बी.आर.पन्त
किसी भी क्षेत्र में कितनी आबादी निवास करती है, इसकी गणना पूर्व में भू अभिलेखों या किसी क्षेत्र विशेष के बारे में लिखे यात्रा वृतान्त के अध्ययन से प्राप्त होती थी। आबादी के अनुसार ही अनुमान लगाया जाता था कि उस क्षेत्र विशेष के संसाधनों में कितना दबाव है और उसका उपयोग किस प्रकार से किया जा रहा है या किया जा सकता है। भारत में सबसे पहले वर्ष 1872 में जनगणना का कार्य प्रारम्भ हुआ, उसके बाद 1881 में पुनः जनगणना की गई। वर्ष 1881 के बाद प्रत्येक 10 वर्ष में भारत की आबादी की गणना का कार्य किया जाता रहा। गणना की विधि, समय, गणना करने वाले कार्मिकों आदि में लगातार बदलाव तथा सुधार होते रहे। जनगणना करने का मुख्य उद्देश्य है कि कोई भी योजना जब बनती है तो तत्कालीन आबादी के परिप्रेक्ष्य में ही बनाई जाती है, लेकिन ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि 10 वर्षों में आबादी में संरचनात्मक बदलाव आ जाते हैं। जनसंख्या वितरण, घनत्व, साक्षरता, व्यवसाय वर्गीकरण, जातीय एवं धार्मिक संरचना आदि में बदलाव आ जाते हैं। इन बदलावों के कारण पूर्व में बनी योजनाएँ, जैसे सड़क, बिजली, पेयजल, सीवर लाईन, संचार आदि योजनाएँ कम पड़ने के साथ-साथ उनका प्रतीकात्मक अनुपात भी बदल जाता है। जनसंख्या किस तरह से बढ़ रही है या घट रही है, इस वृद्धि या ह्रास में किन कारणों का योगदान होगा, किस प्रकार से स्थितियों को लोगों के अनुकूल बनाया जाये, आगामी वर्षों में किन सुविधाओं आदि की कितनी आवश्यकता पड़ेगी का अनुमान लगा कर योजना बनाई जाये का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से जनगणना से ही तय होता है।
भारत में सन् 1872 से लेकर वर्ष 2011 तक प्रत्येक दशक की जनगणना निर्बाध रूप से हुई है। लेकिन वर्ष 2021 वाली जनगणना अनेक कारणों से स्थगित हो गई। निश्चित है कि इसके न होने से जनसंख्या में पिछले 10 सालों में क्या-क्या परिवर्तन हुए का अनुमान लगाना कठिन हो गया है।
जनगणना में केवल व्यक्तियों की ही गणना नहीं होती है, बल्कि प्रत्येक शहर/गाँव की सुविधाओं, स्कूल, वार्ड, सड़क, पेयजल, सिचाई, भूमि उपयोग आदि सुविधाओं से गाँव/शहर की दूरी के अनुसार जानकारी जुटाई जाती है। शहरों में वृद्धि, विकास प्रकार आदि अनेक तत्वों का विवरण का संकलन एवं विश्लेषण पर नई टिकाऊ विकास नीति निर्धारित की जाती है।
यह जनगणना के 150 वर्ष के इतिहास में पहली बार हुआ है, जब जनगणना नहीं हुई है। जनगणना ही नहीं होगी तो योजनाएँ तैयार कैसे हो पायेंगी ? सन् 1872 से अभी तक कश्मीर एवं पूर्वोत्तर राज्यों में आंतक एवं हिसां के कारण सन् 1981 तथा 1991 की जनगणना का कार्य नहीं हो पाया था, लेकिन देश व दूसरे राज्यों में हुई थी। पिछली वृद्धि को आधार मानकर आगे की आबादी का अनुमान भी लगाया जाता है। लेकिन कभी-कभी इस प्रकार की गणना में त्रुटि होने की सम्भावना रहती है।
उत्तराखंड का उदाहरण लें। इसकी आबादी 2011 में 1,00,86,292 व्यक्ति थी, जिसमें दो जिलों पौड़ी एवं अल्मोड़ा में जनसंख्या 2001 की अपेक्षा घट गई थी, क्योंकि 1991 में इन जनपदों में वृद्धि दर बहुत कम थी। इसी को यदि ध्यान में रखा जाये तो 2011 में उत्तराखंड के शेष पर्वतीय जनपदों, उत्तरकाशी, चमोली, टिहरी, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ की आबादी में नकारात्मक वृद्धि अर्थात 2011 से कम होने की प्रबल सम्भावना है। इसका मुख्य कारण पर्वतीय जिलों से मैदानी जिलों व अन्य प्रदेशों की ओर पलायन है। पलायन रोकने के लिये योजनाए बनाने की आवश्यकता है। ग्राम स्तर पर संसाधनों के उपयोग का अधिकार वहाँ पर युवा होने वाली पीढ़ी को देना होगा जिससे वह स्थानीय स्तर पर अपने को स्वावलम्बी बना सकें तथा मूलभूत सुविधाओं को विकसित करना होगा। अन्यथा उत्तराखंड का पर्वतीय भाग प्रवासियों का क्षेत्र बनकर रह जायेगा।
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