स्वस्ती श्री नैनीताल समाचार का सम्पादकज्यू उनरा टीम का सहयोगी, सबै भाई-बन्धु, दीदी-भुली, साथी-दगड़ी और सम्मानित प्रवर पाठकों को यथायोग्य हाथ जोड़ी नमस्कार और आशीष। अत्र कुशलं च तत्रास्तु। मुख्य में अपुण शरीर को जतन करला तब जबेर हमारी पालना होली। आघिन ईष्ट देव की कृपा से आशा करते हैं कि नैनीताल समाचार की ओर से भेजा गया हर्याव का तिनड़ा आप लोगों तक पहुंच गया होगा। पिछले चार दशकों से छोटी-बड़ी चुनौतियों का सामना करने के बाद भी हर्याव पैराने की इस परम्परा को नै. स. ने जिस तरह ज्यून रखा हुआ है वह निश्चित ही काबिले तारीफ है। इंटरनेट, मोबाइल व कम्प्यूटर के दौर में यह परम्परा आगे भी निर्बाध कायम रहे ऐसी हमारी मनोकामना हैं।
दाज्यू ! हो सके तो इस बार हर्याव के कुछ तिनड़े दिल्ली व देहरादून की सरकार को भी भेज देना क्या पता उनको राज्य की जनता के दुःख-पीड़ को समझने की कुछ सद्बुद्धि मिल जाय। सही मायनों में राज्य बनने के बाद हम लोग भलिकै ठगी गये हैं। दाज्यू कहां है वह विकास जिसका आपने और हम सबने सपना पाला था ऐसा समृद्ध राज्य जहां पहाड़ पर आधारित इकानामी (आज की इगानामी नहीं) के साथ स्थानीय जल-जंगल-जमीन पर अपना हक होना था और समाज में अपनी भाषा व संस्कृति को विकसित होते देखना था। अब आप ही बताओ लोगों के निरन्तर संघर्ष, आंदोलन और उनकी शहादत से जन्मा यह राज्य क्या भ्रष्ट राजनीतिकारों, मिलावट खोर ठेकेदारों,मलाई खाने वाले अफसरों तथा माफियाओं के मौज के लिए ही बना घ् राज्य बने इन इक्कीस सालों में हमें सत्तर विधायक ,पांच सांसद, तीन राज्यसभा सासंद व ग्यारह मुख्यमंत्रियों व शासन के भारी भरकम अफसरों की फौज के सिवाय और हासिल ही क्या हुआ है। जिस राज्य के मुखिया की कुर्सी ही अस्थिर रहती हो आखिर वहां का विकास कैसे स्थिर रह पायेगा यह विचारणीय तथ्य है। मुखिया की अदला-बदली की बात ऐसी हो गई है मानो उनकी नियुक्ति किसी ठेके वाली एजेन्सी के माध्यम से संविदा के तहत हो रही हो। दाज्यू सोशल मीडिया पर तो आजकल यह चुटकुला खूब वायरल हो रहा है जिसमें सामान्य ज्ञान की किसी परीक्षा में यह पूछा गया है कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री का नाम बतायें -उत्तर देने वाला छात्र लिखता है कि जब मासाब ने पेपर बनाया होगा तब त्रिवेन्द्र सिंह रावत थे, जब मैं जबाब लिख रहा हूँ तब इस समय तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री हैं और जिस दिन आप कॉपी चौक करेंगे उस दिन कौन मुख्यमंत्री होगा यह भगवान ही जानता है। सच में दाज्यू पिछले इक्कीस सालों के दौरान इस राज्य ने ग्यारह मुख्यमंत्री देख लिए अब इससे बड़ी मजाक की बात और क्या हो सकती है।
खैर दाज्यू छोड़ो इस राजनीति के फेर में पड़कर कहीं आपको हर्याव की आशल-कुशल देना भूल न जाऊं। दाज्यू पहाड़ के हर्याव का जिगर आते ही मेरा डोवा मन पुराने बखत में फटक मारने लग गया है। हरयाली के निमत्त टुपरों में बोये सतनाजों से धीरे-धीरे अंकुरित होते तृणों की बढ़त को हर दिन निहारने की वह बाल सुलभ उत्कंठा, अनगढ़ हाथों और चिकनी मिट्टी से बने शिव-पारवती के डिकारों की वह मनमोहक छवियां आज भी दिल-दिमाग में कुतकुताली लगाने को आतुर हो रही हैं। हर्याव के तिनडेघ् पैराते समय आशीष की फुहारों से भिगो देने वाली गांव की साबुलि व जिबुलि सरीखी आमाओं के आंखर कानों में गूंजने लग गये हैं लग रहा है कुछ ही देर में पांव छूते ही आमा बोल उठेगी कि ‘जी रया म्यर पोथिलो‘। हर्याव के इस जिगर में जयदत्त पंडितज्यू भी खूब याद आ रहे हैं।यजमान को फटाफट निबटा देने की गजब की फुर्ती थी उनमें। गौर वर्ण, लम्बा चौड़ा शरीर, घुटनों तक सफेद धोती, माथे पर चमकता चन्दन-पिठ्यां, कन्धें में लटका बादामी रंग का झोला उनकी खास पहचान थी। हर्याव के दिन जब जयदत्त जी अपने कान व टोपी में हर्याव के गुच्छे अटका कर आते तो सबके आर्कषण का केन्द्र होते। हर मवासे तक हर्याव पैराने व दक्षिणा पाने की आतुरता जयदत्त जी के कदमों को लमालम आगे बढ़ा देती थी।
हर्याव के दिन रस्या में बनाई जाने वाली पूड़ियों, बड़, हलुवा व खीर जैसे पकवानों का नाम आते ही मुंह में पानी आने लगा है। अहा! क्या लसपसी खीर बनती थी सिलबट्टे में पिसे काले मास से बने बड़े क्या सुवाद होते थे। बच्चों का पूरा ही दिन पकवान छकने और बाखली में एक दूसरे घर त्यार बांटने की गहमागहमी में ही बीत जाता था। काम-धाम निबटाने के बाद घर के बड़े सयाने बड़े ही उत्साह के साथ बाड़-ख्वाड़ों के किनारे दाड़िम, अनार, निम्बू, आड़ू, खुबानी व अन्य प्रजाति के पौंधो का रोपण किया करते थे। बुर्जुगों के लगाये फलों के ये पेड़ आज तक फल-फूल रहे हैं।
अहा ! तब सामूहिक भागीदारी के साथ मनाये जाने वाले इस त्यार में खेती-बाड़ी, धौ-धिनाली, जल-जंगल-जमीन की हिफाजत के साथ-साथ गांव की खुसहाली, सामाजिक समरसता और एकजुटता का भाव समाया हुआ रहता था। उस बखत तो संजायत परिवार चाहे कितना भी बड़ा हो पर हर्याव एक ही ठौर पर बोया जाता था। और तो और कुछ इलाकों में तो पूरे गांव का सामूहिक हर्याव एक ही जगह खासकर मंदिर में बोये जाने का रिवाज रहता था। दाज्यू आप भी कहोगे कि बे मतलब ही इन गयी-बीती पुरानी बातों का जिगर कर दिया। लेकिन गहराई में जायें तो हर्याव का यह त्यार एक तरह से हमारी खेती-बाड़ी,नौल-धार, धुर-जंगल व भ्योव-पखानों को संवारने और उन्हें बचाने को ही प्रेरित करता हुआ दिखाई देता है। दाज्यू आज जिस तरह अपनी प्रकृति व समाज से हम पल्ल झाड़ रहे हैं उस स्थिति में इस त्यार की प्रासंगिता और ज्यादा बढ़ जाती है। दाज्यू हमारे बुजुर्गों ने प्रकृति के महत्व को पहले ही परख लिया था इसीलिए वे पग-पग पर उससे समन्वय बनाकर चलते थे। हमारे आमा-बड़बाज्यू आज की तरह लिखे-पढ़े तो थे नहीं लेकिन उनके पास लोक से उपजे एक से बढ़कर एक अनुभव थे। वर्तमान किताबी ज्ञान के सापेक्ष इन बुजुर्गों का वह लोक ज्ञान भी किसी न किसी रुप में टिकाऊ, व्यावहारिक, समृद्ध और प्रभावशाली माना जाता था।
दाज्यू ’लाग सातूं लाग आठूं ध्लाग हर्याव लाग बग्वावध्जी रयै जागि रयैध्दुबाक जाड़ छन जाणैध्पातिक पौ छन जाणैध्हिमाल ह्युं छन जाणैध्गंग में पाणि छन जाणैध्जी रयै जागि रयै’ जैसे आंखरों के साथ पहाड़ की हरियाली व वैभवता की बात करने पर अब मन उदेखी जाता है। क्या कहें यहां के गौं-बाखलियों की रंगत-रौनक अब फीकी पड़ने लगी है। गांव के दस परिवारों में तकरीबन छःह परिवारों के दरवाजों के सांकल पर ताले लटके दिखते हैं। लोग-बागों में अब यह मंशा प्रबल रूप से धर कर गई है कि इस पहाड़घ् में अब धरा ही क्या है। रोजगार, पानी, इस्कूल-कालेज, अस्पताल, दवा-डाक्टर जैसी तमाम अन्य सुविधाओं की बदहाल स्थिति से निजात पाने की मानसिकता और आधुनिक सुख-सुविधाओं की बढ़ती चाहत उन्हें दिन ब दिन मैदानी शहरों की तरफ धकिया रही है। गांव अब बूढ़े-सयाने अथवा कुछ अन्य लोगों का ही बसेरा बन गया है। बच्चों की अच्छी पढ़ाई हो सके इस खातिर महिलाएं घर-बार छोड़कर आसपास के कस्बों व शहरों के किराये के मकानों में रह रही हैं। पलायन की यह नई अस्थाई प्रवृति पहाड़ के लिए चुनौती बन रही है। प्रवासी लोगों का अब अपने गांव के प्रति लगाव पहले जैसा नहीं रह गया ठहरा।इतना जरुर है बस साल दो साल में संजायती कामों, ब्या-बरात व पूजा-पाठ में एक-दो दिन के लिए टैक्सी में बैठकर सुट्ट गांव आ जा रहे हैं।
उपरांऊ वाले खेत अब बांजि पड़ गये हैं और उपजाऊ सेरों पर लोगों ने लैण्टर वाले मकान बनाना शुरु कर दिया है। दाज्यू पहाड़ के डान-कानों में अब बुंरांश नहीं फूलता। झुमराली बांज भी अपनी बेबसी पर डाड़ मारने को आतुर है। बसंत के मौल्यार की पहले जैसी रंगत अब कहां। धुर-जंगलों में कफ्फू, हिलांस, न्योली की कुहुक भी मुश्किल से सुनाई देती है। बस कभी-कभार घुघुती की घुराण से सुकून मिल जाता है। पहाड़ के रूपहले शिखरों को अब बरसाती च्यूं की तरह उग आये कंकरीट के जंगलों ने बदरंग कर दिया हैं। जहां कभी सेब के बाग-बगीचे हुआ करते थे उनकी जगह अब रिर्जाट व अलीशान कोठियों के ने ले ली है। कुछ काश्तकार जो किसी समय उस जमीन के मालिक हुआ करते थे वे आज उन कोठियों में नौकर बन उसकी देखरेख व चौकीदारी का काम कर रहे हैं बल।
आप तो जानते ही दाज्यू कि पहाड़ की अर्थव्यवस्था का मूल आधार खेती, धिनाली-पानी व बागवानी को माना जाता है। ऐसे में जब मूल आधार ही डगमगाने लगे तो फिर आखिर वहां वीरानी तो पसरनी ही है। दाज्यू आज से तीन एक साल पहले प्रो. बी के जोशी जी के मार्गदर्शन में हमारा (डा.अरुण कुकसाल व मैं) पहाड़ के कुछ गांवो मे एक अध्ययन के सिलसिले में जाना हुआ। अध्ययन के बखत लोगों से जो बात हुई उसका कुल निष्कर्ष आया कि पिछले तीन दशकों में पहाड़ ने अपनी परम्परागत खेती व पषुपालन को लगभग बिसरा दिया है। इसमें अन्दाजन साठ से सत्तर प्रतिषत की कमी आई है। मजे की बात यह है कि गांव के लोग अब खेती के बजाय प्रवासी लोगो द्वारा भेजे पैसों, पेंषन आधारित जीविका के साथ ही मुफ्त आनाज, सस्ते दर पर राशन की प्राप्ति, तथा मनरेगा व दूसरे कामों में मजदूरी से प्राप्त आय से अपनी गुजर-बसर चलाने को प्राथमिकता देने लगे हैं।
आज हालात यह हैं कि पहले हमारे गांवों में जहां साल में 6 से 8 माह के लिए आनाज हो जाता था वहीं अब 3 से 4 महीने के लिए भी नहीं हो पा रहा है। एकल परिवार होने की वजह से खेती अब घरों के आस-पास ही सिमट कर रह गई है। वहीं गुणी-बानर ,सौल व जंगली सूंअर भी खेती को चौपट करने में लगे हैं। इस कारण तमाम लोग खेती-किसानी से मुंह मोड़ने लगे हैं। दाज्यू ग्रामीण आर्थिकी के इन कार्यकलापों के शिथिल पड़ जाने से यहां के षिल्पकारों के लिए जीवकोपार्जन की समस्या पैदा हो रही है और काम न मिलने से पहाड़ का षिल्प भी अब कथप चला गया है। मन में दुःख जैसा लगता है कि पर्वतीय कला-संस्कृति और शिल्प के संवाहक इन शिल्पियों की फाम लेने वाला कोई नहीं है।
कई जगहों पर प्रगतिशील काश्तकारों ने अपनी मेहनत व लगन के दम पर ने बंजर जमीन को आबाद कर खेती व बागवानी की दिशा ही बदल दी है। इन काश्तकारों ने शाक-सब्जी, फल-फूल, मसालों व जड़ी-बूटी उत्पादन को जिस तरह व्यवसाय से जोड़ा है वह यहां की आर्थिकी की काया पलट कर सकता है। यहां कई उद्यमियों ने मछली पालन, पशुपालन, मौनपालन और फल व खाद्य प्रसंस्करण के जरिये भी आय सृजन के नये द्वार खोले हैं। जैविक खाद्य उत्पादों व बारहनाजा फसलों की खेती,चकबन्दी जैसे अभिनव प्रयोगों के काम में भी लोगों ने सफलता पायी है। दाज्यू राज्य बने इन बीस से ज्यादा सालों में कहीं न कहीं उत्पादकता व जीविका से सीधे जुड़े इन माडलों से पहाड़ में सुदृढ़ अर्थव्यवस्था की सम्भावनाओं को बेशक साकार ही किया जा सकता था। लेकिन विडम्बना यह रही कि इस दिशा में कोई ठोस पहल हुई ही नहीं। दाज्यू अगर सरकारध्शासन के लोग पहाड़ की भौगोलिक विषमताओं, संवेदनशील पर्यावरण, साजिक अवस्थापना सम्बन्धी सहूलियतों की कमी और पलायन जैसे मुद्दों पर घ्यान देकर धरातल पर इस काम को साकार करने की पहल करते तो कितना अच्छा होता। हमारी सरकारे कम से कम जौनसार के अटाल गांव के अनार उत्पादक प्रेमचंद शर्मा, हार्क संस्था से जुड़े महेन्द्र कुंवर, उत्तरकाशी बार्सू के प्रगतिशील किसान जगमोहन रावत, चम्पावत पाटी के मत्स्य उत्पादक बन्धु कृष्णानंद व पीताम्बर गहतोड़ी व नैनीताल फरसौली के युवा उद्यमी संजीव भगत जैसे कई जुनूनी काश्तकारों के शानदार प्रयासों से सीख लेकर पहाड़ में कृषि आर्थिकी के विकास का व्यावहारिक माडल तो खड़ा कर ही सकती थीं ना!
दाज्यू सात-आठ साल पहले केदारनाथ आपदा की भयावहता से लोग ठीक से उबर भी नहीं पाये कि दुबारा इस साल 6 फरवरी की गौरा देवी के मुलुक में रैणी-तपोवन आपदा ने हमको चेता दिया है। आपको तो याद होगी ही कि इस आपदा में जलविद्युत परियोजनाओं सहित रास्ते, पुल व मकानों के बहने की घटना हुई व ढाई सौ से ज्यादा लोग काल के गाल में समा गये। इस तरह की आपदाएं हिमालय के अति संवेदनशील मिजाज के प्रति हमें चेतावनी देती रहती हैंक। यहां के नाजुक पारिस्थितिकीय क्षेत्र में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं व अन्य परियोजनाओं के अस्तित्व पर भी सवाल उठना लाजमी है। विडम्बना है कि प्रकृति संरक्षण से जुड़े सवालों की बात करने वालों को हमारे देश-समाज के कुछ लोग समझे-बूझे बगैर विकास विरोधी मान बैठते हैं।
दाज्यू हमारे पहाड़ में भारी-भरकम जलविद्युत परियोजनाएं व गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ व बदरीनाथ और लिपुलेख को जोड़ने वाली चौड़ी आलवेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन जैसी परियोजनाओं के निर्माण में यहां की भौगोलिक संरचना और पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं की पूरी तरह अनदेखी हो रही है। देखा जाय तो इस तरह का विकास हमें त्वरित लाभ तो दे देगा पर दीर्घकाल तक नहीं। विशुद्ध लाभ की आकांक्षा वाली यह परियोजना पूरी तरह पर्यावरण के खिलाफ जाकर देर-सबेर आपदाओं को न्यौता देने का काम करती हैं। दरअसल दाज्यू पहाड की यह आल वैदर रोड जिसे हमारी सरकार ’आल बैटर रोड’ या ’आल बेहतर रोड’ कहकर प्रचारित करती है वह हमारे पहाड़ वालों के लिए ’आल बदतर रोड’ साबित हो रही है। डायनामाइट के विस्फोटों से चट्टानों की छलनी कर चौड़ी की गयी यह सड़कें हमारे लिए नासूर बन गई हैं। अभी चौमास पूरी तरह से आया भी नहीं कि जगह-जगह पर पहाड़ों के रड़ने-बगने की खबरें सुनाई देने लगी हैं।
इधर अब ऋषिकेश से व्यासी, देवप्रयाग, श्रीनगर,गौचर होते हुए कर्णप्रयाग तक जाने वाली रेल लाइन का काम भी जोर-शोर से चलने लगा है बल। रेलवे विभाग स्थानीय लोगों की जमीनों को अधिग्रहण करने में जुटा हुआ है। कुछ सालों बाद जब पहाड़ो के अन्दर लम्बी-चौड़ी सुरंगो, पुलों, छोटे स्टेशनों से सीटी बजाते हुए रेलगाड़ी गुजरेगी तो यहां का भूगोल का नजारा ही बदल जायेगा। श्रीनगर से पहले मलेथा जो वीर सेनापति माधो सिंह भण्डारी का ऐतिहासिक गांव है उसके उपजाऊ सेरे में रेलवे का स्टेशन बन जाने के बाद रोपणी के गीतों की जगह रेलगाड़ी की सीटी सुनाई देगी। धान की फसल की जगह कंकरीट के जंगल उगंगे। खेतों में हल जोतने वाले काश्तकार तब उस स्टेशन पर चाय-पकौड़ी बेचते नजर आयंगे। स्थानीय लोगों के लिए तब इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी। कहते हैं कि चार सौ साल पहले इस सेरे में सिंचाई नहीं होती थी केवल मोटे अनाज पैदा होते थे। माधो सिंह की प्रेयसी उससे अक्सर कहती ’क्या च भंडारी तेरी मलेथा कण्डाली को खानू तेरा मलेथाध्झंगुरौ को खाणू तेरा मलेथा’ सेपापति माधोसिंह को यह बात अन्दर तक चुभ गई। वह हर हाल में किसी तरह तीन कि.मी. दूर डागर गाड़ का पानीघ्े इस सेरे तक लाना चाहता था ताकि मलेथा का सेरा जीरी (पहाड़ी बासमती धान की एक किस्म) धान की खुसबू से महक उठे। मुश्किल यह रही कि छेणाधार का पहाड़ बीच में आ जाने से कूल का पानी दूसरी तरफ नहीं जा सका। आखिरकार वह गांव वालों की मदद से सुरंग खोदकर पानी ले आया और इस पानी से सेरे में धान की फसल लहलहाने लगी।
दाज्यू विकास की बात करें तो पहाड़ के गांव स्तर तक स्कूल, स्वास्थ्य, बिजली, पानी,सड़क, और संचार जैसी जन सुविधाओं को उपलब्ध कराने के प्रयास किये तो गये हैं और पहले की तुलना में इनके आंकड़े बढ़े भी हैं परन्तु समुचित गुणवत्ता के अभाव और सरकारी अफसरों व कर्मचारियों की पर्याप्त उपलब्धता न होने से मौजूद सुविधाओं का समुचित लाभ लोगों को नहीं मिल रहा है। फिलहाल जिन आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ इस राज्य की परिकल्पना की गई थी उन पर खरा उतरने के लिये जनता और सरकार दोनों को अभी ईमानदारी से बहुत कुछ करना होगा।
दाज्यू शेष समाचार सब सामान्य ही हैं। इस बार दो-तीन महीने तक पहाड़ कोरोना की जबरदस्त पकड़ में रहा। कोरोना की जांच की सुविधा के अभाव दवा-डाक्टरों की कमी और आक्सीजन की अनुपलब्धता के कारण लोगों को बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इस निरभागी पहाड़ में स्वास्थ्य सेवाओं के पहले से ही चौपट रहने के कारण कई कोरोना पीड़ितों को मजबूरन हल्द्वानी, बरेली, देहरादून, ऋषिकेश व दिल्ली के बड़े व प्राईवेट अस्पतालों की शरण में जाना पड़ा। इनमें से जहां कुछ मशक्कत के बाद अपनी जान बचाने में सफल हुए तो कुछ को अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ा। हमारे कई अभागे चिरपरिचित, मित्र व निकट के लोग भी इस कोरोना के शिकार हुए जिनके असमय चले जाने का हमको भौत दुःख है। परम पिता से प्रार्थना है कि वह उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे। खैर जीवन में इस तरह के कष्ट आते-जाते ही रहते हैं इनसे संघर्ष करते हुए आगे को बढ़ते रहना ही जीवन की परिभाषा है।
दाज्यू! प्रवास में बस गये लोग अगर पहाड़ से जुड़ाव बनाये रखें और उसकी बखत-बखत पर नराई फेरते रहें तो यह पहाड़ ज्यून बना रहेगा। गांव की सूनी बाखलियां आज भी परदेश गये लोगों की राह ताक रही हैं कि कोई तो आयेगा उसकी फाम लेने। ऐसे में लखनऊ के ज्ञान पंत जी की कुमाउनी कविता याद आ रही है- ’पोथी ! ऐ जाने त कस हुनध् बोट फयि रौ,माल्टा झुकि पड़ि रैध्……..दिगौ! तू ऐ जानै त रौन छैं आ्ग है जानध् छिलुक ल्ही बेर तकैं देखन्यूं इजूध् मैं बाखयि छूँ कैकी इंतजारी में आजि लै ज्यून छूँ।’
बाकी क्या लिखूं थोड़े लिखे को भौत समझना। चिट्ठी में कोई भूल-चूक रह गई हो तो माफ कर देना। लौटती डाक से परिवार और अड़ोस-पड़ोस की खबर-पात जरूर देना। अन्त में हर्याव के इन तिनड़ों को जरुर से शिरोधार्य कर लेना। आप सभी लोग जी रया…..जागि रया…… !!!
तुम्हारा
चन्द्रशेखर तिवारी,
मार्फत नैनीताल समाचार।