इस्लाम हुसैन
पिछली सदी में कैसे रहे ताल्लुक़ात ?
मैंने अग्रज शेखर पाठक जी से पिछले दिनों फोन पर बात की थी, उनसे पूछने के लिए कि अल्मोड़ा से काण्डा कम्सियार तक पैदल जाने में कितना समय लगेगा, वो थोड़ा आश्चर्य चकित हुए। उन्होने कहा एटकिंसन का गजेटियर देखना पड़ेगा। बाद में मित्र चंद्रशेखर तिवारी जी से पूछने और उनके द्वारा भेजे गए एटकिंसन गजेटियर के सात पन्नों की छानबीन से भी इस दूरी का पता नहीं चला।
पिछली सदी के शुरुआती साल में मेरे दादा की बारात अल्मोड़ा शहर से काण्डा कम्सियार के सानीउड्यार गांव गई थी। मैं समझता हूं कि 1920 के आसपास जब अल्मोड़ा से आगे सड़क नहीं थी, तब मेरे फौजी दादा मुहम्मद इस्माईल की बारात अल्मोड़ा से काण्डा के पास सानीउड्यार गांव एक दिन में तो नहीं पहुंची होगी। पहाड़ में करीब 20-25 मील की दूरी का यह सफर एक दिन में पूरा हुआ होगा या दो दिन में पूरा हुआ होगा, पता नहीं।
अगर बारात अल्सुबह चली होगी तो हो सकता है एक दिन में पहुंच गई होगी, लेकिन वापसी में ब्योली (मेरी दादी) के साथ यह सफर एक दिन में कैसे पूरा हुआ होगा ? खैर जो भी हुआ होगा। लेकिन इस रास्ते में पड़ने वाले गावों के लोगों ने इस बारात को कैसे देखा होगा? अगर सफ़र एक दिन में पूरा नहीं हुआ होगा तो बारात रात में वह कहां रुकी होगी? गांव वालों ने बारात को हौल्दार सैप की बारात कहा होगा या अल्मोड़े के मुशई की बारात! पता नहीं । ठेठ पहाड़ी क्षेत्र में बसे मुस्लिम गांव सानीउडियार को जाने वाली इस बारात को लोगों ने रुक कर देखा तो होगा, विचार तो किया होगा और बारात का अपने से कुछ तो सम्बंध तो बनाया होगा!
लेकिन काण्डा कम्सियार क्षेत्र के एक मुस्लिम गांव में बीसवी सदी के आरम्भ में जब अल्मोड़ा से बारात गई होगी तो कल्पना करें कि उस गांव को बसे हुए कितना समय हो गया होगा। उस समय अल्मोड़ा से आगे न सड़क थी और न मोटर यातायात था।
काठगोदाम से अल्मोड़ा और आगे कांडा तक के इस पूरे रास्ते को मेरे दादा और उनके परिवार के लोगों रिश्तेदारों ने कितनी बार पैदल पार किया होगा। ऐसा नहीं कि दादाजी ही पैदल चलते थे, बड़ी संख्या में लोग पैदल ही सफ़र करते थे, हल्द्वानी काठगोदाम से अल्मोड़ा जाने वाली बस छठे दशक तक रानीखेत होकर जाता करती थी। उसमें लगने वाले समय (करीब 12 घंटे तक) यानी पूरा दिन और किराया, साधारण कामकाजी लोगों के लिए असुविधाजनक था और महंगा था।, इसीलिए लोग रानीबाग से भीमताल प्यूड़ा होकर अल्मोड़ा पैदल जाया करते थे।
मुस्लिम कारीगर, नाई, मोची और मनिहार (चूड़ी और महिलाओं के काम आने वाली वस्तुएं बेचने वाले) अपना काम धंधा करते मजूरी कमाते हुए यात्रा करना पसंद करते थे। अपने बचपने से लेकर किशोरावस्था तक अब्बाजी और चाचाजी कितनी बार काठगोदाम से अल्मोड़ा पैदल गए, वैसे ही काम करते मजूरी करते हुए।अब्बाजी बताते थे कि इस पैदल रास्ते में रास्ते के स्थानीय दूकानदारों और गांव वालों से(जाहिर है वह हिन्दू रहे होंगे) एक आत्मीय सम्बन्ध बन गया था जहां इन मुशई मुसाफिरों को रात में रुकने और खाना बनाने/खाने की सुविधाएं भी मिल जाती थीं।
इसीलिए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब आंदोलनकारी अल्मोड़ा के रास्ते में पड़ने वाले डाकबंगलों, डाकखानों वह सरकारी दफ्तरों में आग लगाने के लिए घूम रहे थे, तो उसी दौरान अब्बाजी और उनके मामू को पटवारी ने संदिग्ध मानकर पकड़ लिया और चौकी में बंद कर दिया। बाद में सुबह स्थानीय दूकानदारों और गांव वालों की इस तस्दीक पर इन लोगों को छोड़ा गया कि यह लोग मुसाफिर (अल्मोड़े के मुशई) हैं।
एटकिंसन गजेटियर के अनुसार सन् 1821 में अल्मोड़ा में मुसलमानों के 75 घर थे। अल्मोड़ा का मुस्लिम मुहल्ला नियाज़ गंज मुगल काल में यानि के सोलहवीं सदी के आखीरी हिस्से तक में बस गया होगा। क्या उत्तराखंड में मुसलमानों के आगमन की यही पहली तारीख है, इससे पहले उत्तराखंड में मुसलमान नहीं रहे होंगे, या नहीं आए होंगे। असल में यह राज्य का इतिहास है, इसको मोटा माटी ही माना जा सकता है। ऐसा इतिहास जो नागर घटनाओं का इतिहास है जिसमें गांव और गांव के लोग अक्सर नहीं होते। काण्डा कम्सियार के लोग तो बिल्कुल नहीं होते।
1945 के आसपास जब दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ। तब दादाजी मिस्र के बाद बर्मा के बार्डर के युद्ध से बचकर और रिटायर होकर अल्मोड़ा लौटे होंगें। अब्बाजी अल्मोड़ा के राजपुरा प्राईमरी स्कूल में पढ़ते थे
इस बीच दादी का इन्तेकाल हो गया। अब्बा जी तब दस बरस के रहे होंगे और चाचा 3-4 के। दादा जी ने दूसरी शादी कर ली थी, अबकी बार न्याजगंज अल्मोड़ा से ही।
जैसा कि आम तौर होता है जब फौजी नौकरी में होता है उसके जलवे दूसरे होते हैं, लेकिन रिटायरमेंट के बाद कोई चाय का को भी नहीं पूछता। मेरी एक बार फौज के बड़े अफसर से बात हुई थी, उन्होने उन जवानों के अनेक किस्से सुनाए, जिसमें फौज में रहते हुए फौजियों ने अपने घरों में गृहस्थी बनाने में अपनी कमाई लगाई…….. मकान बनाया, जमीन खरीदी, ट्रैक्टर या मोटर साइकिल खरीदी, लेकिन जब वह रिटायर होकर घर आए तो मकान में जगह नहीं मिली। जमीन परिवार की सामूहिक हो गई, मोटर साइकिल ट्रैक्टर रहा बचा नहीं, अगर रहा बचा तो भाई के नाम था, उसी का हो गया।
करीब यही हाल दादाजी के साथ हुआ। रिटायरमेंट के बाद दादा बच्चों को पालने के लिए अल्मोड़ा रानीखेत और काठगोदाम आते जाते रहे और यही नियति उनके लिए ख़तरनाक हुई। पिताजी का स्कूल छूट गया। दादा जी परिवार को लेकर काठगोदाम आ गए जहां वो केमू की बस में कंडक्टर हो गए।
केमू की बस काठगोदाम से अल्मोड़ा वाया रानीखेत चला करती थी। तब काठगोदाम का नारीमैन चौराहा कुमाऊं के सबसे व्यस्त स्थानों में शामिल था। जहां उस समय तक की यातायात की बड़ी कम्पनी, के.एम.ओ.यू. लिमिटेड जिसे देसी तरीके से केमू कहकर काम चलाया जाता था, का हेड आफिस था, यहीं से पहाड़ की गाड़ियों का नम्बर लगता था। उसके नीचे नारीमैन कम्पनी का पेट्रोल पम्प था। उसके सामने सरदार हरबंस सिंह की ट्रांसपोर्ट कम्पनी थी।
केमू के हेड आफिस के सामने बनी इस्माईल बिल्डिंग में केमू के कर्मचारियों की यूनियन केएमटी वर्कर्स यूनियन का आफिस था, जो एक जमाने में राजनैतिक पाठशाला हुआ करती थी, इस यूनियन में बाद में नारायण दत्त तिवारी जैसे दिग्गज नेता भी पदाधिकारी रहे।
नारीमैन चौराहे के सामने ही दादा का बसेरा था लेकिन नई दादी को अल्मोड़ा पसंद था, काठगोदाम में गर्मी भी लगती थी। परेशानी यह थी कि अल्मोड़ा में रोजगार नहीं था। यह कश्मकश परिवार के लिए बहुत खराब रही।
दादा जी के गुजर जाने के बाद जो ‘सम्पत्ति’ वो छोड़ गए उनमें हावड़ा/ कलकत्ता काशी/बनारस में छपीं कुछ धार्मिक किताबें थीं, जो 1934 के आसपास हिन्दी में छपीं थीं। जिन्हें देखकर लगता है कि तब किताबें छापने के कारोबार पर उत्तर भारत की उच्च जातियों का एकाधिकार था। दादा जी यह किताबें फौज में बर्मा फ्रंट से लौटते हुए हावड़ा से खरीद लाए थे। दादाजी फौज में तो रहे लेकिन सूफी तबियत के थे, दुनियादारी के फंदों से दूर रहकर हारमोनियम और सूफी गीत संगीत में मगन रहते थे, उनका सम्बंध लोगों से अच्छा ही रहा होगा।
लेकिन मेरे लिए हमेशा यही जिज्ञासा रही कि उत्तराखंड के करीब बीच में पड़ने वाले काण्डा कम्सियार और उसके आसपास मुस्लिमों की आबादी कैसे बसी होगी ?आज इस सवाल का जवाब देना बहुत ज़रूरी हो गया है। और यह बताना भी ज़रूरी हो गया है कि पण्डितों के गांव देवलथल में साथी जहांगीर राजू का परिवार वहां पीढ़ियों से रचा बसा है।
फोटो- करीब 80 साल पुरानी दादा जी की एक धार्मिक किताब