ही इस फैसले को आग लगायेंगे। घबरायी हुई न्यायपालिका को अपना फैसला ही वापस लेना पड़ा। न्यायपालिका के इतिहास में ऐसा उदाहरण दुर्लभ है। मगर फिर उस मुकदमे का क्या हुआ, उसके बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है।
वक्त बीतता गया। गवाह मुकरते गये या मरते रहे, अनिच्छापूर्वक की गई कमजोर पैरवी के कारण अभियुक्त छूटते गये और मुकदमे बन्द होते गये। मुजफ्फरनगर कांड की स्मृति धूमिल होती गई। आज की पीढ़ी में तो अधिकांश को यह मालूम भी नहीं होगा मानवता को शर्मशार करने वाली वह घटना क्या थी। उसे आज के सत्ताधारी दल ने जिस नफरती एजेंडे में धकेल दिया है, उसके आगे उसके सोचने के लिये कुछ बचा भी नहीं है।
और अब यह निर्णय सामने आया है। हमारी सरकारें ईमानदार होतीं, आन्दोलनकारी कुछ लम्बे समय तक, मुस्तैदी से इस मामले में टिके होते तो दर्जनों अभियुक्तों को सजायें होतीं। उनमें अब बेचारे से लगते वृद्धावस्था में जा चुके पी.ए.सी. के सिर्फ दो जवान ही नहीं होते, अनन्त कुमार सिंह और बुआ सिंह जैसे बड़े-बड़े अधिकारी भी होते। क्या फायदा ऐसे निर्णय का ?
मगर उत्तराखंड का तो गठन ही शायद जनता की अपेक्षाओं को अनदेखा करने और केन्द्र में शासन कर रही राजनीतिक दलों के लिये प्रयोगशाला के रूप में हुआ है।