गिरीश कर्नाड को आप रंग मंच के एक मझे हुए लेखक के तौर पर याद रख सकते हैं, जिसने 26 साल की उम्र में 1964 में तुग़लक़ जैसे एतिहासिक किरदार पर नाटक लिखा.
1986 की बात है जब इसका मंचन हो रहा था और दो ही साल पहले इंदिरा गांधी के बॉडीगार्डों ने उनकी हत्या की थी.
नाटक में संवाद आया कि इस क़िले को कोई भेद नहीं सकता, जिसके जवाब में दूसरा किरदार कहता है कि अक्सर क़िले अंदर से ही भरभराकर टूटते हैं.
लोगों को समझ में आ गया कि भले ही नाटक ऐतिहासिक किरदारों पर है लेकिन ये आज की राजनीति ( इंदिरा गांधी) पर टिप्पणी है.
वहीं कुछ लोग गिरीश कर्नाड को समाज के मुद्दों पर आवाज़ बुलंद करने वाले एक प्रहरी के रूप में याद रखते हैं. कुछ टीवी और सिनेमा के एक अदाकार और निर्देशक के रूप में. यानी एक गिरीश कर्नाड में कई गिरीश करनाड छिपे हुए थे.
मैं सिनेमा वाले गिरीश कर्नाड को याद करना चाहती हूँ. हिंदी, मराठी, कन्नड़, तेलुगु कई भाषाओं में उन्होंने काम किया. मंथन और निशांत जैसी पैरलल सिनेमा की फ़िल्मों से लेकर ‘टाइगर ज़िंदा है’ जैसी कमर्शियल फ़िल्मों तक.
जाने माने अभिनेता, लेखक गिरीश कर्नाड नहीं रहे
आज की पीढ़ी उन्हें टाइगर ज़िंदा में डॉक्टर शिनॉय के किरदार से शायद रखती होगी, लेकिन उनके काम कहीं व्यापक हैं.
फ़्लैशबैक में जाएँ तो याद आता है 1975 में आई फ़िल्म निशांत में गाँव का वो स्कूलमास्टर (गिरीश कर्नाड) जिसकी पत्नी (शबाना आज़मी) को ज़मींदार का जवान बेटा (नसीरुद्दीन शाह) अग़वा कर लेता है, जिसकी शादी (स्मिता पाटिल) से हो चुकी है.
अपने सीमित से उस रोल में गिरीश कर्नाड कई पड़ावों से गुज़रते हैं- पत्नी से अलग हुए पति का दर्द, ज़मीदार के ख़िलाफ़ और गाँव में अकेला और असहाय पड़ा स्कूल मास्टर.
और जब गाँववाले आख़िरकर ज़मींदार के ख़िलाफ़ विद्रोह कर देते हैं तो हिंसा के उस उन्माद में भीड़ उस औरत (शबाना आज़मी) को ज़िंदा नहीं छोड़ती जिसे अग़वा किया गया था और न ही उस औरत (स्मिता पाटिल) को ज़िंदा छोड़ती है जिसका पति अपहरण के लिए ज़िम्मेदार है.
अंत में रहा जाता है तो बस स्कूल मास्टर. मॉब लिंचिंग और उन्मादी भीड़ का रूप बरसों पहले इस फ़िल्म में देखने को मिला था. फ़िल्म में सब किरदारों के नाम हैं लेकिन स्कूल मास्टर तो फ़िल्म में अनाम ही रह जाता.
1976 में आई मंथन जहाँ किसानों के कॉपरेटिव मूवमेंट की कहानी थी जिसमें गिरीश कर्नाड गाँव में आए आदर्शवादी डॉक्टर बनते हैं (वर्गिस कूरियन का रोल), वहीं ये दो लोगों के अनकहे रिश्ते की भी कहानी है.
मुश्किल हालात में गाँव में आया एक डॉक्टर जो गाँव वालों को दूध का सही दाम दिलाना चाहता है और उस पर भरोसा करने वाली एक जुझारू ग्रामीण महिला बिंदू (स्मिता पाटिल) जिसे उसका पति छोड़कर जा चुका है.
दोनों मिलकर कॉपरेटिव मूवमेंट की नींव रखते हैं लेकिन दोनों के बीच एक अनकहा प्रेम और सम्मान का रिश्ता भी बन जाता है. दोनों एक अजीब से मोड़ कर अलग होते हैं लेकिन गाँव में स्मिता पाटिल डॉक्टर के आदर्शों को आगे बढ़ाते हैं. सामंतवाद, जातिवाद, पुरुषवाद.. अपने किरदार के ज़रिए गिरीश कर्नाड सब पर वार करते हैं.
1982 में आई मराठी फ़िल्म उम्बरता शायद उन चंद फ़िल्मों में से थी जिसमें लेस्बियन रिश्तों पर अप्रत्यक्ष रूप से बात की गई है. एक औरत जो घर की चारदीवारी से निकल कर कुछ करना चाहती है. लेकिन उसका वकील पति गिरीश करनाड ऐसा नहीं होने देना चाहता.
गिरीश कर्नाड ने अपने फ़िल्मी करियर में कभी किसी रोल को करने से गुरेज़ नहीं किया भले वो नेगेटिव क्यों न हो.
उम्बरता फ़िल्म में गिरीश कर्नाड उन सब पुरुषों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आज भी रूढ़िवादी सोच में फँसे हुए हैं. वहीं श्याम बेनेगल की फ़िल्म भूमिका उन्होंने सत्यदेव दुबे के साथ मिलकर लिखी. औरत के मन को टटोलती ये भी एक बेहतरीन फ़िल्म थी जिसमें एक अभिनेत्री (स्मिता पाटिल) है जो किसी परंपरा को नहीं मानती, समाज के नियमों को नहीं मानती. वो ख़ुद को तलाश रही है.
गिरीश कर्नाड की कलम इस विधा में माहिर थी. भूमिका के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले का नेशनल अवॉर्ड भी मिला. और फ़िल्मों से बाहर आवाज़ उठाने की ज़रूरत जब पड़ी तो वो कभी पीछे नहीं हटे. इमर्जेंसी के दौरान झुकने के बजाय एफ़टीईआईआई का अक्ष्यक्ष पद छोड़ना उन्होंने बेहतर समझा.
फ़िल्म इक़बाल में वो ऐसे क्रिकेट कोच बने थे जो एक मूक बधिर बच्चे के क्रिकेटिंग हुनर को तो पहचानते हैं लेकिन पैसे और ईष्या के आगे उसे कुछ दिखाई नहीं देता.
हिंदी में उत्सव, गोधुली जैसी फ़िल्मों का उन्होंने निर्देशन भी किया. गोधुली के लिए उन्हें और बीवी कारंथ को सवश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला जिसका निर्देशन भी दोनों ने किया था.
जो लोग 80 और 90 के दशक में बड़े हुए हैं उन्हें टीवी सिरीयल मालगुड़ी डेज़ याद होगा. आर के नारायणन का वो बेहद प्यारा किरदार स्वामी और स्वामी के पिता के रोल में थे गिरीश कर्नाड.
गिरीश कर्नाड बन-बनाए मोल्ड तोड़ने में माहिर थे. जब 1991 में लोगों ने उन्हें एक साइंस प्रोग्राम टर्निंग प्वाइंट में देखा तो हैरान रह गए जिसमें प्रोफ़ेसर यशपाल साइंस से जुड़े मुश्किल सवालों को बड़ी ही आसानी से समझाते थे.
हिंदी के अलावा कन्नड और तेलुगू फ़िल्मों में गिरीश कर्नाड ने बेहतरीन फ़िल्में की हैं. 1970 में आई फ़िल्म समसकारा कन्नड सिनेमा में पैरलल सिनेमा की एक उम्दा फ़िल्म थी.
धर्म और नैतिकता के बीच दंद्ध के बीच फँसे एक ब्राह्मण युवक का रोल गिरीश कर्नाड ने निभाया था. ऐसे सवाल जो आज भी बरकरार हैं.
1983 में आई तेलुगु और कन्नड फ़िल्म आनंद भैरवी में उनका कमाल का अभिनय देखने को मिला था. ये एक ऐसी लड़की की कहानी जो कुचीपुड़ी करने वाली औरत को गिरी हुई मानती थी लेकिन एक पुरुष है जो इस परंपरा को तोड़ने में लगा है.
इसके लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का पुरस्कार भी मिला था. यही गिरीश कर्नाड की फ़िल्मों की ख़ूबसूरती भी थी- उनमें समाज से सरोकार रखने वाले मुद्दे होते थे- वो मुद्दे जो आज भी बने हुए हैं और प्रासंगिक हैं.
‘बीबीसी हिन्दी’ से साभार