देवेश जोशी
हेमवती नंदन बहुगुणा जी से बहुत सी यादें जुड़ी हैं। हालांकि राजनीति में सक्रिय हस्तियों का नम्बर बच्चों को बोर करने वालों की लिस्ट में सबसे ऊपर होता है पर हेमवती नंदन जी में कुछ विशेष जरूर था जो बचपन में भी उनकी सभा को कभी मिस नहीं किया। उनका पहनावा, हावभाव और भाषण के अंश भी अभी तक याद हैं। गले में पहनायी गयी फूल मालाओं को श्रोताओं की ओर उछालना और फिर हमारा पहले से ही उन्हें लपकने के लिए तैयार बैठे रहने की दीवानगी भी याद है। सन 1981 के ऐतिहासिक चुनाव की गहमागहमी भी याद है। राजनीति तब ज्यादा समझ नहीं आती थी पर ये जरूर पता था कि एक अकेले बहुगुणा को बहुत सारे लोग घेर रहे हैं। उनका कुर्ते का पल्ला फैला कर चंदा मांगने की अदा भी खूब याद है। कभी लगता था कि इतना बड़ा आदमी होते हुए इन्हें मांगने में शर्म नहीं आती। बाद में समझ आया कि चोरी-छिपे मांगने या हड़पने में शर्म होती है, गुप्तदान लेना शर्म का विषय है या किसी फंड के नाम से लेना भी अनैतिक ही है पर कुर्ते का पल्ला फैलाकर या तो कोई मस्त फकीर मांग सकता है या बहुगुणा जैसा कद्दावर नेता। उनकी मांगने की अदा ने दाता बनने का सुख भी प्रदान किया। एक बार मैंने भी पाँच रूपए का नोट उनको तब दिया जब वो कार में बैठ गए थे। नोट उन्होंने कुर्ते के पल्ले में ही लिया पर अप्रत्याशित रूप से हाथ भी मिलाया। मुझे लगा कि लो ये तो सूद सहित वापस मिल गया। जिस शख्स़ की पहनी हुई माला को लपकने के लिए लोग छीनाझपटी करते हों वही मेरा एक हाथ अपने दोनों हाथों के बीच दबाकर कृतज्ञता प्रकट कर रहा था। मताधिकार का प्रयोग करने से पहले ये मेरा लोकतंत्र में पहला प्रत्यक्ष योगदान था। बाकी तो हम भी वही करते रहे जो सारे बच्चे करते हैं – बिल्ले जमा करना, रंगीन पोस्टरों को जिल्द के लिए प्रयोग करना और जीतेगा भाई जीतेगा वाले हर जुलूस में बिना किसी जानकारी और राग-द्वैष के शामिल होना।
आगे चलकर पिताजी से सुना और उनसे जुड़ा एक और प्रसंग अविस्मरणीय है। व्यक्तिगत विभागीय कार्य के लिए पिताजी लखनऊ/इलाहाबाद गए थे और किसी शुभचिंतक की सलाह पर वहाँ बहुगुणा के आवास पर उनसे मिलने भी गए। उन्होंने पिताजी का पत्र पढ़ा और जो कहा वो आज के दौर के राजनेता कहने की सोच भी नहीं सकते। मुझे पिताजी का सुनाया हुआ वो वाक्य शब्दशः याद है – देखिए, पहले तो हम सत्ता में नहीं हैं और होते भी तो सिफारिश करना हमारी फितरत में नहीं है। पिताजी बताते थे कि उसके बाद मैंने भी आगे कुछ नहीं कहा और वापस लौट कर सबसे यही कहता रहा कि वो काम भले ही ना करते लेकिन मीठा आश्वासन तो दे ही सकते थे। ये कोई तरीका है अपने इलाके के आदमी से बात करने का। हेमवती नंदन बहुगुणा अपने शब्दों के पक्के थे। उन्होंने सिफारिश निश्चित रूप से नहीं की होगी पर जिस आदमी को कागज पकड़ा कर देख लेना कहा होगा उसने इसे काम कर देना की आज्ञा के रूप में ही लिया होगा और आश्चर्यजनक रूप से काम हो भी गया था। सत्ता में होना न होना बहुगुणा जैसे व्यक्तित्व के आभामण्डल और प्रभाव को प्रभावित नहीं करता था। वास्तव में सत्ता की शोभा और शक्ति उनके साथ होने से बढ़ जाती थी। और जब वो सत्ता में नहीं होते थे तो भी उनकी प्रतिक्रिया का डर और उनके अगले कदम की दहशत हमेशा सत्ता के साथ होती थी। हेमवती नंदन वास्तव में हिमालय का चंदन थे। कांग्रेस के महासचिव पद से इस्तीफा देने के बाद इलस्ट्रेट्ड वीकली के सम्पादक प्रीतिश नंदी को दिए गए साक्षात्कार का एक वाक्य भी किसी प्रसिद्ध कोट की तरह याद है – I can’t tolerate anybody’s head upon my shoulders. If shoulders are mine head will be mine.
प्रख्यात पत्रकार खुशवंत सिंह ने हेमवती नंदन बहुगुणा का आकलन करते हुए में हिंदुस्तान अखबार में लिखा था कि – मैंने सोचा था बहुगुणा एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। वे साम्प्रदायिक आग्र्रह से मुक्त, विचारों में कुछ-कुछ केन्द्र से वाम की ओर झुके हुए, कुशल वक्ता, ज्ञानी, अपने विचारों को स्पष्टता से व्यक्त करने में सक्षम और कर्मठ, अमेरिकन अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में धाराप्रवाह बोलने में सक्षम थे। उनका नाम भी कर्णप्रिय था -हेमवतीनंदन। किसी उस भारतीय को जो न नेहरू है न गाँधी, भारतवर्ष का प्रधानमंत्री बनने के लिए और क्या चाहिए? दुःख की बात बहुगुणा वह लक्ष्य न पा सके जिसके बारे में वह सोचते थे कि वह उनके मुकद्दर में बदा है। अफसोस! देवताओं ने उनका साथ नहीं दिया।
25 अप्रैल 1919 को बुघाणी, पौड़ी में जन्मे बहुगुणा का ये शताब्दी वर्ष है। आज 17 मार्च को उनकी 30वीं पुण्यतिथि है। इस अवसर पर हिमालय के चंदन, हेमवती नंदन को विनम्र श्रद्धांजलि।
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