साभार मोंगाबे हिंदी
वनों की संख्या में काफी कमी होने के बावजूद लद्दाख के पर्यावरण की स्थिति उत्तराखंड से बहुत अलग नहीं है। इस लेख में बताई गई बातें उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र के हालातों को समझने के लिए अच्छा आधार हो सकती हैं।
– संपादक
ग्लेशियर की वजह से लद्दाख में जीवन संभव है। सबसे बड़ा मुद्दा ग्लेशियर के तेजी से पिघलने का है। यह एक ठंडा रेगिस्तान है और यहां जिंदगी मुमकिन है तो ग्लेशियर की वजह से है। लद्दाख ही नहीं पूरे उत्तर भारत में एक बिलियन आबादी (100 करोड़ लोगों) को यह ग्लेशियर सपोर्ट करते हैं। इतनी ही संख्या में चीन की तरफ के लोग भी इस पर निर्भर हैं। इस तरह पूरे विश्व की एक चौथाई आबादी का जीवन ग्लेशियर पर निर्भर करता है।
ग्लेशियर के पिघलने की दो वजह हैं, एक ग्लोबल वार्मिंग और दूसरा स्थानीय कारण। ग्लोबल वार्मिंग का हम यहां स्थानीय समाधान नहीं ढ़ूंढ सकते हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर जो समाधान हैं उन्हें जरूर अपनाना चाहिए।
अभी तक हमें लगता था कि ग्लेशियर केवल ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जो क्लाइमेट चेंज हो रहा है उसी वजह से पिघल रहे हैं, लेकिन हाल के समय में पता चला है कि स्थानीय स्तर पर जो मानव गतिविधियां हो रही हैं उससे भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इसके जिम्मेदार यहां के स्थानीय लोग काफी कम हैं और वो बहुत सादा जीवन बिताते हैं। उसके बाद आर्मी आती है, टूरिज्म आता है, इनकी वजह से ऐसी गतिविधियां होती हैं जिससे धुआं, धूल आदि पैदा होता हैं, और ग्लेशियर पर जाकर बैठ जाते हैं। जिससे वे काले पड़कर जल्द पिघल जाते हैं। पर्यटकों के लिए हजारों टैक्सी खारदुंगला, तांगलांग ला या चांगला से गुजरती हैं। आर्मी के ट्रांसपोर्ट के लिए ट्रक्स, टैंक्स आदि भी इन सड़कों पर चलते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है।”
क्यों उठ रही छठवीं अनुसूची की मांग ?
हिमालय का ऊंचाई वाला हिस्सा पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही नाजुक है। ऐसे में अगर ज्यादा संख्या में इंडस्ट्री हो, गाड़ियां हो या जनसंख्या हो तो यहां की जलवायु को बहुत ज्यादा खतरा हो सकता है। ऐसे में यहां के लोग भी यहां नहीं रह पाएंगे और आने वाले लोग भी नहीं रह पाएंगे।
जम्मू कश्मीर से अलग होने के बाद केंद्र शासित प्रदेश बनने से इसका कोई संरक्षण नहीं है। इस वजह से यह इलाका और संवेदनशील बना है। अभी के हिसाब से यहां कोई भी खनन इंडस्ट्री, कुछ भी लगाए, यहां के स्थानीय लोगों का कोई नियंत्रण नहीं है। लोकतंत्र के हिसाब से भी यहां के लोगों का कोई कंट्रोल नहीं है क्योंकि यहां कोई इलेक्टेड फोरम नहीं है।
प्रदूषण, लोकल एक्टिविटी, टूरिज्म और मिलिट्री की वजह से बढ़ी जनसंख्या और ऐसा ही रहा तो एक-एक इंडस्ट्री के साथ लाखों की संख्या में लोग आएंगे, जिससे संवेदनशील स्थान पर असर होगा। इसकी संवेदनशीलता को सरकार नहीं समझ पा रही है। इस वजह से यहां एक अभियान चलाया जा रहा है ताकि लद्दाख को संरक्षित किया जाए, और संविधान की छठी अनुसूची में इसे संरक्षण मिले।
क्यों जरूरी है सिक्स्थ शेड्यूल या छठी अनुसूची
हमारे देश में बहुत विविधता है, अलग-अलग तरह के और जनजाति के लोग रहते हैं। संसार में जो संजीदा देश हैं वह इस विविधता को बचाते हैं। इसमें एक देश भारत भी है जो अपने आदिवासियों को संरक्षण देता है। शेड्यूल ट्राइब्स (अनुसूचित जनजाति) का मतलब ऐसे निवासी जो भारत के मूल निवासी हैं, जो जंगलों में हैं जैसे छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, या पहाड़ों में रहते हैं।
संविधान की पांचवी अनुसूची में जो मैदानी इलाकों में हैं उन्हें संरक्षण दिया जाता है, जैसे छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश। पहाड़ों के लिए छठी अनुसूची में संरक्षण दिया जाता है। पूर्वोत्तर में यह ज्यादातर है लेकिन लद्दाख में भी यह उपयुक्त है। यहां पर भी एक अलग लोग हैं जिसके अपने दायरे हैं जिसके भीतर वह रहते हैं और उन्हें बचाने की जरूरत है। ऐसी जगह पर जहां की प्रकृति संवेदनशील हो, संस्कृति संवेदनशील हो और जमीन संवेदनशील हो, इस प्रावधान के अंतर्गत संरक्षण दिया जाता है।
स्थानीय लोग जो हजारों साल से यहां रहे हैं, अपने लिए जो भी फैसला करें उसका नतीजा वह भुगतेंगे। दो-तीन साल के लिए ब्यूरोक्रेट्स कुछ भी फैसला करके चले जाएंगे, इसके आलावा उनकी गलतियों का खामियाजा स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ेगा, जो कि बहुत नाजुक हालातों में रहते हैं। यहां के लोग पांच लीटर पानी में गुजारा करते हैं, बाकी जगहों पर 500 या कम से कम 50 लीटर लगता है। यहां के लोग ठंड से मुकाबला करते हैं। साथ में मानव निर्मित चुनौतियां जैसे चीन, पाकिस्तान के बॉर्डर पर तनाव की स्थिति का सामना करते हैं। यहां के लोग नाजुक हालात में रहते हैं तो इनके पास कुछ तो डिसिजन मेकिंग हो।
छठे शेड्यूल का मतलब है स्थानीय लोगों को आवाज देना। स्थानीय लोगों को कानून बनाने का अधिकार भी मिलता है। स्थानीय लोग चाहें तो पर्वतों को बचा सकते हैं और चाहें तो इंडस्ट्री या माइनिंग भी ला सकते हैं। हमें लगता है कि छठी अनुसूची ही लोगों को बचा सकती है। क्योंकि जो पायलट जहाज उड़ा रहा है वह उसे नहीं गिराएगा क्योंकि वह खुद भी उसमें है।
जम्मू कश्मीर में धारा 370, 35ए में संरक्षण मिला हुआ था। जब लद्दाख के लोग यूनियन टेरेटरी मांग रहे थे, तब उन्हें पता था। वह दो चीजें मांग रहे थे। केंद्र शासित प्रदेश के साथ चुनी हुई सरकार जो फैसले ले। और दूसरा कि जम्मू कश्मीर से हटने के बाद हमें सिक्स्थ शेड्यूल का संरक्षण मिले। जम्मू कश्मीर से अलग होने के बाद इसकी मांग ने जोर पकड़ा, क्योंकि इसकी जरूरत ज्यादा पड़ने लगी। सरकार ने तमाम वादे किए लेकिन करने की बात आई तो वह पीछे हटने लगे। सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में भी इसका जिक्र था, लेकिन चार साल होने को आया अभी तक कुछ नहीं हुआ। अब वह कह रहे हैं कि यह नहीं हो पाएगा। लिखित वादे के आधार पर इलेक्शन जीतने के बाद भी वह अपने वादे से पलट गए। इस वजह से संघर्ष और बढ़ा है।
लगातार बढ़ता टूरिज्म
पहले टूरिज्म 30 हजार के करीब हुआ करता था। 80-90 के दशक से 2000 तक स्थित यही थी। लेकिन, अब यह तीन लाख, पांच लाख तक छू रहा है। बढ़ते पर्यटन के हिसाब से यहां पर इंतजाम नहीं हैं। कचरे के हिसाब से बहुत ही नाजुक हालत है। घरेलू टूरिज्म बढ़ने की वजह से कचरे की समस्या बढ़ी है। लोग ये नहीं देखते कि कहां आए हुए हैं और कचरा फैलाते हैं। वैसे तो गैर-जिम्मेदार टूरिज्म कहीं नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसे नाजुक इलाके में तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। पर्यटकों की जिम्मेदारी में भी कुछ कमियां हैं। दूसरी तरफ, स्थानीय प्रशासन और स्थानीय व्यवस्था बहुत कमजोर है। वे लद्दाख के हालात को न समझते हुए लेह को किसी भी दूसरे शहर जैसे दिल्ली या देहरादून की तरह समझ रहे हैं। पर्यटकों की संख्या तीन लाख या पांच लाख होना अधिक है अगर अव्यवस्थित हो। अगर इन्हें व्यवस्थित ढंग से रखा जाए तो यह संख्या बिल्कुल ज्यादा नहीं है। अभी तो लेह में पांच महीनों में पांच वर्ग किमी में पांच लाख लोग आ रहे हैं। इससे लेह बर्बाद हो रहा है। अगर इसी को पूरे लद्दाख में फैलाएं तो यह तीव्रता काफी कम होगी।
लेह शहर को हम ऐसे समझ रहे हैं जैसे हमारे पास अथाह पानी है। यह एक रेगिस्तान है यह समझकर आपको आगे बढ़ना होगा। अगर दूसरे शहर की तरह इसे समझा जाए, और लोग होटलों में 100 लीटर के बाथटब में नहाएं, खाना बर्बाद करें तो समस्या होगी। यहां सदियों से कंपोस्ट वाले शौचालय का चलन रहा है जिसमें पानी की जरूरत नहीं होती। मल, खाद के रूप में खेतों में जाता है। अब अचानक फ्लश टॉयलेट्स आ गए हैं। हम पीते पांच लीटर हैं और फ्लश में 50 लीटर गंवा देते हैं।
जिम्मेदार पर्यटन की आवश्यकता
हमारे पास इतना पानी है भी नहीं। अगर पानी लाना भी होगा तो इंडस (सिंध) नदी से पानी लिफ्ट करके लाना होगा, जिसमें बिजली की खपत होगी। इसका अपना प्रदूषण और खर्च है। बिल्कुल तबाही का मंजर है यह। आप अगर एवरेस्ट पर जाएं तो यह उम्मीद नहीं करेंगे न कि 100 लीटर का बाथटब लेकर जाएं, फ्लश टॉयलेट लेकर जाएं। जैसे आप एवरेस्ट के लिए माहौल के साथ ढलते हैं वैसे ही उतना नहीं तो लद्दाख की जरूरत के हिसाब से एडजस्ट करें। यह एक शीत मरुस्थल है और यहां के स्थानीय लोग कैसे रहते हैं, उस हिसाब से रहें तब वो टूरिज्म और रंगीन होता है। वही जिंदगी जो दिल्ली या मुंबई में है, उसी को हम लद्दाख या एवरेस्ट तक ले जाएं तो आप क्यों आएंगे। यहां जिस तरह रहना जरूरी है उसी तरह रहेंगे तो आप कुछ सीखकर जाएंगे। नया अहसास या तजुर्बा करके जाएंगे।
लेह को इस तरह का बना रहे हैं कि जिसमें सात मिलियन लीटर प्रति दिन पानी की जरूरत होगी। सबसे अधिक पानी मेरे ख्याल से फ्लश के लिए जा रहा है। इससे बचने के लिए कंपोस्ट टॉयलेट का उपयोग करना चाहिए। कंपोस्ट टॉयलेट बोलने का मतलब यह नहीं कि शौचालय 100 साल पुराना ही हो, सिद्धांत वही हो लेकिन उसका आधुनिकीकरण हो।
पश्चिमी हिमालय के ग्लेशियर, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लिए पानी के स्रोत हैं। शोधकर्ताओं ने विभिन्न अध्ययनों में पाया है कि, ब्लैक कार्बन और ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने के कारण ये जल-स्रोत तेजी से पिघल रहे हैं, जिसकी वजह से बर्फ से ढके इस इलाके की सफेदी कम हो रही है।
हाल के एक अध्ययन में, उपग्रह से मिले डेटा का उपयोग करके लद्दाख क्षेत्र के द्रास बेसिन में लगभग 77 ग्लेशियरों का मूल्यांकन किया गया। अध्ययन में 2000 से 2020 के बीच इन ग्लेशियरों के सिकुड़ने, मुहाने के पीछे हटने, बर्फ की मोटाई में बदलाव, और पिघले बर्फ के वेग में बदलाव की जांच के आधार पर मूल्यांकन किया गया।
अध्ययन के नतीजों से पता चला कि 2000 से 2020 के बीच द्रास क्षेत्र के ग्लेशियर 1.27 मीटर पतले हो गए हैं। इस इलाके में बढ़ते तापमान के अलावा, ब्लैक कार्बन 330 नैनोग्राम से बढ़कर 680 नैनोग्राम हो गया है।
अर्थ साइंटिस्ट (भू-वैज्ञानिक) और ग्लेशियोलॉजिस्ट शकील अहमद रोमशू, इस अध्ययन के सह-लेखक हैं, उन्होंने बताया कि ब्लैक कार्बन और ग्लेशियरों के पिघलने के बीच सीधा संबंध है।
उन्होंने कहा, “जलवायु परिवर्तन दो तरह की परिस्थितियों की वजह से होता है। एक प्राकृतिक और दूसरा मानवजनित। बड़े पैमाने पर मानवजनित जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में ग्रीनहाउस गैसों और प्रदूषकों के बढ़ने के कारण होता है। इस अध्ययन के माध्यम से, हमने हिमालय में ग्रीनहाउस गैसों, ब्लैक कार्बन और ग्लेशियरों के पिघलने के बीच एक कड़ी जोड़ने की कोशिश की है।”
रोमशू ने बताया, “वातावरण में ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ती है तो ये ग्लेशियर की सतह पर जम जाते हैं। ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन जमने की वजह से बर्फ की सौर किरणों को परावर्तित करने की क्षमता कम हो जाती है, और ग्लेशियरों की सतह पर जमे ब्लैक कार्बन सौर विकिरण को अवशोषित करते हैं, जिसकी वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं। इस तरह ब्लैक कार्बन पहाडी की बर्फीली चादर यानी ग्लेशियर को तेजी से पिघलाने में अहम भूमिका अदा करते हैं।”
रोमशू ने जोर देते हुए कहा कि हिमालय में लद्दाख के द्रास क्षेत्र में ग्लेशियरों के पास राष्ट्रीय राजमार्ग का होना, उनके पिघलने का एक और कारण है, क्योंकि वाहनों के उत्सर्जन से ब्लैक कार्बन की सांद्रता (द्रव या गैस में घुले तत्व की मात्रा) बढ़ती है।
उन्होंने बताया, “कश्मीर में ब्लैक कार्बन बढ़ने की एक अहम् वजह शरद-ऋतु (सर्दी की शुरुआत का महीना) में बगानों के पेड़ों के छटाई के बाद लकड़ियों को जलाना और सर्दियों में गर्मी के लिए लकड़ी का उपयोग बायोमास (स्वच्छ-ईंधन) के तौर पर करना है। आर्थिक वजहों से लकड़ी का उपयोग बायोमास (स्वच्छ-ईंधन) के लिए होता है, क्योंकि धान की खेती की तुलना में, बागवानी से इलाके के किसानों को 5-6 गुना अधिक लाभ होता है।
रोमशू ने कहा, “सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र में 12,000 से अधिक ग्लेशियर हैं, जो ऊपरी सिंधु बेसिन का निर्माण करते हैं। इन ग्लेशियरों से निकलने वाला पानी पड़ोसी देश पाकिस्तान की लगभग 80 प्रतिशत पानी की मांग को पूरा करता है। इसलिए, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारणों को सही मायने में नहीं समझा गया तो सीमा पार की नदियों की प्रकृति के कारण दक्षिण एशिया में सुरक्षा स्थिति प्रभावित हो सकती है।”
बेंगलुरू में स्थित इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस के दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के विशिष्ट अतिथि वैज्ञानिक अनिल वी. कुलकर्णी ने बताया कि सौर विकिरण को परावर्तित करने की बर्फ की क्षमता बहुत अधिक होती है। “जब प्रदूषक बर्फ पर गिरते हैं, तो यह क्षमता काफी कम हो जाती है। इसका मतलब है कि बर्फ बहुत तेजी से पिघलनी शुरू होगी।”
कुलकर्णी ने कहा, “सबसे बड़ी बात यह है कि ख़ास तौर से जलवायु परिवर्तन के कारण सर्दियों का तापमान तेजी बढ़ता है, इस वजह से और पार्टिकुले मैटर की अधिकता के कारण बर्फ जल्दी पिघलती हैं।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इसके जल्दी से पिघलने का इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और समुदाय पर असर पड़ता है।
उन्होंने पहाड़ के झरने के जल्दी सूखने का कारण बताते हुए कहा, “हिमालय में पूरी तहर संतुलन है, जहां सर्दियों में हिमपात होता है और वसंत ऋतु में यह पिघल जाता है, और पानी जमीन में रिसता है। इसके बाद मानसून आता है। इसलिए बर्फ के पिघलने और मानसून के आने के बीच एक अंतर होता। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण दो चीजें होती हैं, पहाड़ के झरने जल्दी सूख जाते हैं जिससे पहाड़ों में रहने वाले समुदायों के लिए संकट पैदा हो जाता हैं। दूसरी बात, यह पहाड़ के जंगलों को भी सुखा देता है नतीजतन जंगल में आग का मौसम जल्दी आ जाता है।”
उन्होंने कहा कि जल्दी हिमपात का ख़ास तौर से सिंधु घाटी के पहाड़ों में रहने वाले समुदायों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। कुलकर्णी ने कहा, “इस प्रभाव के कई पहलू हैं। मौसम और पानी की उपलब्धता में बदलाव होगा, और यह खेती के तरीकों को कैसे प्रभावित करेगा, यह देखने की जरूरत है।”
हाइड्रोलॉजिस्ट शरद जैन का कहना है कि पश्चिमी हिमालय में बढ़ते वायु प्रदूषण और एरोसोल (धुंध) से बारिश प्रभावित होने की आशंका है और इससे नदी का प्रवाह, जल विद्युत विकास, कृषि और अन्य क्षेत्र प्रभावित होंगे।
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान रुड़की के पूर्व निदेशक और वर्तमान में आईआईटी रुड़की में अतिथि प्रोफेसर जैन ने कहा, “ग्लोबल वार्मिंग की वजह से तेजी से ग्लेशियर की बर्फ पिघलने के कारण, हम निकट भविष्य में इसका तेज प्रवाह देख सकते हैं। जब तक इसका ठीक से उपयोग नहीं किया जाता है, यह बाढ़ से नुकसान का कारण बन सकता है।”
उन्होंने कहा, “लेकिन, जैसे-जैसे ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, कुछ समय बाद नदी का प्रवाह कम हो सकता है, जिससे जलविद्युत उत्पादन, फसल उत्पादन आदि में कमी आ सकती है। बारिश की तीव्रता बढ़ने से नदियों में तलछट की आवाजाही बढ़ेगी। यह जलविद्युत संयंत्रों को नुकसान पहुंचा सकता है। बहुत अधिक तलछट जमाव से नदी का तल प्रभावित होंगा।”
कुलकर्णी ने कहा कि वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्माताओं के बीच संवाद बहुत सीमित है। “हमें अनुसंधान लक्ष्यों को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है, जहां सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दों को लिया जा सकता है और उस दिशा में शोध करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा, बर्फ और ग्लेशियरों के अध्ययन को पूरी तरह से संस्थागत बना के उनकी फंडिंग बढ़ाने की जरुरत है।”
जैन ने जोर देते हुए कहा कि नीतियों का विकास और समय पर क्रियान्वयन (एक्शन लेना) एक चुनौती है। नीति और जमीनी कामों के बीच बहुत मजबूत संबंध नहीं है। जम्मू-कश्मीर की विभिन्न नदियों पर छोटी पन-बिजली परियोजनाओं से बिजली पैदा करने के कई अवसर हैं। यह हितधारकों को जोड़ने में सहायक होगा। साथ ही, जम्मू-कश्मीर में ग्लेशियरों और नदियों की निगरानी और उनके जलविद्युत व्यवहार को समझने के लिए वैज्ञानिक प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है।”
फोटो इंटरनेट से साभार
One Comment
Gaurav singh
बेहद सुंदर लिखा है. बहुत-सी नई जानकारी को समेटे अनूठी गद्य-भाषा में लिखे गए हैं ये संस्मरण🌹