राजीव लोचन साह
एक महीना हो गया रवि किरण जैन को इस दुनिया से विदा हुए। बीच में ‘नैनीताल समाचार’ के दो अंक भी प्रकाशित हो गये। मैं कुछ लिख ही नहीं पाया उनके बारे में। जो आपके जितना करीब होता है, उसके बारे में लिखना उतना ही कठिन हो जाता है। जैन साहब से मेरा रिश्ता क्या था, मैं ठीक से परिभाषित ही नहीं कर पा रहा हूँ।
यही कुम्भ चल रहा था इलाहाबाद में। 2013 का कुम्भ। जनवरी की एक सर्द शाम पत्नी के साथं ऊँचाहार एक्सप्रेस से मैं प्रयाग स्टेशन पर उतरा तो जैन साहब मुझे लेने मौजूद थे। मेरा रहना हमेशा स्वराज विद्यापीठ में होता था। मगर जैन साहब का आग्रह था कि भाभी जी को वहाँ रहने में बहुत असुविधा होगी। आप मेरे घर आ जायें। मीता को दरअसल कुम्भ के अवसर पर संगम में स्नान करना था। जैन साहब के साथ देर रात हम कुम्भ क्षेत्र में गाड़ी में घूमे। उन्होंने इधर-उधर फोन कर अनेक परिचितों से भी जानकारी जुटाई और अगले दिन हमें नैनी की ओर अरैल घाट पर ऐसी जगह छोड़ा, जहाँ से हम नाव से जाकर आराम से, महज घंटा भर में त्रिवेणी में डुबकी लगा कर लौट आये। बेहिसाब भीड़ के धक्कों से बचते हुए। जैन साहब इस सारे समय अपनी गाड़ी में बैठे हमारी वापसी का इन्तज़ार करते रहे। स्वयं उन्होंने संगम में स्नान नहीं किया।
एक ओर उनका इतना स्नेहिल व्यक्तित्व और दूसरी ओर चेहरा हमेशा इतना तना हुआ, मानो गुस्से में हों और अभी डाँटने लगेंगे। हम सारे लोगों की वे बड़ी इज्ज़त करते……..बिष्ट सा‘ब, पाठक सा‘ब! मगर सब लोग उनसे खुल नहीं पाते। मैं कमला पन्त से, उमा भट्ट से कहता, जैन साहब तुम्हें इतना याद करते हैं। कभी तो उन्हें फोन कर लिया करो। उन्हें भी तसल्ली हो जायेगी। उनका जवाब होता, राजीव दा, हमें उनसे डर लगता है। ये वे महिलायें हैं, जो इतने सालों से जनान्दोलनों की अगली पाँत में खड़ी होकर पुलिस के डण्डों या जेल जाने से कभी भयभीत नहीं हुईं! उनसे सीधे कहने का साहस नहीं हो पाता था, इसलिये मैंने एक बार महात्मा गांधी की तर्ज पर उन्हें एक पत्र लिखा, जैन साहब, आप हम लोगों को इतना प्यार करते हो। उत्तराखंड को लेकर आपको इतनी चिन्ता है। मगर आपसेे हमें इतना डर सा क्यों लगता है ? क्या आप थोड़ा सहज नहीं हो सकते ? वह पत्र मेरे कम्प्यूटर में अब भी शायद कहीं पड़ा हो। उनका जवाब तो क्या आना था, मगर उनके चेहरे की कसावट में अगली बार से हल्का सा बदलाव आया। वह भी कुछ ही समय के लिये। नाराज तो वह बहुत कम होते थे, मगर लोग ही उनसे कतराते। मैं उनकी नाराजी से डरे बगैर उनके करीब जाता, उन्हें बातचीत में उलझाता और वे एक असली गुरु की तरह मेरे सामने खुलते जाते। इसीलिये मैं उनसे काफी कुछ सीख पाया। गांधी की ग्राम गणराज्य की अवधारणा को जिस तरह 73वें-74वें संविधान कानूनों के माध्यम से उन्होंने मुझे समझाया, उसके लिये मैं हमेशा उनका ऋणी रहूँगा। वे मानते थे कि इन कानूनों में देश की सारी समस्याओं का समाधान निहित है। उन्होंने इस बारे में बहुत कुछ लिखा, मगर ज्यादातर अंग्रेजी में। उनसे प्रेरणा लेकर उस दौर में मैंने भी इस विषय पर बहुत लिखा। डाॅ. लाल बहादुर वर्मा, जिन्होंने ‘इतिहासबोध’ में मुझसे इस विषय पर लिखवाया था, ने अपनी अन्तिम मुलाकात में मुझसे कहा था कि आप अब इस बारे में क्यों नहीं लिखते। संविधान के भीतर यही तो क्रांतिकारी बदलाव का रास्ता है।
गांधी से वे जबर्दस्त रूप से प्रभावित थे। रामचन्द्र गुहा की पुस्तक ‘हाउ मच शुड अ पर्सन कनज्यूम’ आयी तो वे इतने आह्लादित हो गये कि कहने लगे कि इस आदमी ने तो गांधी का भी अतिक्रमण कर दिया है। क्या आप मुझे इनसे मिला सकते हैं ? मैं अपनी बेटी के पास बंगालुरु जाऊँगा तो उनसे मिलूँगा। मैंने राम को एक ई मेल भेजा, राम ने मिलने की इच्छा भी जाहिर की, मगर मेरा ख्याल है कि उनकी मुलाकात नहीं हो पायी। उनकी मानवाधिकार की व्याख्या अपने आप बहुत कुछ समेट लेती थी। संविधान का हवाला देकर वे बार-बार समझाते कि प्राकृतिक संसाधनों पर वास्तविक अधिकार उस जगह पर रहने वाले लोगों का है और उन संसाधनों का उपयोग कैसे हो, किसी जगह का विकास कैसे करना है, यह सब तय करने का अधिकार सिर्फ जनता का है। विकास सरकार या प्रशासन द्वारा ऊपर से थोपा नहीं जा सकता। ऐसा नहीं हो पा रहा है, इसके लिये वे गुलाम मानसिकता वाले उन अनेक न्यायाधीशों का जिक्र करते, जिनके निर्णयों ने इस अधिकार पर अड़ंगा लगाया। उन्होंने अनेक जन हित याचिकाओं के द्वारा यह कोशिश की कि ये परिस्थितियाँ बदलें, मगर दुर्भाग्यवश सफल नहीं हो पाये। अपनी एक याचिका, जिसमें उन्होंने कहा था कि 73वें-74वें संविधान संशोधन कानूनों के बाद इलाहाबाद विकास प्राधिकरण का अस्तित्व हो ही नहीं सकता, को लेकर वे विशेष रूप से आशावादी थे। इसमें वे सफल हो जाते तो न सिर्फ देश भर से विकास प्राधिकरणों का सफाया हो जाता, बल्कि विकेन्द्रित शासन का एक नया अध्याय ही शुरू हो जाता। वे बताते कि पूरे मुकदमे में एडवोकेट जनरल टुकुर-टुकुर देखता रहा, उसके पास उनके तर्कों का कोई जवाब ही नहीं था। मगर जज साहब ही एक दिन कह बैठे कि प्राधिकरण कैसे खत्म हो सकता है भला ? वे समझ गये कि अब कुछ नहीं होने वाला। हालाँकि उस मुकदमे का अन्तिम निर्णय अभी भी नहीं आया।
उत्तराखंड राज्य बनने की घोषणा हो गयी थी, जब रविकिरण जैन से मेरा परिचय हुआ। लोक स्वातंत्र्य संगठन (पी.यू.सी.एल.) की ओर से उन्होंने एक छोटी सी पुस्तिका तैयार की थी कि उत्तराखंड राज्य कैसा हो और राजेन्द्र धस्माना, डाॅ. के. एन. भट्ट तथा एक-दो अन्य लोगों के साथ मिल कर कुमाऊँ का दौरा कर रहे थे। गढ़वाल का ऐसा ही एक दौरा वे कुछ वर्ष पहले कर चुके थे। नैनीताल में उनके रहने की व्यवस्था किसी ने पी.डब्ल्यू.डी. के अतिथि गृह में की थी। मगर धस्माना जी को वहाँ क्यों सज आनी थी ? वे सब लोगों को साथ लेकर अशोक होटल में आ गये। यह हमारी पहली मुलाकात थी।
उनका उत्तराखंड आना लगातार बढ़ता गया। जब उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने सारे जन संगठनों को जोड़ कर एक राजनैतिक दल में रूपान्तरित होने की कवायद शुरू की और अन्ततः रामनगर में उत्तराखंड लोक वाहिनी का जन्म हुआ, जैन साहब हर बैठक में मौजूद थे। राज्य बनने के बाद हमने देहरादून में लोक स्वातंत्र्य संगठन (पी.यू.सी.एल.) की उत्तराखंड इकाई का भी गठन किया और राजेन्द्र धस्माना को उसकी बागडोर सौंपी।
नैनीताल में हाईकोर्ट की स्थापना के बाद वे शौक से ऐसे मुकदमे ढूँढते कि उन्हें नैनीताल आने का मौका मिलता रहे। बलरामपुर हाउस में उनका निवास होता, सुधांशु धूलिया, जो तब एडिशनल एडवोकेट जनरल हो गये थे, उनकी अन्य व्यवस्थायें करते और हमें उनसे बातचीत करने का खूब वक्त मिल जाता। हमने पी.यू.सी.एल. की ओर से अनेक जनहित याचिकायें भी दायर कीं, जिनमें गैरसैंण को राजधानी बनाने और नगर निकायों को बर्खास्त कर उनमें प्रशासकों को बैठाने की सरकार की कोशिश के विरोध में याचिकायें प्रमुख थीं।
वर्ष 2003 में पी.सी.वर्मा और मदनमोहन घिल्डियाल की खंडपीठ ने मुजफ्फरनगर कांड के एक आरोपी, राज्य आन्दोलन के दौरान मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी रहे अनन्त कुमार सिंह को दोषमुक्त कर दिया तो पूरे उत्तराखंड में गुस्से की लहर दौड़ गयी। रुद्रपुर की एक बैठक में तमाम जन संगठनों ने तय किया कि खटीमा कांड की बरसी, 1 सितम्बर को हाईकोर्ट के भीतर जाकर इस फैसले की प्रतियाँ जलाई जायेगी, अंजाम चाहे जो भी हो। घबरायी हुई अदालत ने 29 अगस्त को ही अपना निर्णय वापस ले लिया। इसके बावजूद 1 सितम्बर को नैनीताल में ऐतिहासिक प्रदर्शन हुआ, वह एक दूसरा प्रकरण है। यह दुस्साहस इसलिये किया जा सका, क्योंकि रविकिरण जैन चट्टान की मानिन्द हमारे साथ खड़े थे। हमने उक्त न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाही भी शुरू की, मगर वह सिर्फ प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी। उनके उत्तराखंड में इस तरह की सक्रियता से कुछ न्यायाधीश खफा हो गये और उन्हें यहाँ वकालत करने में दिक्कत होने लगी। उनका स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा और उनका नैनीताल आना धीरे-धीरे बन्द हो गया।
मूलतः वे सहारनपुर के निवासी थे। उन्होंने कभी बतलाया था कि उनके घर पर कांग्रेस का माहौल था। उनका सार्वजनिक जीवन वर्ष 1968-69 में बुलन्दशहर के एक कालेज के छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर समाजवादी युवजन सभा के उम्मीदवार के रूप में विजय प्राप्त करने के साथ हुआ। कानून की पढ़ाई पूरी कर सन् 1972-73 में वे हाई कोर्ट में वकालत करने इलाहाबाद चले आये। उनके इलाहाबाद में वकालत करने के दौरान ही इमर्जेंसी लगी, जनता पार्टी की सरकार बनी और इन्दिरा गांधी सत्ता में वापस आ गयीं। आपातकाल में इन्दिरा गांधी की तानाशाही के दौरान जयप्रकाश नारायण ने मानवाधिकारों की रक्षा के लिये जिस पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टीज (लोक स्वातंत्र्य संगठन) की स्थापना की। एक युवा, उत्साही और संवेदनशील कार्यकर्ता के रूप में जैन साहब उससे जुड़ गये और फिर आजीवन इस संगठन में सक्रिय रहे। आखिरी सालों में वे इस संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, मगर लगातार बीमार रहने के कारण उन्होंने इसकी जिम्मेदारी कविता श्रीवास्तव को सौंप दी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उन दिनों डाॅ. बनवारी लाल शर्मा थे ही, जिन्होंने जे.पी. आन्दोलन में भाग लेने के कारण आपात्काल में जेल भी काटी थीं। रवि किरण जैन उनके भी सम्पर्क में आये। नब्बे के दशक में जब आर्थिक उदारीकरण के साथ आये काॅरपोरेट साम्राज्यवाद के खिलाफ बनवारी लाल जी ने ‘आजादी बचाओ आन्दोलन’ का बिगुल फूका तो रवि किरण जैन उसमें भी सक्रिय हुए। एक तरह से न्यायमूर्ति रामभूषण मेहरोत्रा, डाॅ. बनवारी लाल शर्मा और रविकिरण जैन की त्रिमूर्ति ने उस दौर में इलाहाबाद में नागरिक सरोकारों को नेतृत्व प्रदान किया।
एक वकील के रूप में उन्होंने कितने महत्वपूर्ण मुकदमे लड़े, कितने राजनैतिक कार्यकर्ताओं को सरकार-प्रशासन के अत्याचार से बचाया, इस पर तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है। मगर उनके साथ इलाहाबाद में सक्रिय रहे कोई साथी ही इस पर लिखें तो ज्यादा विश्वसनीय और प्रामाणिक होगा। वैसे सीमा आजाद की अवैधानिक गिरफ्तारी का मामला अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। सही बात पर न्यायाधीशों से भिड़ जाने से भी वे नहीं घबराते थे।
कानूनी और नैतिक मदद से इतर भी वे राजनैतिक कार्यकर्ताओं और जन संगठनों की आर्थिक व अन्य प्रकार से ठोस मदद करने में कभी पीछे नहीं रहते थे। जयपुर में लोक राजनीति मंच का सम्मेलन हुआ। कुछ वर्षों बाद इसी से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था। जयपुर से लौटते हुए हम दिल्ली जमुनापार गोपाल राय (अब दिल्ली सरकार में वरिष्ठ मंत्री) के छोटे से कमरे में भोजन कर रहे थे कि राकेश रफीक ने कहा कि शुरूआत तो अच्छी हो गयी। मगर दफ्तर का क्या होगा ? अगर जैन साहब अपना दिल्ली वाला फ्लैट कुछ समय के लिये दे देते तो कितना अच्छा होता। मैंने जैन साहब को फोन किया। वे तत्काल मान गये। बताते हैं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनने की कहानी का पहला अध्याय भी इलाहाबाद में उनके घर को चुनाव कार्यालय बनाने से हुआ था। मगर उन्होंने न सिर्फ सत्ता की राह नहीं पकड़ी, बल्कि आत्मप्रचार से भी दूर रहे। हाईकोर्ट में जज बनने के मौके तो वह जानबूझकर छोड़ते रहे। उससे तो उनका रास्ता ही बदल जाता।
30 दिसम्बर की सुबह व्हाट्सअप पर अंशु मालवीय का संदेश मिला, ‘‘हम सबके रहनुमा रविकिरण जैन नहीं रहे। अभी कुछ देर पहले उन्होंने नाज़रेथ अस्पताल में अन्तिम साँस ली।’’
मुझे लगा कि मेरा बहुत कुछ खत्म हो गया है।
भारत में मानवाधिकार आन्दोलन का सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ ढह गया था। मगर मेरा तो मित्र और मार्गदर्शक ही चला गया था।
उनकी मृत्यु अनपेक्षित नहीं थी। इस खबर का तो हम इन्तज़ार कर ही रहे थे। कई सालों से वे बिस्तर पर थे। कचहरी जाना छूट ही गया था। वे न्यूरो सम्बन्धी बीमारी से ग्रसित हो गये थे और ओंठ के नीचे भी समस्या थी, जिससे उनका खाना-पीना मुश्किल हो गया था। हाल के महीनों में उनका बिस्तर से उठना भी मुश्किल हो गया। मैं बीच-बीच में उन्हें फोन करता और उनके हाल जान कर दुःखी होता था। आखिरी फोन 26 नवम्बर की शाम किया था। उन्होंने बतलाया कि पढ़ना-लिखना तो पूरी तरह छूट ही गया है। खाने का भी मन नहीं करता। अपनी लाइब्रेरी की सारी किताबें बाँट दी हैं। लग गया था कि अब दिया बुझने वाला है। फिर भी मैंने उन्हें उत्साहित करते हुए कहा कि उनके संस्मरण हमारे लिये बेशकीमती होंगे। तो अगर लिख न भी सकें तो फोन पर एक एप्प डलवा लें और उस पर बोलते रहें। उनका बोला हुआ खुद ब खुद शब्दों में तब्दील हो जायेगा। एक बार वह संकलित हो जाये तो फिर कभी भी उसे सम्पादित किया जा सकता है। उन्होंने पूछा कि ऐसा एप्प कहाँ मिलेगा ? मैंने बताया कि अंशु या स्वप्निल आपकी मदद कर देंगे। उन्होंने गौर से सुना, हामी भी भरी, मगर कोई उत्साह जैसा उनकी प्रतिक्रिया में नहीं था। महसूस हुआ कि अब उनमें जिजीविषा भी नहीं बची।
मगर कुछ महीने पहले तक वे पूरी तरह चैतन्य और चैकन्ने थे। यू ट्यूब पर कोई महत्वपूर्ण वीडियो दिखता या किसी पत्रिका में कोई लेख, तो उसे नियमपूर्वक हर व्हाट्सएप ग्रुप में साझा कर परिचितों की जानकारी बढ़ाने का प्रयत्न करते। फरवरी 2023 में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद जब दिल्ली में स्वराज अभियान का एक महत्वपूर्ण सम्मेलन हुआ था, उस मौके पर उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण पर्चा लिखा था, जिसमे पिछले पचास-साठ सालों में भारत में लोकतंत्र के क्रमिक ह्रास और बढ़ती तानाशाही को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त तार्किक ढंग से समझाया गया था। उस वक्त भी वे बिस्तर तक सीमित हो गये थे, मगर एक महत्वपूर्ण मौके पर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने से नहीं चूके। क्योंकि वैसा दस्तावेज रवि किरण जैन के दिमाग से ही निकल सकता था।
हम आपको भूल नहीं सकते जैन साहब!