गुरप्रीत कौर (कक्षा 11वीं)
ऐसी खबरें सुनते ही मेरे ज़हन में एक ऐसे गाँव की तस्वीर उभरती थी जिसमें भूत बसे हो। मेरे मन में यही आता था कि गाँव में ज़रूर भूत आकर दस्तक देता होगा तो लोग वहाँ से मजबूरी में अपनी जिंदगी को बचाने की तलाश में भाग आते होंगे इसीलिए उसे भूतिया गाँव कह देते होंगे। पर पांडवा के द्वारा बनाई गयी यकुलांस फिल्म को देखने के बाद मेरी इस विषय पर समझ कुछ बदली है। अब मुझे इतना तो इल्म है कि गाँव में भूत आने के कारण लोग वहाँ से नहीं भागते, बल्कि लोगों के वहाँ से चले जाने के कारण लोगों की नजरों में वहाँ भूत आकर बस जाते हैं। इस बात से मेरा आशय है कि जब लोग अलग-अलग मजबूरियों के चलते या एक सरल जीवन की चाह में गाँव छोड़कर शहर की तरफ़ कदम बड़ा लेते हैं और गाँव खाली हो जाते हैं। तो इन सुंदर गाँवों को भूतिया गाँव के नाम से जीना पड़ता है। फिर ये गाँव जिंदा न रहकर मरने लगते हैं।
पांडवा के ग्रुप द्वारा बनाई गई एक शॉर्ट फिल्म “यकुलाँस” में इसी बात पर ज़िक्र किया गया है कि कैसे हस्ते खेलते पहाड़ी गाँव अब भूतिया गाँव बनने के रास्ते पर हैं जबकि कितने गाँव ऐसे हैं जिन्होंने इस रास्ते को पूरा कर भूतिया गाँव की उपाधि प्राप्त कर ली है। उसमें दर्शाया गया है कि यकुलॉस यानी अकेलापन कैसे गांवों में अपना डेरा जमाता जा रहा है? और ये अकेलापन उन गाँव को भूतिया ठेहराने में जिम्मेदार होता है। लगातार बड़ते पलायन के कारण गाँव में अकेलेपन की चीख साफ सुनाई पड़ती है। पहाड़ के गांव धीरे-धीरे यकुलाँस के बादलों से घिरते जा रहे हैं और इन बादलों की छाया में पहाड़ी संस्कृति और परंपरा कहीं गुम होती चली जा रही है।
यकुलांस फिल्म एक बूढ़े आदमी की कहानी से इस मुद्दे को समझाने की एक कोशिश है। इसमें यकुलांस के अंधेरे से ढके एक गाँव के साथ एक बूढ़ा व्यक्ति और उसका एक प्यारा कुत्ता भी फसा है। पहाड़ों के बीच वह अपने कुत्ते के साथ अकेला है और अपनी जिंदगी के लिए मेहनत करता है। रोजमर्रा के काम जैसे खेतों में काम करना, जानवर चराना आदि उसकी दिनचर्या का हिस्सा हैं। गाँव के लोगों के पलायन से पहले वहाँ जो त्योहार मनाए जाते थे और वहाँ की परंपराओं की स्मृति उस व्यक्ति को अकेलेपन में और चिंतित व उदास करती है। उसके बेटा बहु भी उस पलायन का शिकार बन चुके थे। पर उसे उनकी याद आने पर वह उनसे मिलने शहर जाता है तो वहाँ पर छल कपट का सामना पहाड़ो में अकेला रहने वाला वह भोला व्यक्ति नहीं कर पाता और वापिस अपनी जमीन में आ जाता है। पलायन पहाड़ों की जवानी को अपने साथ ले जाता है पर बुढ़े इंसान वहीं अकेलेपन में जकडकर रह जाते है।
पलायन की हवा बहुत तेजी से पहाड़ों की युवा पीढ़ी को बहाते हुए शहरों में पहुंचा रही है। इसका प्रमाण हमें अलग अलग अखबारों के उल्लेखों से भी मिलता है। पिछले साल जनवरी में छपे इंडियन एक्सप्रेश के एक अर्टिकल् के मुताबिक पिछले 10 सालों में 5 लाख से भी अधिक लोगों ने उत्तराखंड से पलायन किया है। RTI से पता चलता है कि इस भारी मात्रा के पलायन ने 700 से अधिक गाँव को भूतिया गाँव बनाने में योगदान दिया है। हरियाली और पहाड़ी परंपराओं के साथ खेलते गाँव अब भूतिया की पहचान को अपने सर लिए बैठें है।
वो कहते है न “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी दोनों ही उसके काम नहीं आती”। पहाड़ की युवा पीढ़ी रोजगार, अच्छी शिक्षा और सफल जीवन ढूंढते हुए पहाड़ी गाँव से शहरों में आ जाती है। वह इस पलायन के बहाव के साथ तो बह आती है पर फिर कभी उसे पीछे मुड़के देखने का या वापिस जाने का मौका नहीं मिल पाता और फिर वहीं बस कर रह जाती है। गाँव के घरों में सदा के लिए ताले लग जाते है और उसके साथ दीमक उसे अपना ठिकाना बना लेती है। दीमक लगे गाँव के घर उनके इंतज़ार में रास्ता तकते रहते है पर उनका इंतज़ार खत्म नहीं हो पाता। और दीमक उन्हे धीरे धीरे बर्बाद करना शुरू कर देती है।
हम इन पहाड़ी गाँवों को मरने से बचा सकते है और उनकी सुंदरता को बरकरार भी तो रख सकते हैं जिससे गाँव के घरों का इंतज़ार खत्म हो सके। और यकुलांस फिल्म के किरदार जैसे और बूढ़े व्यक्तियों की आँखों में पहाड़ी संस्कृति की स्मृति बस स्मृति ही बनकर न रहे। अगर हम शहरों से अच्छी शिक्षा लेकर गाँव में ही कोई काम शुरू करें और उसमें अन्य लोगों को भी रोज़गार दें तो यह पहाड़ी गाँवों को जीवित रखने में मदद करेगा। जब वहाँ लोग रहना शुरू करेंगे या भूतों की जगह इंसान वहाँ रहने लगेंगे तो वहाँ सुविधाएं का भी आगमन होगा क्युंकि भूतों को तो कोई सुविधाएं देने आयेगा नहीं न। तो वह छेत्र खुद ही फलने फूलने लगेगा और फिर इन सुंदर गाँव को भूतिया गाँव की पहचान के साथ नहीं जीना पड़ेगा।
फोटो इंटरनेट से साभार