राजीव लोचन साह
भूगर्भीय दृष्टि से एकदम युवा और कमजोर हिमालय तथा प्राकृतिक दुर्घटनाओं का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सैकड़ों सालों से यहाँ बाढ़ और भू स्खलन आते रहे हैं। मगर जैसे-जैसे आबादी का विस्तार हुआ तो इन दुर्घटनाओं का असर ज्यादा देखा भी जाता रहा और रिकॉर्ड भी किया जाता रहा। हमारे बुजुर्गों के लोक ज्ञान में यह बात मौजूद थी कि पहाड़ों में कैसे रहना चाहिये। आज भी वयोवृद्ध लोग यह बता सकते हैं कि कैसी जगहों पर मकान बनाने चाहिये और कैसे स्थानों पर नहीं। तेज वर्षा में किस तरह घर के आसपास बह रहे पानी पर नजर रखनी चाहिये और किस तरह उस पानी को एक दिशा देनी चाहिये। फिर आधुनिक विकास की अवधारणा आयी और लोक ज्ञान और लोक विश्वास तहस-नहस हो गये। इसी के साथ प्राकृतिक दुर्घटनाओं और आपदाओं में तीव्रता आने लगी। अक्टूबर की 17, 18, 19 तारीख को उत्तराखण्ड, विशेषकर कुमाऊँ के कुछ क्षेत्रों में जो भीषण आपदा आई उसे इसी आलोक में देखना चाहिये। सबसे पहले तो यह बेमौसम वर्षा थी और मुक्तेश्वर के मौसम केन्द्र पर विश्वास करें तो इधर के सवा सौ साल के इतिहास में सबसे ज्यादा थी। नैनीताल में 24 घण्टों में लगभग 400 मिमी यानी 16 इंच वर्षा पड़ी। पहले ही लबालब भरी हुई नैनीझील में इतना पानी आ जाने से उसके गेट पूरी क्षमता पर खोल देने के बावजूद पानी आवरफ्लो करता हुआ झील के निचले हिस्सों में तबाही मचा गया। पहाड़ों में अन्यत्र मची तबाही और नैनीताल की तबाही में थोडा फर्क था। तेज बहते हुए पानी ने अपने रास्ते में आये हुए किसी भी अवरोध को तोड़ कर अपने में समेट लिया और खूब तबाही मचाई। ऐसे अवरोध या तो निर्माणाधीन मोटर सड़कों के होते हैं या फिर हाल में बने मकानों के मलबे के, जिनको ठिकाने लगाने की कोई ठोस योजना हमारे पास नहीं है। तो पहला सवाल तो यह है कि बेमौसम इतनी ज्यादा वर्षा हुई क्यों ? इसके बारे में विशेषज्ञ बतला रहे हैं कि यह ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन का प्रभाव था। ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन भी हमारे मौजूदा विकास की देन है। अर्थात् यदि हम सम्हले नहीं तो भविष्य में ऐसी आपदाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी। दूसरा सवाल यह है कि जब ऐसी आपदायें बढ़ रही हैं तो हम विकास को लेकर अपनी सोच बदल क्यों नहीं रहे हैं ? क्यों खतरनाक जल विद्युत परियोजनायें और ऑल वैदर रोड बनाने जैसे अवैज्ञानिक कार्य कर रहे हैं ? जब सरकार के स्तर पर अवैज्ञानिक कार्य होंगे तो देखादेखी सामान्य नागरिक भी वैसा ही करेगा। तब क्यों न अतिवृष्टियाँ भीषण आपदा का रूप लेंगी, जिनमें जान माल का जबर्दस्त नुकसान होगा ?