डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
बटरोही जी की आरंभिक कहानियों में से एक कहानी है “दिवास्वप्न”. उसमें बीमार दादा को देखने गांव लौट रहे उत्प्रवासी युवक का मानना रहा कि दादा कभी बीमार नहीं पड़ सकते. उनका बीमार पड़ जाना उतनी ही अनहोनी घटना थी, जितना कि देवदार के वृक्ष का चीड़ के पेड़ में बदल जाना. रास्ते में उसे लगने लगता है कि वह उनकी बीमारी के दुःख में भागीदार होने नहीं, बल्कि किसी आश्चर्य को देखने आया है.
वह फ्लैशबैक में खो जाता है : दादा मुझे शहर जाने की पूर्व संध्या पर देवदार के जंगल में लाए थे, वृक्षों के बीच उन्होंने कहा — बेटे, इस देवदार को ही अपना आदर्श मान कर चलना. यही तुम्हारा कुल देवता है ……..
इस अकीदे, इस आस्था भर को बटरोही की समूची कथा यात्रा की केंद्रीय चिंता तो नहीं कह सकते पर यह स्वर उनकी बहु आयामी रचना धर्मिता के विस्तृत परास में भी किसी न किसी रूप में मौजूद अवश्य मिलता है. बटरोही ने आंचलिकता और स्थानीयता के ब्यौरे के लिए शिल्प की जो एक खांटी बुनावट अपनाई है, उसके चलते उनके यहां कथा-तत्व अपने स्वाभाविक रंग में मिलते हैं और रियल अंदाज में. इसीलिए बटरोही का हर कथानक पहाड़ की पीड़ा का असल आईना प्रतीत होता है.
“समय साक्ष्य” प्रकाशन से अभी उनका नया उपन्यास “हम तीन थोकदार ” आया है. यूं तो किताबों का लोकार्पण पुस्तक मेले में या पुस्तक प्रेमियों – पाठकों के बीच किसी समारोह नुमा आयोजन में किए जाने की परंपरा रही है पर बटरोही जी ने पिछले दिनों उपन्यास के ही किरदार एक बुजुर्ग महिला के हाथों परिवार के बीच किताब का विमोचन करवाकर एक जोरदार रवायत का बिस्मिल्लाह किया है.
“हम तीन थोकदार” अंतर्वस्तु और कहन या कि कथ्य और शैली की दृष्टि से एकदम भिन्न और अनूठे अंदाज वाली ऐसी कृति है, जो किताब के रूप में आने से पहले ही खूब पढ़ी जा चुकी है और प्रतिक्रियाओं से नवाज़ी भी जा चुकी है. वजह यही कि एक दशक से भी अधिक समय से बहु प्रशंसित और स्थापित अरुण देव की वेब पत्रिका “समालोचन” में यह उपन्यास धारावाहिक रूप से ( मई 2020 से फरवरी 2021 तक ) बारह किस्तों में प्रकाशित होता रहा और अब पुस्तकाकार उपलब्ध है.
खास बात यह कि बटरोही का यह आख्यानक गद्य विधा के रूप में अभी परिभाषित और वर्गीकृत किया जाना है, क्योंकि पाठकों को इसमें डायरी जैसे नितांत निजी विवरण मिलते हैं तो आत्मकथा वाली एक रवानी भी. कहीं यह आख्यान संस्मरण सदृश अतीत को पन्ने-दर-पन्ने सामने रखता सा लगता है तो कहीं यह खालिस एक ऐसी कहानी लगती है, जो अपने खुलासे में वस्तुतः एक समीक्षा है.
बटरोही स्वयं कहते हैं कि मैं आख्यान की किसी गढ़ी हुई धारा को नहीं जानता. “हम तीन थोकदार” से गुजरते हुए पाठकों को चाहे यह आत्मव्यंग्य जैसी कोई चीज़ लगे पर यह है जिंदगी की सच्चाई.
भोगे हुए यथार्थ को रचने की प्रक्रिया के क्रम में उन्होंने जिस तरह से दीगर सामाजिक संदर्भों, फ्रेम और किरदारों की भूमिका को आत्मसात किया है, वह निश्चित ही अद्वितीय विश्लेषण और संश्लेषण का उदाहरण है. कहना समीचीन होगा कि बटरोही “हम तीन थोकदार” से हिंदी साहित्य में एक नई विधा की शुरुआत कर रहे हैं. इसमें वे अग्रज लेखकों का स्मरण करते हुए उनकी रचनाधर्मिता की न सिर्फ़ फिर से गवेषणा करते गए हैं, अपितु उनकी रचना / रचनाओं का उन्होंने विशिष्ट पुनर्पाठ भी किया है. इस तरह से इसमें लेखक के अपने रचनात्मक संघर्षों की झलक भी मिल जाती है और समकालीनों के रचनात्मक संसार की कुछ, कुछ छवियां भी.
“हम तीन थोकदार” में बटरोही ने हिंदी कहानी की फर्स्ट लेडी शिवरानी देवी प्रेमचंद का विरल प्रसंग दिया है और अपने साहित्यिक प्रेरक गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ का अद्भुत संदर्भ भी. हमें यहां शैलेश मटियानी, शिवानी और मनोहर श्याम जोशी के कुछ चरित्रों का ‘कल्ट’ भी मिलता है तो गुसाई दत्त पंत उर्फ़ सुमित्रा नंदन पंत का आविर्भाव भी. साथ ही तलचट्टी नरेश थोकदार कल्याण सिंह बिष्ट के साथ योगी आदित्यनाथ ( अजय सिंह बिष्ट ) का प्रकरण आख्यान को उर्वर तो करता ही है, जीवंत भी बना देता है.
कहानी के क्रम में बटरोही ने जिम कॉर्बेट को पनार घाटी के थोकदार के रूप में बड़े दिलचस्प अंदाज से रुपायित किया है और गरुड़ बैजनाथ के थोकदार गुसाईं सिंह की बेटी भागुली की युति को कहानी में बड़ी मार्मिकता से पिरोया है. पर ये सभी थोकदार अपने रूढ़ और स्थापित सांचे से बाहर निकलकर पहाड़ी इलाके की प्रवृति और विशुद्ध पहचान के तौर पर सामने आए हैं. मिथक और इतिहास किस प्रकार से साहित्य में फलित हो सकते हैं, यह जानने के लिए “हम तीन थोकदार” पढ़ा ही जाना चाहिए.